मशहूर अमेरिकी लेखिका और शिकागो विश्वविद्यालय में
इतिहास और धर्म में प्रोफेसर वेंडी डोनिगर की
किताब- द हिंदूज, एन
अल्टरनेटिव
हिस्ट्री
को उसके प्रकाशक पेंग्विन बुक्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने बाजार से वापस लेने और
छपी हुई बाकी प्रतियों को नष्ट करने का
फैसला लिया गया है । यह फैसला अदालत में
उस किताब पर चल रहे केस
के मद्देनजर याची शिक्षा बचाओ समिति के साथ समझौते के बाद
हुआ । दरअसल दिल्ली की
एक संस्था को इस किताब के
कुछ अंशों पर आपत्ति थी और
उस संगठन से जुड़े दीनानाथ बत्रा ने दो हजार ग्यारह में इस किताब के कुछ अंशों को हिंदुओं की भावनाएं भड़काने का आरोप लगाते हुए केस दर्ज करवाया था । किताब के खिलाफ याचिका दायर होने
के तीन साल बाद आउट ऑफ द कोर्ट एक समझौता हुआ जिसके तहत
किताब को वापस लेने का
फैसला हुआ । दरअसल इस किताब के छपने के बाद से ही विवाद शुरू हो गया था । इस किताब के छपने के बाद ही अमेरिका में इसको खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो चुका है । लंदन में तो लेखिका पर अंडे तक फेंके जा चुके हैं । साइबर दुनिया में भी इस किताब के खिलाफ अभियान चल रहा है । इस मामले के सामने आने के बाद कई लोग इस बात पर छाती कूटने लगे कि ये अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है । कई लोग इसको हिंदू संगठनों की कथित फासीवादी मानसिकता करार दे रहे हैं । सेक्युलरिज्म के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों को हिंदू संगठनों पर हमला करने का एक बहाना चाहिए होता है । प्रकाशक के इस फैसले में उनको संभावना नजर आई और वो फासीवाद-फासीवाद चिल्लाने लगे
। सवाल ये उठता है कि साल दो
हजार नौ में
किताब छपी उसके
पांच साल बाद
इस किताब को
वापस लेने का
फैसला प्रकाशक ने
लिया । इसमे फासीवाद कहां से आ गया । क्या अब इस देश में किसी को भी अदालत का दरवाजा खटखटाने का अधिकार नहीं है । क्या शांतिपूर्ण तरीके से कोई विरोध
नहीं जताया जा सकता है । क्या अहिंसक तरीके से विरोध करना फासीवाद है । इस तरह के मामले तो पूरे विश्व में होता रहा है कि अगर किसी को किसी किताब पर या उसके अंश पर आपत्ति है तो वो अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं । इस किताब के खिलाफ याचिकाकर्ता ने भी भारतीय संविधान के तहत मिले अपने नागरिक अधिकारों का उपयोग करते हुए कोर्ट में केस किया । अदालत में मुकदमा चल ही रहा था कि दोनों पक्षों ने समझौता कर लिया, इसमें फासीवाद और हिंदू संगठनों की मनमानी कहां से आ गया । ये तो किताब के प्रकाशक की कमजोरी है जो अदालती कार्रवाई के झमेले में नहीं पड़ना चाहता है । विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में
से एक, जिसके पास ना तो पैसे की कमी है और ना ही संसाधनों की, उसने अदालती कार्रवाई
के झंझट से मुक्त होने के लिए समझौता किया । वैसे भी इंटरनेट के इस युग में किसी भी कृति पर पाबंदी संभव ही नहीं है । और इस मामले में तो अगर लेखक चाहे तो वो इसको छापने का अधिकार पेंग्विन से लेकर किसी अन्य प्रकाशक को दे सकता है । वो इसको छापने के लिए स्वतंत्र होगा क्योंकि अदालत ने इस किताब के भारत में प्रकाशन और वितरण पर पाबंदी नहीं लगाई है । इस किताब की लेखिका ने भी इसके
बाद ट्विट कर अपनी नाराजगी जताई । वेंडी डोनिगर के मुताबिक भारतीय कानून इसके लिए जिम्मेदार
है । अब ये तो हर देश के नागरिक को हक है कि वो अपने देश के कानून के मुताबिक काम कर
सके । लेकिन छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों को तो ना तो कानून में आस्था है और ना ही अदालत
में । कई बार ये उचित ही प्रतीत होता है कि प्रगतिशीलता का परचम लहरानेवाले बगैर किसी
बात के बतंगड़ बनाने में जुट जाते हैं । इस समझौते का विरोध करनेवाले कई लोगों ने तो
इस किताब को पढ़ा भी नहीं है और बगैर पढ़े ही उसके बारे में अपनी राय बनाए बैठे हैं
।
ये तो बातें हुआ छद्म प्रगतिवादियों की जो बेवजह का वितंडा
खड़ा कर रहे हैं । अब बात की जाए इस किताब और इसके लेखिका की । भारत के धर्म और उसका
धार्मिक इतिहास वेंडी डोनिगर की रुचि के केंद्र में रहे हैं । वो संस्कृत और इंडियन
स्टडीज में पीएचडी कर चुकी हैं । संस्कृत में लिखे गए कई मशहूर ग्रंथों का उन्होंने अनुवाद किया है । ऋगवेद, मनुस्मृति और कामसूत्र
