बीते साल दिल्ली के राजनीतिक क्षितिज पर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के
उदय के साथ साथ सिर्फ कैलेंडर ही नहीं बदला बल्कि ऐसा माहौल बना है जिससे ये प्रतीत
होने लगा है कि भारत की सियासत का चेहरा भी बदलने लगा है । दिसंबर में विधानसभा चुनाव
के पहले और उसके बाद 4 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की शानदार सफलता के बाद पार्टी
के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी देश की राजनीति के केंद्र में थे । उनकी
विकास पुरुष और कुशल और कड़क प्रशासक की छवि का डंका पूरे में देश में बज रहा था और
बजाया जा रहा था । राहुल गांधी पर नरेन्द्र मोदी के लगातार प्रहार और कांग्रेसियों
को मोदी पर निशाना साधने के बाद ऐसा लगने लगा था कि इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव
मोदी बनाम राहुल गांधी होगा । मोदीमय माहैल में राहुल गांधी का पलड़ा कमजोर दिख रहा
था । एक तो नरेन्द्र मोदी जनता से बेहतर संवाद कायम करने की कला में राहुल गांधी पर
भारी पड़ रहे थे । दूसरे नेन्द्र मोदी अपनी रैलियों में देश की ऐतिहासिक विरासत को
नजरअंदाज करने का आरोप कांग्रेस पर लगाकर वाहवाही लूट रहे थे । मोदी ने अपनी ताबड़तोड़
रैलियों से और उन रैलियों को प्रसारित प्रचारित करने की शानदार योजना बनाकर जनता के
बीच अपनी पहुंच बनाने की कोशिश की । मोदी को उसमें सफलता भी मिलने लगी थी । मीडिया
कं कंधों पर सवार होकर मोदी का चुनावी रथ निर्बाध गति से दौड़ रहा था । चार राज्यों
के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत का सेहरा भी मोदी के सर ही बंधा ।
विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह साफ हो गया था कि दो हजार चौदह के आम चुनाव में
मोदी का पलड़ा राहुल गांधी पर भारी है । राहुल गांधी यदा कदा अपनी एंग्री यंग मैन की
छवि से खबरों में रहने की कोशिश करते थे लेकिन किसी भी मुद्दे पर वो इतनी देर से प्रतिक्रिया
देते थे कि सारे किए कराए पर पानी फिर जाता था । दागी नेताओं के चुनाव लड़ने वाले अध्यादेश
को जब कैबिनेट की मंजूरी मिल गई और ये तय हो गया था कि उसे अधिसूचित कर दिया जाएगा
तो अचानक से प्रेस क्लब में राहुल गांधी का गुस्सा फूटा और उसको फाड़ कर कूड़ेदान में
डालने की बात तक कह गए । कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह लगा था कि इससे जनता के बीच
राहुल गांधी की छवि बेहतर होगी । संदेश ये जाएगा कि राहुल गांधी राजनीति में किसी तरह
की गंदगी बर्दाश्त नहीं करते हैं । पर संदेश क्या गया । संदेश यह गया कि प्रधानमंत्री
बेहद कमजोर हैं । संदेश यह गया कि सरकार और संगठन के बीच तालमेल नहीं है । संदेश यह
गया कि राहुल गांधी की एक घुड़की के आगे पूरी सरकार नतमस्तक है । पता नहीं इससे राहुल
गांधी की व्यक्तिगत छवि को कितना फायदा हुआ लेकिन सरकार की साख और उसकी हनक पर खासा
असर पड़ा । विरोधियों को मनमोहन सिंह पर हमला करने का एक और मौका मिल गया । आम चुनाव
के पहले जब सियासी वातावरण गरमाया हुआ है तो कांग्रेस पार्टी भ्रमित नजर आने लगी ।
राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर ही सवाल खड़े होने लगे । ऐसा प्रतीत होने लगा कि
कांग्रेस ने मोदी के सामने हथियार डाल दिए हैं । लेकिन जैसा कि हमेशा कहा जाता है राजनीति
अनंत संभावनाओं का खेल है । कांग्रेस की एक छोटी सी चाल चली और उसका असर यह हुआ कि
उसने देश की राजनीति के खेल को बदलने की शुरुआत कर दी है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद देश के इकलौते सिटी स्टेट में किसी की सरकार
नहीं बनी । अपने खिलाफ चुनाव लड़नेवाली नवजात पार्टी – आम आदमी पार्टी को कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन का ऐलान कर दिया । जनता का मत
जानने के बाद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने । अब यहीं से सियासी खेल ने पलटी
