आजकल हिंदी साहित्य के तमाम मसले सोशल नेटवर्किंग साइट्
फेसबुक पर हल हो रहे हैं । विवाद से लेकर विमर्श तक । कुछ लेखकों को फेसबुक की अराजक
आजादी ने एक ऐसा मंच मुहैया करवा दिया है जहां वो अपनी अपनी कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन
करते हैं । कोई वहां बेहतरीन कवि, कहानी, उपन्यासकार, आलोचक और पत्रकार की सूची चिपकाते
रहते हैं तो कई लोग उसको अपने प्रचार का प्लेटफॉर्म मानकर उपयोग कर रहे हैं । फेसबुक
किसी भी मुद्दे या घटना के खिलाफ या समर्थन के अभियान का मंच भी बन गया है । इस आभासी
दुनिया की अराजक आजादी के दौर में कुछ गंभीर मसले भी अभी फेसबुक पर उठ रहे हैं । इसी
तरह का एक गंभीर अभियान फेसबुक पर चल रहा है - चलो करनाल । साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों
से करनाल जाने की अपील इस वजह से की जा रही है कि वहां के पाश पुस्तकालय को बंद करने
की साजिश हो रही है । पाश पुस्तकालय ने करनाल और आसपास के इलाके में साहित्यक सांस्कृतिक
चेतना जगाने का और एक सांस्कृतिक संस्कार विकसित करने का काम किया है । वहां पुस्तकालय
के अलावा देश भर के लेखकों और रंगकर्मियों का जमावड़ा होता रहा है । लेकिन अब उस साहित्यक
सांस्कृतिक केंद्र को बंद करने की कोशिश की जा रही है । हिंदी का साहित्य समाज इससे
उद्वेलित है । कुछ दिनों पहले इस तरह की खबरें आई थी कि दिल्ली की मशहूर और ऐतिहासिक
लाइब्रेरी – दिल्ली बल्कि लाइब्रेरी
के कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल पा रहा है । दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बदहाल है वहां
मूलभूत सुविधाओं का आभाव है । कर्मचारियों के वेतन पर संकट के अलावा पुस्तकालय की किताबों
और पत्र-पत्रिकाओं को सहेजने के लिए भी आवश्यक धनराशि की कमी है । लिहाजा ऐतिहासिक
महत्व की किताबें नष्ट हो रही हैं या उनके नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो गया है । कमोबेश
यही हालत देशभर के पुस्तकालयों का है । यह हालत तो तब है कि जबकि पुस्तकालयों में किताबों
की सरकारी खरीद के लिए लंबा चौड़ा बजट है । किताबों की खरीद के लिए संस्कृति मंत्रालय
के अधीन राजा राम मोहन राय के नाम से एक ट्रस्ट है । यह ट्रस्ट देशभर के सरकारी और
गैरसरकारी पुस्तकालयों को किताबों की खरीद के लिए अनुदान देता है । इस ट्रस्ट में विभिन्न
मंत्रालयों और सरकारी विभागों के अधिकारियों की अलग अलग समिति होती है । इसके अलवा
सांसदों के स्थानीय विकास निधि में भी एक निश्चित धनराशि पुस्तकों के लिए आरक्षित करने
का भी प्रावधान है। सांसद उस धनराशि का उपयोग हर साल अपने इलाके के स्कूलों में किताबें
खरीदने के लिए अनुदान के तौर पर दे सकते हैं । बावजूद इसके हमारे देश में पुस्तकालय
मरणासन्न हो रहे हैं । एक जमाना था जब पुस्तकालयों की अहमियत इतनी ज्यादा थी कि उसके
बगैर छात्रों और शोधार्थियों का काम ही नहीं चलता था । मैं कई ऐसे लेखकों को जानता
हूं जो किसी लेखक की रचनावली पर काम करने के सिलसिले में कोलकाता के नेशनल लाइब्रेरी
में महीनों तक किताबें और पत्र-पत्रिकाएं छानते रहे हैं । मुझे नब्बे के दशक के अपने
दिल्ली विश्वविद्यालय के शुरुआती दिन भी याद आते हैं जब हम अपने छात्र जीवन के दौरान
दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस के सेंट्रल रेफरेंस लाइब्रेरी में नियमित जाया
करते थे । यह नियमितता वैसी ही थी जैसी कि दफ्तर जाने की होती है । तय समय पर घर से
निकल जाना और फिर भोजनावकाश के बाद फिर से वहां जाकर शाम तक डटे रहना । पुस्तकालय में
पढ़ने के माहौल के अलावा भी नियमितता की एक अन्य वजह थी । वह वजह थी वहां पहुंचने वालों
छात्रों की भीड़ । अगर आप दस मिनट भी लेट हो गए तो आपको लाइब्रेरी में जगह नहीं मिलती
थी और आपको निराश होकर वापस लौटना पड़ता था । लेकिन अब वहां के हालात भी बदलने लगे
हैं । सभी लाइब्रेरी की तरह वो भी उदासनीता का शिकार होने लगा है ।
पुस्तकालयों के प्रति उदासीनता और उनकी बदहाली के लिए
हमें इसके सामाजिक और अन्य कारणों की पड़ताल करनी चाहिए । जब हम अपने आसपास देखते हैं
तो ये सारी वजहें हवा में तैरती नजर आती है । कई विद्वानों का मानना है कि पुस्तकालयों
की दुर्गति के लिए इंटरनेट जिम्मेदार है । अब लोगों की मुट्ठी में मौजूद इंटरनेट युक्त