का अनुवाद वो कर चुकी हैं । इसके अलावा शिवा, द इरोटिक एसेटिक, द ओरिजन ऑफ एविल इन
हिंदू मायथोलॉजी जैसी विचारोत्तेजक कृतियां वेंडी डोनिगर ने लिखी हैं । अपनी इल किताब
द हिंदूज एन ऑलटेरनेटिव हिस्ट्री की भूमिका में लेखिका ने स्वीकार किया है कि इस किताब
को लिखने के पीछे उनका एजेंडा तय है । वो यह बताना चाहती है कि जो समूह पारंपरिक रूप
से विकास के लिए और अन्य सामाजिक स्थितियों के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं हैं दरअसल
उनकिी भूमिका कितनी और कैसी रही है । वेंडी डोनिगर साफ तौर पर कहती हैं कि उनका मानना
है कि दलितों और महिलाओं ने हिंदू धर्म के फैलाव और उत्थान में बड़ा योगदान किया है
। महिलाओं और दलितों के इस योगदान को सदियों से नजरअंदाज किया जाता रहा है । वेंडी
डोनिगर ने अपनी इस किताब में हाशिए के इन लोगों की नजरों से इतिहास को देखने की कोशिश
की है । इस किताब में वेंडी डोनिगर ने हिंदू धर्म की अवधारणाओं और प्रस्थापनाओं को
लेकर पश्चिमी मानकों और कसौटी पर कसा है । उनकी इन प्रस्थापनाओं पर कई विद्वानों में
मतभेद हो सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सदियों कीविकास यात्रा को तय
करते हुए हिंदू धर्म बना है और देश की सर्वोच्च अदालत तो अब भी इसको धर्म के बजाए एक
जीवन दर्शन मानती है । हिंदुओं का धर्म तो सनातन धर्म है । हिंदुत्व की बात करने पर
जो दो चीज प्रमुखता से सामने आती है वो है कर्म और धर्म । ये दोनों अवधारणाएं अलग अलग
कालखंड में हिदुत्व के केंद्र में रही हैं । वेंडी डोनिगर के मुताबिक हिंदू धर्म की
खूबसूरती उसकी जीवंतता और विविधता है जो हर काल में अपने दर्शन पर डिबेट की चुनौती
पेश करता है । हमारे धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक एक आदर्श हिंदू वह है जो लगातार सवाल
खड़े करता है, जवाब को तर्कों की कसौटी पर कसता है और किसी भी चीज, अवधारणा और तर्क
को अंतिम सत्य नहीं मानता है । हिंदू धर्म की इस आधारभूत गुण को आत्मसात करते हुए वेंडी
डोनिगर ने कई व्याख्याएं की हैं और कुछ असुविधाजनक सवाल खड़े किए हैं । इस किताब में
कई ऐसी बातें हैं जो वेंडी डोनिगर ने संस्कृत में पहले से सुलभ हैं और उसको अंग्रेजी
के पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है । जैसे वो अपनी इस किताब में वैदिक काल में प्रचलित
बहुदेववादी अवधारणा को एकेश्वरवाद का ही एक रूप मानती है । अपनी इस अवधारणा को अपने
तर्कों के साथ इस तरह से पेश करती है कि वो कोई नई बात कह रही हों जबकि संस्कृत में
पहले से ही सर्वदेवा नमस्कार केशवम प्रतिगच्छति कहा गया है ।
वेंडी डोनिगर को इस बात की आशंका
थी कि इस किताब को लेकर कुछ हिंदुओं को आपत्ति हो सकती है । उन्होंने इस किताब की भूमिका
में इसके संकेत भी किया है । वेंडी ने लिखा है – कई
हिंदू धार्मिक नेता इस किताब को समुद्र में फेंक देना चाहेंगे क्योंकि उन्हें इसमें
तथ्यों के साथ खिलवाड़, धार्मिक प्रसंगों की गलत व्याख्या आदि आदि दिखाई देंगे । लेखिका
इतने पर ही नहीं रुकती हैं उन्होंने अपनी इसी किताब में ये भी लिखा है कि – हमें हिंदी धर्म मैं मौजूद ज्ञान और दर्शन का उपयोग करना चाहिए
क्योंकि यहां मौजूद साहित्य उच्च कोटि का है और हिंदू धर्म सर्व को समाहित करता चलता
है । इन बातों से लेखिका की मंशा और उसकी आशंका का पता चलता है । दिक्तत वहां होती
है जहां जहां पश्चिमी देशों के विद्वान किसी भी भारतीय मिथकीय प्रसंग की व्याख्या का
आधार अपने समाज की रीतियों को बना लेते हैं । दरअसल होना यह चाहिए कि बारतीय मिथकीय
चरित्रों की व्याख्या के तर्कों का आधार भारतीय समाज में उस वक्त की या वर्तमान की
मान्यताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए । ताकि इस तरह के विवादों से बचा जा सके
। वेंडी डोनिगर की किताब एक बेहतरीन शोध का नतीजा है और वो एक वैकल्पिक इतिहास प्रस्तुत
करती है । इस किताब को वापस लेकर पेंग्विन इंडिया ने गलती की है । भारतीय पाठकों के
साथ छल भी । इस गलती को तत्काल सुधारे जाने की जरूरत है ।
1 comment:
बहुत से लेखक विश्व पुस्तक मेले में भाग नहीं ले सके
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