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Wednesday, September 11, 2013

दंगे पर वोट की फसल

भारत विभाजन के बाद पहली बार भारत आए खान अब्दुल गफ्फार खान ने 24 नवंबर 1969 को संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि- अगर सांप्रदायिक दंगों को भड़कानेवालों या उनमें भाग लेने वालों कोसमुचित दंड नहीं दिया जाता तो फिर बदमाशों को हमेशा ही देश की शांति को खतरा पहुंचाने की छूट मिल जाएगी ।  मुझे बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व चीफ जस्टिस ने भी कहीं कहा है कि इन सारे वर्षों सांप्रदायिक उपद्रवों में जान और माल का विनाश करने के गुनाह में एक भी व्यक्ति को फांसी नहीं दी गई है । अगर यह सच है तो फिर आप इन उपद्रवों से छुटकारा पाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं । खान अब्दुल गफ्फार खान ने आजसे तकरीबन चार दशक पहले जो बातें कही थी वो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक दंगों के बाद एक बार फिर से यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ा हो गया है । हमें इस बात पर पर्याप्त तवज्जो देनी होगी कि सांप्रदायिक दंगों के मुजरिमों को कठोरतम सजा क्यों नहीं दी जाती । पिछले साल दिसंबर में एक लड़की के साथ गैंगरेप के खिलाफ हमारा समाज उठ खड़ा हुआ था । बलात्कार के खिलाफ नया कानून बन गया । लेकिन दंगों के दौरान हो रहे वहशीपन को लेकर हमारा समाज कभी उद्वेलित नहीं होता । जब हमारे समाज का ताना बाना छिन्न भिन्न होता है तो हमारे समाज से कोई आवाज नहीं उठती है । हमें इसके सामाजिक वजहों की पड़ताल करनी होगी । दरअसल हुआ यह कि आजादी के बाद से लगातार अंतर-सामुदायिक सबंध कमजोर होते चले गए। नागरिक समाज और शासक वर्ग के बीच अविश्वास की खाई चौड़ी होती चली गई । देश की संवैधानिक संस्थाओं की चमक फीकी पड़ती चली गई और प्रशासन का इकबाल भी कम हुआ, जिसकी वजह से दंगाइयों के मन में खौफ नहीं रह गया । फांसी की सजा तो अबतक किसी को हुई नहीं ।  
इसके अलावा दंगों में राजनीतिक दलों ने भी जमकर सियासी रोटियां सेंकीं । आजादी के बाद से ही सांप्रदायिकता की जमीन पर वोटों की फसल काटने का काम शुरू हो गया था । भारत में सांप्रदायिक दंगों का एक लंबा इतिहास रहा है और नियमित अंतराल पर देश के अलग अलग हिस्सों में दंगे होते रहे हैं । नब्बे के दशक के शुरुआत में राजनीति में पिछड़ी जातियों के उभार के केंद्र में आने के बाद से दंगों में कमी आई । बिहार में लालू यादव ने मुस्लिम और यादवों के गठजोड़ की ऐसी मजबूत नींव डाली कि उसपर उन्होंने पंद्रह साल के शासन की इमारत खड़ी कर ली । उसी तरह से उत्तर प्रदेश में मायावती के मजबूत होने के साथ सांप्रदायिक हिंसा में कमी आई । लेकिन मुसलमानों के रहनुमा होने का दावा करनेवाले मुलायम सिंह यादव के शासन काल में ऐसा हो नहीं सका । मुलायम के मुख्यमंत्रित्व काल में दंगे हुए । गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक अखिलेश यादव के एक साल के शासन काल में सौ से ज्यादा दंगे हुए । सवाल यह है कि मुलायम सिंह की राजनीति में सांप्रदायिक दंगों का क्या स्थान है । मुलायम सिंह यादव ने अपनी एक ऐसी छवि बनाई है कि वो मुसलमानों के उत्तर प्रदेश में इकलौते रहनुमा हैं । बावजूद इसके मुलायम सिंह यादव की विश्वसनीयता संदिग्ध है । कभी वो अयोध्या के विवादित ढांचे के विध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से गलबहियां करते नजर आते हैं और दावा करते रहे कि कल्याण सिंह ने मस्जिद नहीं गिराई । तो कभी वो लाल कृष्ण आडवाणी और संघ के नेताओं की तारीफ में कसीदे गढ़ते हैं । इस वजह से उनपर भाजपा से मिलीभगत का आरोप भी लगता रहा है । अभी हाल ही में अयोध्या में चौरासी कोसी परिक्रमा को लेकर भी उनपर भाजपा के साथ मिलकर खेलने के आरोप लगे ।
