हिंदी साहित्य इन दिनों पुरस्कार विवाद से गरमाया हुआ है
। इस गरमाहट की आंच हिंदी से जुड़े लोग अच्छी तरह से महसूस कर रहे हैं । हिंदी के महान
साहित्यकार प्रेमचंद के गांव के नाम पर उनके दूर के रिश्तेदार हर साल लमही सम्मान देते
हैं । लमही नाम से से एक पत्रिका भी निकालते हैं । लमही पुरस्कार पिछले चार सालों से
दिया जा रहा है । पिछले चार सालों से यह पुरस्कार अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने में
जुटा था । अब तक ये पुरस्कार मशहूर अफसानानिगार ममता कालिया, पत्रकार साजिश रशीद और
कथाकार शिवमूर्ति का दिया जा चुका है । इन तीन वर्षों के चयन पर विवाद नहीं उठा नहीं
कोई सवाल खड़े हुए । इसकी एक वजह इस पुरस्कार से हिंदी जगत का अनभिज्ञ होना भी हो सकता
है । लमही पुरस्कार देने वाले लोग उसी नाम से एक साहित्यक पत्रिका भी निकालते हैं ।
इस साल भी सबकुछ सामान्य चल रहा था । तीस जनवरी दो हजार तेरह को हिंदी की उभरती हुई
लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ को चौथा लमही सम्मान देने का ऐलान हुआ। निर्णायक मंडल में
संयोजक विजय राय के अलावा वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता, फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी,
लेखक सुशील सिद्धार्थ और प्रकाशक महेश भारद्वाज थे । इस साल विश्व पुस्तक मेले के मौके
पर इस पुरस्कार की खूब चर्चा रही थी । लमही के मनीषा कुलश्रेष्ठ पर केंद्रित अंक की
जोरदार बिक्री का दावा भी किया गया । इस तरह से प्रचारित किया गया कि ये हिंदी साहित्य
जगत की कोई बेहद अहम घटना हो । थोड़ा बहुत विवाद उस वक्त निर्णायक मंडल में प्रकाशक
के रहने पर उठा था लेकिन चूंकि पुरस्कार की उतनी अहमियत नहीं थी लिहाजा वो विवाद जोर
नहीं पकड़ सका । तकरीबन छह महीने बाद उनतीस जुलाई को दक्षिण दिल्ली के मशहूर और प्रतिष्ठित
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में समारोहपूर्वक लमही सम्मान अर्पण संपन्न हुआ । पत्र-पत्रकिओं
से लेकर अखबारों तक में इस समारोह की खूब तस्वीरें छपी । ऐसा पहली बार हुआ था कि लमही
सम्मान समारोह उत्तर प्रदेश की सरहदों को लांघ कर दिल्ली पहुंचा था। हिंदी जगत में
यह माना गया कि लमही सम्मान अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए दिल्ली पहुंचा । इस
भव्य समारोह को इसी आलोक में देखा समझा गया था । इस पृष्ठभूमि को बताने का मकसद इतना
है कि पाठकों को पूरा माजरा समझ में आ सके ।
पुरस्कार अर्पण समारोह तक सबकुछ ठीक रहा । असल खेल शुरू हुआ
पुरस्कार अर्पण समारोह के डेढ महीने बाद । सोशल नेटवर्किंग साइट पर किसी ने लिखा कि
लमही पुरस्कार के संयोजक ने लखनऊ की एक पत्रिका को साक्षात्कार में कहा है कि इस साल
मनीषा कुलश्रेष्ठ को लमही पुरस्कार देकर उनसे चूक हो गई। किसी ने पत्रिका को देखने
की जहमत नहीं उठाई। किसी ने विजय राय समेत जूरी के सदस्यों से बात करने की कोशिश नहीं
की । किसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर उनमें से किसी का पक्ष भी नहीं छपा । सिर्फ एक पोस्ट
के बाद यह खबर फेसबुक पर वायरल की तरह फैल गई । शोर ऐसा मचा कि कौआ कान लेकर भाग गया
और बजाए अपने कान को देखने के उत्साही साहित्यप्रेमी कौआ के पीछे भागने लग गए । फेसबुक
की अराजक आजादी ने कौआ के पीछे भागनेवालों की संख्या बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम किया
। नतीजा यह हुआ कि मनीषा कुलश्रेष्ठ ने फौरन अपनी फेसबुक पर लिखा- मैं यहां जयपुर में
हूं । लमही सम्मान की बाबत तमाम विवाद से अनभिज्ञ हूं .....विजय राय जी का बयान अगर
सत्य है कि उन्होंने दबाव में पुरस्कार दिया है तो इस अपमानजनक सम्मान को मैं लौटाने
का निर्णय ले चुका हूं । कौआ के पीछे भागने की एक और मिसाल । अगर मगर की बजाए जूरी
के सदस्यों से बात करने के बाद टोस तरीके से अपनी बात रखी जाती । लेकिन अपमानजनक विवाद
में पड़ने के बाद संतुलन रखना थोड़ा मुश्किल काम होता है । पुरस्कृत लेखिका ने दावा
किया उसने पुरस्कार के लिए ना तो प्रविष्टि भेजी थी और ना ही अपनी किताब । उन्होंने
मांग की कि जूरी और संयोजक उनसे माफी मांगे । उन्होंने आहत होकर लेखन छोड़ देने का
संकेत भी दिया था । एक माहिर राजनेता की तरह चले इस दांव से फिर फेसबुकिया ज्वार उठा