मोबाइल फोन और टैबलेट पर गूगल बाबा हर वक्त हर तरह की मदद को तैयार रहते हैं । आपने
कुछ सोचा और पलक झपकते वो आपके सामने लाखों परिणाम के साथ हाजिर है । इस तर्क में ताकत
है और हो सकता है कि पुस्तकालयों के प्रति हमारी उपेक्षा का यह भी एक कारण हो । लेकिन
पुस्तकालयों के प्रति उपेक्षा की जो सबसे बड़ी वजह है वो है हमारी शिक्षा पद्धति ।
हमारी शिक्षा पद्धति ही इतनी दोषपूर्ण है कि वहां पुस्तकालयों पर अपेक्षित ध्यान नहीं
दिया जाता है । जिस तरह से देशभर में अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का जाल फैला है उसने
भी पुस्तकालयों को स्कूल की शोभा भर बना दिया है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में
इस बात पर जोर तो रहता है कि छात्रों को खेलकूद, नृत्य संगीत से लेकर स्केटिंग में
रुचि विकसित की जाए, लेकिन क्या इन स्कूलों में छात्रों को पुस्तकालयों से उपन्यास
या कहानी या कोई अन्य किताब पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है । अगर हम इसका उत्तर
ढूंढते हैं तो अंधकार दिखाई देता है । आज हमारी शिक्षा प्रणाली में परीक्षा में आनेवाले
अंक इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि उसके अलावा किसी अन्य चीज पर छात्रों, अध्यापकों
और अभिभावकों का फोकस ही नहीं रहता है । छात्रों की इस तरह से कंडीशनिंग की जाने लगी
है कि उसके लिए पाठ्य पुस्तकों के अलावा अन्य किसी पुस्तक का महत्व ही नहीं रह गया
है । अन्य पुस्तकों का महत्व रहे भी क्यों क्योंकि वो पाठ्य पुस्तक तो हैं भी नहीं
।
आज हालात यह है कि नई पीढ़ी के छात्र-छात्राओं को लाइब्रेरी
कार्ड का तो पता है लेकिन उनको लाइब्रेरी का कैटलॉग देखना आता हो इसमें संदेह है ।
कार्ड तो इसलिए पता है क्योंकि नामांकन के साथ ही आपका लाइब्रेरी कार्ड बन जाता है
। कैटलॉग देखना सीखने के लिए तो पुस्तकालय जाना होगा । वहां जाना किसी भी स्कूल में
अनिवार्य नहीं है । इन अंग्रेजी स्कूलों में लाइब्रेरी पीरियड भी होता है लेकिन उसमें
बच्चे पुस्तकालय से ज्यादा वक्त स्कूल परिसर से लेकर खेल के मैदान में बिता देते हैं
। स्कूल के अलावा अगर हम इसके सामाजिक वजहों को देखों तो वहां भी पुस्तक को लेकर एक
खास किस्म की उपेक्षा का भाव दिखाई देता है । आज बच्चों के जन्मदिन के मौके पर दिए
जानेवाले उपहार में किताब नहीं ही होते हैं । इलेक्ट्रॉनिक गेम्स से लेकर बल्ले और
गेंद तक उपहार में दिए जा रहे हैं । मां-बाप के अंदर भी अपने बच्चों को पुस्तक देने
की प्रवृत्ति लगभग खत्म होती जा रही है । इन सामाजिक वजहों से जब पुस्तक को लेकर उपेक्षा
का भाव लगातार मजबूत होता जा रहा है तो उसके आलय यानि पुस्तकालय का उपेक्षित होना तो
स्वाभाविक है ।
दूसरी बात जो पुस्तकालयों की उपेक्षा को लेकर है वह है पुस्तकालयों में किताबों
की खरीद । पूरे हिंदी जगत को यह तथ्य पता है कि राजा राम मोहन राय ट्रस्ट में किताबों
की खरीद या फिर उसकी अनुशंसा में किस तरह के खेल होते हैं । अंट-शंट किताबों की सरकारी
खरीद होती है । कुछ गंभीर पाठक जब नई कृतियों की तलाश में अपने पास के पुस्तकालय में
पहुंचता है तो वहां स्तरहीन किताबें देखकर उसका मन खट्टा हो जाता है । अगली बार पुस्तकालय
जाने से पहले वो दस बार सोचता है । अगर कहीं जाने के लिए किसी को भी दस बार सोचना पड़े
तो समझ लीजिए की उपेक्षा की जमीन तैयार हो रही है । हमारे देश के पुस्ताकालयों के साथ
भी ऐसा ही हो रहा है । अगर हमें अपने देश में पुस्तकालय या पढ़ने की संस्कृति का विकास
करना है तो सर्वप्रथम हमारी शिक्षा प्रणाली की खामियों को दूर करना होगा । पाठ्य पुस्तकों
के अलावा अन्य पुस्तकों के बारे में एक ऐसा मैकेन्जिम बनाना होगा कि नई पीढ़ी के लड़के-लड़कियां
उन्हें भी पढ़ें । इसके अलावा समाज में जागृति पैदा करने के लिए सरकारी और गैरसरकारी
संगठनों को काम करना होगा ताकि मां-बाप अपने बच्चों को किताबों के करीब ले जाएं । सरकारी
खरीद में हो रहे घपलों पर लगाम लगाने के लिए भी जतन करने होंगे । अगर हम ये तीन काम
भी कर लेते हैं तो हमें विश्वास है कि कोई भी पाश पुस्तकालय को बंद करने की साजिश नहीं
रच पाएगा, मशहूर पुस्तकालय उपेक्षा के शिकार नहीं होंगे । अगर ऐसा नहीं हो पाता है
तो फिर पुस्तकालय इतिहास के खंडहर बन जाएंगें ।
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