मारी । नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी की चुनावी जंग में अरविंद केजरीवाल नाम का एक
शख्स घुस गया । एक ऐसा शख्स जिसी छवि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लड़नेवाले योद्धा की
है । जो अपरंपरागत राजनीति करता है । अब जनता के सामने एक ऐसा शख्स भी आ गया जो मुख्यमंत्री
है लेकिन किसी तरह का तामझाम नहीं है । साधारण सी गाड़ी में चलता है । मुख्यमंत्री
होने के बाद ट्रैफिक सिग्नल पर आम आदमी की तरह रुक कर इंतजार करता है । इस आम आदमी
के जंग में आने से भारतीय जनता पार्टी का अंकगणित गड़बड़ाने की बात शुरू हो गई । इस
तरह की आशंकाएं जताई जाने लगी कि आम आदमी पार्टी मोदी का खेल खराब कर सकती है । देश
के शहरी मतदाता आम तौर पर भारतीय जनता पार्टी और मोदी के वोटर माने जाते हैं । पिछले
चुनावों में यह बात बार बार साबित भी हुई है । अरविंद केजरीवाल भी शहरी वोटरों की ही
पसंद हो सकते हैं । दिल्ली के नतीजे यही संकेत देते हैं । उत्साही विश्लेषक इस बात
के कयास लगाने लग गए कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी लोकसभा चुनाव में चालीस से पचास
सीटें जीत सकती हैं । इस आकलन का आधार यह है कि भ्रष्टाचार और महंगाई से आजिज आ चुके
शहरी और सेक्युलर मतदाता आम आदमी पार्टी को समर्थन दे सकते हैं । अगर ऐसा होता है तो
देश के कई बड़े शहरों की कुछ लोकसभा सीटों पर आम आदमी पार्टी को सफलता मिल सकती है
। अगर शहरी मतदाताओं का वोट भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी के बीच बंट जाता
है तो निश्चित रूप से मोदी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती है । आम आदमी पार्टी भले
ही सवा साल पहले बनी पार्टी हो लेकिन संतुलन बिगाड़ने में कामयाब हो सकती है । यह भारतीय
जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के लिए चिंता का सबब हो सकती है ।
लेकिन हमें यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली का भूगोल और वहां रहनेवालों लोगों
की मानसिकता पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करती है । दिल्ली एक बहुत ही छोटा शहरी
राज्य है जहां मतदाताओं की प्राथमिकताएं और पसंद अलहदा है । दिल्ली के वोटरों की पसंद
के आधार बिहार या उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के मूडका आकलन करना या कयास लगाना भी उचित
नहीं होगा ।इसी तरह से दिल्ली की राजनीति से मिल रहे संकेतों के आधार पर दक्षिणी या
उत्तर पूर्व के राज्यों के वोटरों को भांपना मुश्किल है । उनकी समस्याएं अलग हैं ।
बिहार और उत्तर प्रदेश में जाति और धर्म मतदाताओं के अंदर तक इतने गहरे तक घुसे हुए
हैं कि अंत में सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं । मतदान के एक दिन पहले यह तय
होता है कि अमुक उम्मीदवार अपनी जाति का है और सबकुछ भुलाकर लोग उसको वोट डाल आते हैं
। बिहार में तो ऊंची जाति बहुल कई इलाकों में उम्मीदवारों ने हाथ में जनेऊ लेकर वोट
मांगे हैं और रातों रात मतदाताओं का निर्णय बदल गया है । सारी समस्याओं के ऊपर जाति
हावी होते देखा गया है । इसलिए जो विश्लेषक आम आदमी पार्टी को लेकर खासे उत्साहित हैं
उन्हें अपने उत्साह को दरकिनार कर वस्तुनिष्ठता के साथ भारतीय समाज की विविधताओं के
आधार पर आकलन करना होगा । यह सही है कि केजरीवाल की पार्टी का दिल्ली के अपने पहले
ही चुनाव में तीस फीसदी वोट और चालीस फीसदी सीट हासिल करना किसी चमत्कार से कम नहीं
है । लेकिन सिर्फ इस चमत्कार के आधार पर यह आकलन करना कि लोकसभा चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल
हो जाएगा, थोड़ी जल्दबाजी होगी । हां इतना तय है कि अरविंद केजरीवाल के रूप में भारत
की बजबजाती सियासी माहौल में जनता को एक विकल्प मिला है ।
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