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Tuesday, October 8, 2013

पीढियों की टकराहट की सियासत

दागी नेताओं को बचानेवाले अध्यादेश पर राहुल गांधी के गुस्से भरे बयान और उनके अंदाज पर पिछले दिनों कांग्रेस कार्यसमिति के एक वरिष्ठ सदस्य से बात हो रही थी । उनका तर्क था कि हमारा देश हमेशा बागियाना तेवर पसंद करता रहा है । उनकी एक और दलील यह थी कि चूंकि हमारे देश में युवा मतदाताओं की संख्या काफी है लिहाजा राहुल गांधी का अंदाज और तेवर दोनों उस वर्ग को पसंद आएगें । मैंने उनको उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के तेवर, पर्चा फाड़ने के अंदाज, बात बात में कुर्ते की बांह चढ़ाने की अदा की याद दिलाई । याद तो उनको उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे भी दिलाने पड़े । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी के बागियाना तेवर और अंदाज और अदा का हश्र पार्टी भुगत चुकी है । मेरी नजर में राहुल गांधी का दागी अध्यादेश पर उठाया गया कदम कांग्रेस की राजनीति में एक बार फिर से पीढ़ियों के करवट लेने का संकेत है । संकेत तो यह पार्टी के अंदर के सत्ता संघर्ष का भी है । सोनिया गांधी की बीमारी की वजह से कम होती सक्रियता और फिर एक रणनीति के तहत राहुल गांधी को कमान सौंपने की पूरी कवायद के दौरान का संघर्ष राहुल गांधी के बयान के माध्यम से सार्वजनिक हुआ । दागी अध्यादेश जारी करने की सिफारिश का फैसला कांग्रेस कोर ग्रुप में हुआ था । इस कोर ग्रुप में सोनिया गांधी और उनके शक्तिशाली राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के अलावा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, रक्षा मंत्री एंटोनी, वित्त मंत्री चिदंबरम और गृहमंत्री सदस्य हैं । कांग्रेस पार्टी में अमूमन सभी अहम फैसले यह ग्रुप करता है । कोरग्रुप के फैसले के बाद कैबिनेट ने उसको पास करके राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया था । तब तक भी राहुल गांधी खामोश रहे । राहुल की अध्यादेश से नाराजगी का संकेत सिपहसालार दिग्विजय सिंह के बयान से मिला । बाद में युवा सांसद और मंत्री मिलिंद देवड़ा ने इसके खिलाफ ट्वीट कर विरोध की आहट साफ कर दी । अगले ही दिन राहुल गांधी ने नाटकीय अंदाज में दिल्ली के प्रेस क्लब पहुंचकर अध्यादेश को बकवास करार दे दिया । अब अगर हम इस पूरे प्रकरण की महीन राजनीति का विश्लेषण करें तो यहां अपने आप को असर्ट करने की एक महीन लकीर नजर आती है । आगामी लोकसभा चुनाव के पहले राहुल गांधी के इस एंग्री यंग मैन की छवि को पुख्ता करने की कोशिश । एक ऐसा युवक जो देश के सिस्टम को बदलने को बेचैन है । राहुल के बयान के बाद जिस तरह से कांग्रेस के नेताओं ने अध्यादेश के बारे में अपने विचारों से पलटी मारी उसमें राहुल की बेचैनी को स्थापित करने की ललक दिखाई देती है ।
दरअसल सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी में जब जब नई पीढी केंद्र में आती है तो इस तरह के बागियाना तेवर देखने को मिलते हैं । पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद जब इंदिरा गांधी ने पार्टी को संभाला था तो उस वक्त भी पीढ़ियों की ये टकराहट साफ तौर पर देखी गई थी । चाहे 1967 का आम चुनाव हो या 1969 में डॉ जाकिर हुसैन के निधन के बाद राष्ट्रपति के चुनाव का मसला । कांग्रेस ने जुलाई 1969 में बैंगलोर में पार्टी की एक बैठक बुलाई । उस बैठक में राष्ट्रपति की उम्मीदवारी पर विमर्श होना था । मोरारजी देसाई, के कामराज, एस के पाटिल, अतुल्य घोष और एस निजलिंगप्पा जैसे शक्तिशाली नेताओं ने नीलम संजीव रेड़्डी को उम्मीदवार बनाना तय कर रखा था । उस बैठक में इंदिरा गांधी ने जबरदस्त आक्रामक रुख अपनाया और बैंगलोर के मशहूर लाल बाग गार्डन इंदिरा ने कांग्रेस के तमाम दिग्गजों के अरमानों पर पानी फेर दिया था । बाद में राष्ट्रपति चुनाव के वक्त भी कांग्रेस में पुराने नेताओं के सिंडिकेट ने इंदिरा को परास्त करने की कोई कसर नहीं छोड़ी।  