आत्मा और परमात्मा के संदर्भ में मुण्डक-उपनिषद में एक प्रसंग
है – उस प्रसंग में आत्मा और परमात्मा की तुलना दो पक्षियों से की गई है जो दोस्त हैं
और एक ही वृक्ष पर बैठे हैं । एक ही पेड़ पर बैठे दोनों पक्षी-मित्र समान गुण वाले
हैं लेकिन उनमें से एक फल खा रहा है और दूसरा पक्षी फल खा रहे अपने दोस्त को शांति
से देख रहा है । इसका मतलब यह हुआ कि एक पक्षी भौतिक वृक्ष के फलों पर मोहित है और
दूसरा अपने मित्र के कार्यकलापों का साक्षी मात्र है । कमोबेश यही हालत आज हमारे देश
के राजनीतिक दलों का भी है । सभी राजनीतिक दल सियासत के एक पेड़ पर बैठे हैं और यूपीए
रूपी पक्षी सत्ता का फल खा रहा है और विपक्षी दल रूपी पक्षी साक्षी मात्र बना हुआ है
। हमारे देश के अर्थव्यवस्था की हालत पतली है । डॉलर के मुकाबले रुपया सत्तर रुपए तक
पहुंचने के लिए बेताब हो रहा है । शेयर बाजार में खून खच्चर मचा है । सेंसेक्स अठारह हजार
के नीचे तक जा पहुंचा है । डॉलर के मुकाबले रुपया के कमजोर होने से कच्चे तेल का आयात
मंहगा हो गया है । तेल कंपनियों पर पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने का जबरदस्त दबाव
है । हमारी अर्थव्यवस्था में बहुत सारी वस्तुओं का मूल्य निर्धारण परोक्ष रूप से पेट्रोल-डीजल
की कीमत से जुड़ा है । लिहाजा आवश्यक वस्तुओं की कीमत में और इजाफा होने की आशंका बलवती
होती जा रही है । देश के महानगरों और छोटे शहरों में प्याज की कीमतों में आई उछाल ने
इस आशंका को गहरा दिया है । अर्थव्यवस्था की पतली हालत को सुधारने के लिए सरकार के
उठाए कदमों का असर नहीं दिख रहा है । दरअसल अगर हम थोड़ा पीछे जाएं तो देखते हैं कि
यूपीए की पहली पारी में निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा कायम रहा था और विकास
दर नौ फीसदी तक पहुंच गई थी । उस दौर में देश में निवेश और बचत में भी भारी बढ़ोतरी
दर्ज की गई थी । लेकिन कालांतर में जब यूपीए को दूसरी बार जनादेश मिला तो आत्मविश्वास
से लबरेज सरकार ने कई ऐसे नीतिगत फैसले लिए जिनका असर अब जाकर दिखने लगा है । इन नीतिगत
फैसलों का असर यह हुआ कि विदेशी निवेशकों का देश की अर्थव्यवस्था से ज्यादा यहां के
राजनीतिक नेतृत्व में भरोसा कम हुआ । सरकार अस्सी के दशक की नीतियों पर चलती हुई दिखाई
देने लगी । समावेशी विकास के नाम पर जिस तरह से अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ किया गया
उसके भी नतीजे सामने आने लगे हैं । सरकार की नीतियों में आक्रामकता और जोखिम लेने के
संकेतों की बजाए घिसी पिटी लीक पर चलने की ललक दिखाई देने लगी । जाहिर है बाजार इस
तरह के कदमों से उत्साहित नहीं होता है । जिनके पास निवेश करने के लिए पैसे होते हैं
वो पुराने फॉर्मूलों में निवेश करने से हिचकते हैं । भारत के उद्योगपतियों ने कई बार
प्रत्यक्ष तो कई बार परोक्ष रूप से सरकार को पॉलिसी पैरेलेसिस के संकेत दिए। अति आत्मविश्वास
में आकंठ डूबी हुई सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। नतीजा सामने है । अर्थव्यवस्था
में नाकामी का असर मूल्य वृद्धि से लेकर आम आदमी के रोजमर्रा के खर्चों पर पड़ रहा
है । बढ़ती कीमतों ने देश के मध्यवर्ग की कमर तोड़ दी है ।
आम आदमी की बात करनेवाली
कांग्रेस तो आम आदमी के बोझ को कम करने मैं नाकाम रही ही है । कांग्रेस मुक्त भारत
का नारा देनेवाली भारतीय जनता पार्टी भी सरकार को आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करने