और लेखिका ने अपना निर्णय बदल लिया । खैर यह
तो होना ही था । लेखिका का आग्रह था कि पुरस्कार लौटाने के निर्णय को हिंदी में एक
परंपरा की शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए । लेकिन वो यह भूल गईं कि हिंदी में पुरस्कार
लौटाने की एक लंबी परंपरा रही है । लेकिन ज्यादातर साहित्यक वजहों से । ज्यादा पीछे
नहीं जाकर अगर हम याद करें तो दो हजार दस में आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने हिंदी अकादमी
का पुरस्कार ठुकरा दिया था । उनका विरोध कृष्ण बलदेव वैद के लेखन के समर्थन और हिंदी
अकादमी के उस लेखन के एतराज पर था । अग्रवाल के पुरस्कार लौटाने के बाद हिंदी अकादमी
की साख पर सवाल खड़ा हो गया था ।
लमही सम्मान पर यह विवाद इतने पर ही नहीं रुका । अब पुरस्कार,
लेखक, जूरी सदस्यों के बारे में निहायत घटिया और बेहूदा बातें भी सामने आने लगी । पेसबुक
पर जिसे जो मन आया लिखता चला गया । हिंदी साहित्य से जुड़े लोग चटखारे ले लेकर इन व्यक्तिगत
बातों से आनंद उठाने लगे । लेकिन वो बातें इतनी घटिया थी कि उसको पढ़ने के बाद हमको
अपने को हिंदी साहित्य से जुड़े होने पर भी शर्म आ रही थी । हिंदी साहित्य में व्यक्तिगत
आरोप प्रत्यारोप की कोई जगह होनी नहीं चाहिए और हमें उसका घोर प्रतिवाद भी करना चाहिए
। साहित्यक मसलों में व्यक्तिगत लांछन लगानेवालों का साहित्यक बहिष्कार किया जाना चाहिए
। लेकिन यहां फर्क हिंदी और अंग्रेजी की मानसिकता का और कुंठा का है । हिंदी का लेखक
इतना कुंठित हो गया है कि उसको मर्यादा की परवाह ही नहीं रही । मैं लंबे समय से इस
कुंठा पर लिखता आ रहा हूं लेकिन राजेन्द्र यादव को यह छाती कूटने और मात्र विलाप करने
जैसा लगता है । हकीकत यह है कि हिंदी के ज्यादातर लेखक अदने से लाभ-लोभ के चक्कर में
इतने उलझ गए हैं कि वो बड़ा सोच ही नहीं सकते हैं । अब देखिए कि पंद्रह हजार रुपए के
इस पुरस्कार के लिए इतना बड़ा विवाद । इस विवाद के पीछे भी हाय हुसैन हम ना हुए की
मानसिकता ही है ।
दरअसल
आज हिंदी साहित्य के परिदृश्य में इतने पुरस्कार हो गए हैं कि हर दूसरा लेखक कम से
कम एक पुरस्कार से नवाजा जा चुका है । पुरस्कारों की संख्या बढ़ने के पीछे लेखकों की
पुरस्कार पिपासा है । इसी पुरस्कार पिपासा का फायदा उठाकर हिंदी साहित्य को कारोबार
समझनेवाले लोग फायदा उठाने में जुटे हैं । शॉल श्रीफल के पीछे का खेल बेहद घिनौना है
। पुरस्कारों के खेल पर लेखक संगठनों की चुप्पी भी खतरनाक है । हिंदी के तीनों लेखक
संगठनों ने अब तक हिंदी में पुरस्कारों की गिरती साख को बचाने के लिए कोई भी ठोस कदम
नहीं उठाया है । लेखक संगठन भी पुरस्कृत लेखक या फिर विवादित लेखक की विचारधारा को
देखकर ही फैसला लेते हैं । उनके लिए साहित्य प्रथम का सिद्धांत कोई मायने नहीं रखता
है । उनके लिए तो विचारधाऱा सर्वप्रथम और सर्वोपरि है । लेखकों के सम्मान और अपमान
को भीवो विचारधारा की कसौटी पर ही कसते हैं । लमही सम्मान विवाद पर भी लेखक संगठनों
ने चुप्पी साधे रखी । उसके बाद के अप्रिय प्रसंगों पर भी लेखक संगठनों ने उसको रोकने
के लिए कोई कदम उठाया हो ये ज्ञात नहीं है । अब वक्त आ गया है कि हिंदी साहित्य के
वरिष्ठ लोग मिलजुल कर बैठें और पुरस्कार को लेकर तल रही राजनीति और खेल को रोकने के
लिए पहल करें । हिंदी में पुरस्कारों की लंबी और प्रतिष्ठित परंपरा रही है । उस सम्मानित
परंपरा को वापस लाने का काम वरिष्ठ लेखकों को अपने कंधों पर उठाना होगा । अगर ऐसा होता
है तो इससे हिंदी का भी भला होगा और साहित्यकारों की साख पर भी सवाल नहीं उठेंगे ।
इसके अलावा हमसब को मिलकर कुंठित और व्यक्तिगत लांछन लगानेवालों का बहिष्कार भी करना
होगा । लेकिल सवाल यही है कि क्या हम हिंदी वालों के बीच इतना नैतिक साहस है । क्या
हम हजारी पुरस्कारों का मोह त्याग सकेंगे । क्या हम छोटे लाभ लोभ से मुक्त हो सकेंगे
या व्यक्तिगत हितों की अनदेखी करने का साहस उटा पाएंगे । हिंदी साहित्य के सामने आज
ये बड़ा सवाल मुंह बाए खड़ा है । इससे बचकर निकलने से हमारा ही नुकसान है । फायदा इन
सवालों से मुठभेड़ में ही है । रास्ता भी वहीं से निकलेगा
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