अपने उम्मीदवार नीलम संजीव रेड़्डी की जीत सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के नेताओं से मुलाकात कर समर्थन मांगा था । इंदिरा ने इस मुलाकात को धर्मनिरपेक्षता से जोड़ दिया और बेहद आक्रामक तरीके से बुजुर्ग नेताओं की साख पर ही सावल कर उनको संदिग्ध बना दिया । नतीजा यह निकला कि नीलम संजीव रेड़्ड़ी हार गए । वी वी गिरी की जीत ने इंदिरा को स्थापित कर दिया । उस वक्त के युवा नेताओं का जोरदार समर्थन इंदिरा को था । पार्टी में इंदिरा के ओज के सामने पुराने और वरिष्ठ नेता लगभग निस्तेज हो गए थे । इंदिरा गांधी की आक्रामकता यहीं नहीं रुकी । रजवाड़ों को मिलनेवाले प्रीवी पर्स और बैंकों के राष्ट्रीय करण के मुद्दे पर भी इंदिरा की आक्रामकता ने उनको जबरदस्त लोकप्रियता दिलवाई थी । पीढ़ियों की इस टकराहट में इंदिरा गांधी विजेता के तौर पर उभरी थी ।
कालांतर में भी इंदिरा गांधी की मौत के बाद जब राजीव गांधी ने सत्ता संभाली तो उन्होंने भी अपने शासन काल के शुरुआती दिनों में सिस्टम के खिलाफ विद्रोही नेता की छवि को ओढे रखा । कांग्रेस के सौ साल पूरे होने के मौके पर 1985 में - एक रपए में से गरीब जनता तक 15 पैसे पहुंचने के उनके भाषण ने जनता के बीच अब काफी उम्मीद जगाई थी । राजीव गांधी के कांग्रेस की राजनीति के केंद्र में आने के बाद भी कांग्रेस में पीढ़ियों के बीच टकराहटट देखने को मिली थी । आर के धवन और माखन लाल फोतेदार जैसे इंदिरा गांधी के विश्वासपात्रों का युग खत्म होने लगा था और अरुण नेहरू, अरुण सिंह, सतीश शर्मा का ग्राफ चढ़ने लगा था । राजनीति से इतर रोमी चोपड़ा और सुमन दूबे जैसे उनके साथी अहम होने लगे थे। इंदिरा गांधी के जमाने के नेता नेपथ्य में चले गए । दरअसल इसके पहले भी इमरजेंसी के पहले जब संजय गांधी ताकतवर हो रहे थे तो उन्होंने भी इंदिरा गांधी के सिपहसालारों के अलग अपनी एक टीम बनाई थी । राजीव गांधी की हत्या के बाद जब सोनिया गांधी ने राजनीति से किनारा कर लिया तो भी परिवार में आस्था रखनेवालों ने उम्मीद नहीं छोड़ी । सीताराम केसरी और नरसिंह राव परिवार की आस्था से इतर कांग्रेसी नेताओं को मजबूत नहीं कर सके । लिहाजा केसरी को अपदस्थ कर सोनिया के सर पर कांग्रेस का ताज रख दिया गया ।
अब राहुल गांधी की शक्ल में इतिहास एक बार फिर से अपने को दोहराने के लिए तैयार है । कांग्रेस में पीढ़ियों के टकराहट की एक और जमीन तैयार हो चुकी है । सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर यह बात साफ भी कर दी । उधर राहुल गांधी की अपनी पसंद नापसंद है । उनकी योजना में अहमद पटेल ,चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे, ए के एंटोनी जैसे नेता कहां फिट होंगे यह देखनेवाली बात होगी । राहुल गांधी कनिष्क सिंह, भंवर जितेन्द्र सिंह, मिलिंद देवड़ा के अलावा अपनी पसंद की टीम के साथ अलहदा किस्म की राजनीति करना चाहते हैं । जिस तरह के संकेत वो दे रहे हैं उससे तो यही लगता है कि वो कांग्रेस पार्टी की कार्यपद्धति में बदलाव लाना चाहते हैं । राहुल गांधी के सामने चुनौती वैसेी ही है जैसी इंदिरा गांधी के सामने थी । कांग्रेस में पैंसठ पार ताकतवर नेताओं की एक फौज है जो यथास्थितिवादी है । उनमें से कुछ को राहुल की मां सोनिया गांधी की सरपरस्ती हासिल है तो कुछ को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की । राहुल गांधी के सामने चुनौती है कि वो अपनी मां सोनिया और प्रधानमंत्री से ताकत पा रहे नेताओं की राजनीति को प्रभावहीन कर अपनी वैकल्पिक राजनीति से कांग्रेस को नई शक्ल दें । अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो इतिहास पुरुष हो जाएंगे वर्ना इतिहास के बियाबान में गुम होने में देर नहीं लगती ।

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