के लिए मजबूर नहीं कर पा रही है । भाजपा संसद में इस बात को लेकर बवाल मचाती है कि
कोयला घोटाले की फाइलें गायब हैं, मुलायम सिंह यादव भारतीय सीमा में चीन के घुसपैठ
को लेकर चिंतित दिखाते हैं, डीएमके और एआईएडीएम एक फिल्म के किरदार को लेकर बेहद उत्तेजित
हैं, मायावती, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और नीतीश कुमार फेडकल फ्रंट की जुगत में हैं
। इनमें से किसी भी पार्टी को महंगाई से त्रस्त जनता की चिंता नहीं है । प्रमुख विपक्षी
दल होने के नाते भाजपा की यह जिम्मेदारी बनती है कि वो सरकार की गलत नीतियों को बेनकाब
करे और सुधार के लिए मजबूर करे । लेकिन भाजपा अपनी जिम्मेदारियों को निभाने में अबतक
असफल रही है । लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के भाषण का लालन कॉलेज प्रांगण से
जवाब देनेवाले भाजपा के नए नायक को भी महंगाई बड़ा मुद्दा नहीं लगता । वो भी जनभावनाओं
को उभारनेवाले मुद्दों को ही प्राथमिकताएं देते हैं । छिटपुट प्रतीकात्मक विरोध अवश्य
दिखाई देता है । प्याज की बढती कीमतों से आम आदमी को राहत देने के नाम पर दिल्ली भाजपा
के नेताओं ने सस्ते दामों पर बेचने का फैसला लिया । चंद स्टॉल खोले गए और बड़े नेताओं
ने प्याज तौलते हुए अपनी तस्वीरें खिचवाईं और चलते बने । यह सस्ती लोकप्रियता का बेहद
चालू हथकंडा है । भाजपा के नेताओं ने भ्रम फैलाने की भी कोशिश की । अटल बिहारी वाजपेयी
के शासनकाल में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने तो यहां तक कह दिया कि देश के हालात
1991 जैसे हो रहे हैं । हम तथ्यों पर गौर करें तो सिन्हा के दावों के परखच्चे उड़ जाते
हैं । 1991 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 3 बिलियन डॉलर का रह गया था जो कि इस वक्त
280 बिलियन डॉलर है । उस वक्त आर्थिक विकास दर तकरीबन एक फीसदी थी और इस वक्त आर्थिक
विकास दर लगभग 5 फीसदी के आसपास है । भाजपा तो महंगाई को मुद्दा बनाने में असफल ही
रही है ठीक से बदहाल अर्थवस्था को लेकर सरकार को घेर पाने में भी विफल नजर आ रही है
।
दरअसल भाजपा के नेताओं को अपनी साख पर भरोसा नहीं है
वो मनमोहन सरकार की विफलताओं को अपनी सत्ता की सफलता की सीढ़ी बनाना चाहते हैं । नितिन
गडकरी जब पार्टी के अध्यक्ष थे तो उस वक्त पार्टी ने महंगाई के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन
का ऐलान किया था । एक दो जगहों पर शुरुआत भी हुई लेकिन अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिल
पाने की वजह से पार्टी को आंदोलन रद्द करना पड़ा था । उस आंदोलन की विफलता से भाजपा
को लगा कि महंगाई कोई मुद्दा नहीं है लेकिन इस देश का इतिहास इस बात गवाह है कि महंगाई
पर सरकारें बनीं भी हैं और सरकारें गई भी हैं । देश का विपक्षी दल इतिहास से कोई सबक
लेने को तैयार नहीं दिखते हैं । भाजपा भी उसी पक्षी की तरह है जो अपनी समान गुण वाले
को साथी पक्षी को फल खाते देख रही है और साक्षी मात्र बनकर खुश है । लेकिन भाजपा के
सिर्फ खुश होने से काम नहीं चलेगा उसको आम आदमी की तकलीफों को वाणी देनी ही होगी और
सरकार को इस बात को लेकर मजबूर करना होगा कि वो उन तकलीफों को दूर करे । देश के करोडों
लोगों की आकंक्षाओं पर खड़े उतरना होगा वर्ना एक पक्षी फल खाता रहेगा और दूसरा देखता
ही रह जाएगा ।
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