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Saturday, October 5, 2013

विश्वास का कत्ल रोको

दिल्ली गैंगरेप के मुजरिमों को फांसी की सजा के ऐलान और बीजेपी में घमासान के बाद नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री पद पर उम्मीदवारी की घोषणा और फिर दागियों को बताने के सरकार के अध्यादेश और उसपर राहुल गांधी के गुस्से का दिखावे के कोलाहल के बीच कई अहम खबरें दब गई । गैंगरेप के मुजरिमों को दोषी ठहराए जाने और सजा  मुकर्रर होने के बीच बच्चियों के यौन शोषण और उनके साथ रेप की घिनौनी वारदात की खबरें किसी भी सभ्य समाज पर कलंक है । देश के कई कोनों से बाल यौन शोषण की खबरें आईं । कथाववाचक आसाराम पर भी संगीन इल्जाम लगे । फिर खबर आई कि एक म्यूजिक टीचर ने बच्ची का यौन शोषण किया । मुंबई से दिल दहला देनेवाली खबर आई कि स्कूल बस के क्लीनर ने चार साल की बच्ची के साथ रेप किया । उसके पहले भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के अलावा देश के अन्य हिस्सों से बच्चों के यौन शोषण की बेचैन करनेवाली खबरों लगातार आती रहीं है । कहीं स्कूल में शिक्षकों ने बच्चों का यौन शोषण किया तो कहीं बच्चों को स्कूल लाने ले जाने वाली गाड़ी के ड्राइवरों ने । बच्चों के यौन शोषण की इस तरह की खबरों पर गंभीरता से राष्ट्रव्यापी बहस की जरूरत थी । इस दिशा में पहल भी हुई थी । बच्चों के यौन शोषण की खबरों के बाद मीडिया में मचे शोरगुल और हो हल्ले के बाद सरकार और संबंधित मंत्रालय इस दिशा में सक्रिय हुआ था । नतीजा यह हुआ कि बच्चों को इस तरह के यौन अपराध से बचाने के लिए पिछले साल प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड अगेंस्ट सेक्सुअल ओफेंस एक्ट (पॉक्सो ) लागू हुआ । लेकिन इस कानून के प्रावधानों में कई झोल हैं । उसके प्रावधाऩों में बहुत ज्यादा सुधार की आवश्यकता है । इस कानून में सजा का प्रावधान हल्का है और कई खामियों की वजह से आरोपियों के बच निकलने का रास्ता भी देता है ।
बच्चों और नाबालिगों के मामले में कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि स्कूल आरोपियों को सजा दिलवाने की बजाए मामले को दबा देने में अपना सारा जोर लगा देते हैं । पीड़ित बच्चों के अभिभावकों को स्कूल और बच्चे का नाम खराब होने की दुहाई देकर मामले को रफा दफा करने की कोशिश की जाती है । बच्चे के परिवार की आर्थिक आधार को देखकर तरह तरह के प्रलोभन भी दिए जाते हैं । पॉक्सो में हलांकि आरोपियों को बचाने या केस दबाने या बिगाड़ने की कोशिश करनेवालों के लिए 6 महीने की सजा या मामूली जुर्माने का प्रावधान है । इस मामूली सजा से स्कूल संचालकों के मन में कानून का भय नहीं पैदा होता है । एक तो कानूनी दांव पेंच और उसकी लंबी प्रक्रिया उसपर से बहुत हल्की सजा का प्रावधान । यौन शोषण के मामले में ज्यादातर बच्चों के परिवार वाले भी बदनामी के डर से समझौता कर लेने में ही भलाई समझते हैं । महानगरों में तो इस तरह के मामले उजागर भी हो जाते हैं लेकिन सुदूर गांवों और कस्बों में तो इस तरह के अपराध के ज्यादातर अननोटिस्ड रह जाते हैं । ना तो समाज उतना जागरूक है और ना ही मीडिया की नजर वहां पहुंच पाती है । गांव के बड़े बुजुर्ग मामले को यह कहकर निबटा देते हैं कि परिवारों की इज्जत बची रह जाएगी। बच्चों के यौन शोषण को अपराध नहीं मानकर उपहास किया जाता रहा है ।
बच्चों के साथ स्कूल या फिर स्कूल जाने के रास्ते में इस तरह की वारदात दरअसल एक भरोसे का कत्ल है । परिवार अपनो बच्चों को सौ फीसदी भरोसे के साथ स्कूल भेजता है । यह मानकर उनका बच्चा सुरक्षित है । अदालतें भी इस भरोसे का सम्मान करती हैं । दो हजार दस में मद्रास हाईकोर्ट ने एक स्कूल के फिजिकल ट्रेनिंग इंसट्रक्टर, जिसपर चौथी कक्षा की छात्रा के रेप का आरोप था, की दस साल की सजा बरकरार रखी थी । कोर्ट ने उस वक्त माना था कि बच्चों के यौन शोषण पर लगाम लगाने के लिए कड़े कानून की जरूरत है । कई अदालतों की टिप्पणियों और वारदातों की खबरों ने सरकार को पॉस्को बनाने पर मजबूर कर दिया । लेकिन सिर्फ कानून बनाने से काम नहीं चल सकता है । बच्चों के यौन शोषण और नाबालिग से रेप के मामलों में सख्त कानून के अलावा स्कूलों में और स्कूल से घर आने-जाने दौरान बच्चों की सुरक्षा को लेकर एक व्यापक राष्ट्रीय नीति की भी आवश्यकता है । इस वक्त अलग अलग शिक्षा बोर्ड और अलग अलग राज्यों में इस तरह के मामलों से निबटने के लिए अलग अलग तरह के गाइडलाइंस हैं । पूरे देश में बच्चों के खिलाफ बढ़ रहे यौन हिंसा के मद्देनजर एकीकृ्त गाइडलाइंस बनाकर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि स्कूल अपने यहां होने वाली इस तरह की वारदात पर त्वरित कार्रवाई करे और फौरन पुलिस को सूचित कर मुजरिमों को ना सिर्फ पकड़वाने में सहयोग करे बल्कि सजा दिलवाने में भी सक्रिय भूमिका निभाए । अगर कोई भी स्कूल ऐसा करने में विफल रहता है तो उसकी मान्यता रद्द करने से लेकर संचालकों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई का भी प्रावधान होना चाहिए । अहम कामकाज के लिहाज से आगामी लोकसभा चुनाव के पहले संसद का सिर्फ एक सत्र बाकी है । संसद के शीतकालीन सत्र के हंगामेदार होने की उम्मीद की जा रही है क्योंकि चुनाव के पहले सतापक्ष और विपक्ष दोनों तरफ से माहौल बनाने की कोशिश होगी  । कोयला घोटाले से लेकर दागियों के अध्यादेश पर बवाल तय है । क्या हम और हमारा समाज लोकतंत्र के मंदिर में बैठनेवाले निति नियंताओं से यह अपेक्षा कर सकते हैं कि राजनीति के कोलाहल के बीच वो देश के बच्चों की चिंता के लिए वक्त निकालकर इसपर गंभीर मंथन करेंगे । उम्मीद तो बाल एवं महिला विकास मंत्रालय से भी की जानी चाहिए जो कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मदद लेकर इस बारे में एक एकीकृत राष्ट्रीय नीति बनाए । शिक्षा के अधिकार का कानून बना देने से बच्चों को शिक्षित करने का लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सकता है । शिक्षा के अधिकार के साथ बच्चों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी होगी ।
 

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