मुजफ्फरनगर दंगों के पीछे भी सियासत का बेहद ही घिनौना खेल खेला गया और इसने तीस से ज्यादा लोगों की जान गई और सैकड़ों जख्मी हुए । एक छोटी सी वारदात को जिस तरह से सांप्रदायिकता का रंग दिया गया उससे यह साफ है कि यह एक सोची समझी राजनीति का हिस्सा है । जिस तरह से सरेआम पंचायतें और तकरीरें हुईं,  भड़काऊ भाषण और छिटपुट वारदातों की प्रशासन ने अनदेखी कर हालात बिगड़ने दिया , लाखों लोगों के इकट्ठे होने तक प्रशासन खामोश रहा वह भी किसी बड़ी साजिश का संकेत देता है । दरअसल अगर हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक संरचना और वोटिंग पैटर्न का विश्लेषण करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि पारंपरिक रूप से यह इलाका कांग्रेस विरोधियों का गढ़ रहा है और जाट और मुसलमान यहां मिलकर वोट करते रहे हैं । एक छोटे से कालखंड को छोड़कर यह इलाका पारंपरिक रूप से पहले चरण सिंह के और अब उनके बेटे अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के साथ रहे हैं । पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के मात्र छह प्रतिशत वोट हैं लेकिन सामाजिक संरचना की वजह से वो कई जिलों में पड़नेवाले लोकसभा की सीटों के नतीजों को प्रभावित करते हैं । इस इलाके में समाजवादी पार्टी और भाजपा की हालात मजबूत नहीं है और प्रभाव भी कम है । इन दोनों दलों की नजर इस इलाके की तेरह लोकसभा सीटों पर है । समाजवादी पार्टी इस इलाके के 15 फीसदी मुस्लिम वोटरों को लुभाकर इस इलाके में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहती है । उधर बीजेपी ध्रुवीकरण से अपनी उपस्थिति में मजबूती देखती है । इन दोनों की राह में जाट और मुसलमानों का गठजोड़ बड़ी बाधा है । मुजफ्फरनगर के दंगों ने जाट और मुसलमानों के बीच के गठजोड़ को तोड़ दिया है और इलाके में दोनों एक दूसरे के आमने सामने खड़े हैं । शहर से बढती हुई यह खाई अब गांवों तक जा पहुंची है जो हमारे समाज के लिए बेहद खतरनाक है लेकिन सियासत के लिए मुफीद । सियासत के नजरिए से देखें तो जाटों और मुसलमानों के वोटों में बंटवारे की स्थिति राष्ट्रीय लोकदल के लिए नुकसानदेह हो सकती है जबकि समाजवादी पार्टी के लिए यह आदर्श स्थिति है । समाजवादी पार्टी इस भरोसे है कि इस इलाके के भयाक्रांत पंद्रह फीसदी मुसलिम वोटर उसकी झोली में आ गिरेगा और भाजपा ध्रुवीकरण की स्थिति में खुद को हिंदू वोटरों की स्वाभाविक दावेदार माने बैठी है । 
दंगों के पीछे की सियासत पर भी संसद के अपने उसी भाषण में महान स्वतंत्रता सेनानी खान अब्दुल गफ्फार खान ने दंगों की सियासत करनेवालों को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा था हो सकता है उन दलों और व्यक्तियों को जो उन्हें बढ़ावा देते हैं या साजिश रचते हैं या बाद में उसके गुनहगारों का बचाव करते हैं, प्रभाव और शक्ति का अस्थायी लाभ मिले, लेकिन उससे ना तो देश की प्रतिष्ठा में कोई इजाफा होता है ना ही राजनीतिक स्थिरता या राजनीतिक और आर्थिक प्रगति हालिल होती है । अफसोस इस बात का है कि इस रोग ने अब समूचे देश को ग्रस्त कर लिया है । वक्त आ गया है कि आप नजरें उठाकर देखें और इस फैलती बुराई पर ध्यान दें । लगभग पैंतालीस साल तक हमने उनकी बातों का नजरअंदाज किया लेकिन अब अगर हमें सचमुच विकसित राष्ट्र बनना है तो हमें नफरत की राजनीति करनेवालों की पहचान कर उन्हें लोकतांत्रिक तरीके से सबक सिखाना होगा । राजनीतिक दलों से पहल की आस बेमानी है , इसके खिलाफ जनता को ही उठकर खड़ा होना होगा और बांटने की सियासत करनेवालों के मंसूबों को नाकाम करना होगा ।

1 comment:

Syed Ruman Shamim Hashmi said...

Dear sir,Great post which i did not expect from you because of your views on earlier political & Socil issues.nevertheleass it seems you are now a changed person.
Ruman