अगर चाहते हो कि तुम्हें / तुम्हारे मरते ही और नष्ट होते ही भुला
न दिया जाय/ तो या तो पढ़ने लायक कुछ लिख डालो/ या कुछ ऐसा कर डालो जिस पर कुछ लिखा जाय- बैंजामिन फ्रैंकलिन
की इस उक्ति को अपने जीवन का दर्शन मानने वाले खुशवंत सिंह मानते हैं कि -मैंने ऐसा
कुछ नहीं किया जिसे दूसरे लोग लिखने लायक समझें । इसलिए मेरे मरते और नष्ट होते ही
लोग मुझे भुला ना दें इसका मेरे पास सिर्फ एक ही तरीका है कि मैं खुद पढ़ने काबिल चीजों
को लिखूं । यह खुशवंत सिंह की विनम्रता है कि वो अपने कामों को दूसरों के लिखने लायक
नहीं मानते ,लेकिन यह हकीकत से कोसों दूर है । खुशवंत सिंह ने प्रचुर मात्रा में स्तरीय
और मौलिक लेखन किया जो सालों से पाठकों के बीच लोकप्रिय है । अपने जीवन में अट्ठानवें
वसंत देख चुके खुशवंत सिंह की ताजा किताब- खुशवंतनामा, द लेशंस ऑफ माई लाइफ- इस साल
फरवरी में उनके जन्मदिन पर प्रकाशित हुई है । इस किताब में खुशवंत सिंह ने बुढापे में
मौत का डर और सेक्स से मिलने वाले आनंद जैसे दो छोरों को उठाया है । निन्यानवें साल
की उम्र में जाकर अब उनका नियमित लेखन बाधित हुआ है, नहीं तो हर हफ्ते देश के तमाम
अखबारों में भाषा की सरहदों को तोड़ते हुए उनका स्तंभ छपा करता था । पचानवे साल की
उम्र में उन्होंन अपना उपन्यास द सनसेट क्लब लिखा । दशकों से जारी खुशवंत सिंह के उस
कॉलम- विद मैलिस टुवर्ड्स वन एंड ऑल- की विशेषता यह थी उसमें छोटे से छोटे विषय से
लेकर बड़ी घटनाओं तक पर टिप्पणी होती थी और स्तंभ के अंत में संता-बंता के बीच का चुटकुला
होता था । एक अनुमान के मुताबिक खुशवंत सिंह के उन चुटकुलों पर लगभग आधा दर्जन किताब
बाजार में हैं जिसके हर साल नए संस्करण छपते हैं । हास्य की दुनिया में संता-बंता को
खुशवंत सिंह ने एक ऐसे चरित्र के तौर पर स्थापित कर दिया जो अमर है । अंग्रेजी पत्रकारिता
में खुशवंत सिंह का एक लंबा अनुभव रहा है, अपने पत्रकारिता के दौर में खुशवंत सिंह
ने अपना दायरा बहुत विस्तृत कर लिया था । खुशवंत सिंह जिस दौर में पत्रकारिता कर रहे
थे वह दौर भारत के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक पुनर्निमाण का दौर था । ऐसे ऐतिहासिक
और निर्णायक दौर में खुशवंत सिंह जैसी पैनी नजर वाले पत्रकार ने देश की राजनीति को
बेहद करीब से ना केवल देखा बल्कि अपनी लेखनी से उसका विश्लेषण करते हुए उसे देश की
जनता के सामने पहुंचाने का बड़ा काम भी किया । एक पत्रकार के तौर पर खुशवंत सिंह की
यात्रा में कई राजनीतिक हस्तियों के चेहरे से मुखौटा हटा तो कइयों के वय्क्तित्व के
छुपे हुए पहलू उजागर हुए ।
अपनी जिंदगी के निन्यानवें साल में चल रहे भारतीय पत्रकारिता
के इस स्तंभ के बारे में देश-विदेश में कई किवदंतियां भी मौजूद हैं । माना जाता है
कि खुशवंत सिंह सुबह चार बजे उठते हैं और फिर हाथ से ही अपने संत्भ लिखते हैं । उनके
लेखन में महिलाओं और शराब का जिस तरह से जिक्र आता है उससे उनकी छवि एक ऐसे बिंदास
बुजुर्ग की बनती है जिसे हर रोज बेहतरीन स्कॉच चाहिए और जो महिलाओं और सेक्स को लेकर
ऑबसेस्ड है । जिसे खूबसूरत महिलाओं की सोहबत भाती है । एक बार खुशवंत सिंह ने अपने
स्तंभ में मुरादाबाद के एक नेता की पत्नी की खूबसूरती की चर्चा करते हुए लिख दिया था
कि अब तक वो वो जितनी महिलाओं से मिले हैं उनमें से वो सबसे सुंदर हैं । नतीजा यह हुआ
कि कुछ ही दिनों बाद उस महिला ने अपने नेता पति को छोड़ दिया क्योंकि खुशवंत सिंह के
कॉलम के बाद उसे लगने लगा था कि उसकी खूबसूरती उत्तर प्रदेश के कस्बाई शहर में बर्बाद
हो रही है । खुशवंत सिंह ने जिस तरह से अपनी
महिला सहयोगियों और मित्रों के साथ अपने संबंधों का वर्णन अपने लेखन में किया है उससे
इस छवि को और बल मिलता है । लेकिन अपनी आत्मकथा में जिस तरह से उन्होंने अपनी पत्नी
की बीमारी और उनके ना होने की आशंका के एकाकीपन का वर्णन किया है वह उनकी छवि के विपरीत
उनके अंदर के एक संवेदनशील पति की छवि को उभारता है । यह जानते हुए कि उनकी पत्नी का
भी उनके दोस्त से अफेयर रहा है । इस संबंध का खुलासा खुशवंत सिंह के पुत्र राहुल सिंह
ने अपनी किताब में किया है । बावजूद इसके खुशवंत सिंह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं – मुझे इस बात का निश्चय था कि मेरी पत्नी
मेरे बाद वर्षों जीवित रहेगी, अब मुझे ऐसा यकीन नहीं होगा । मुझे अंदर ही अंदर महसूस
होता है कि अगर वह मुझसे पहले चली गई, तो मैं अपने लेखनी को एक किनारे रखकर लेखन से
विदा ले लूंगा । यह एक ऐसे पति का कहना था जिसके लेखन में फ्लर्ट और लंपटपन कई बार
अपने चरम पर होता है ।
खुशवंत सिंह की चर्चा इंदिरा गांधी, संजय गांधी और इलेस्ट्रेटेड
वीकली के बगैर अधूरी है । खुशवंत सिंह की गांधी परिवार से बेहद नजदीकी रिश्ते रहे हैं
। जब संजय गांधी मारुति कारखाना विवाद में उलझे थे तो खुशवंत सिंह ने उनके समर्थऩ में
इलेस्ट्रेटेड वीकली में लेख लिखा था । इमरजेंसी के दौर में भी खुशवंत संजय-मेनका के
साथ रहे । बेहद उत्साह के साथ संजय के परिवार नियोजन कार्यक्रम और गंदी बस्तियों के
सफाई के अभियान का समर्थन किया था । बाद में शाह कमीशन के सामने संजय-मेनका की पेशी
के दौरान उनके साथ रहे । कांग्रेस के अखाबर द नेशनल हेराल्ड का संपादन किया । मेनका
ने सूर्या पत्रिका निकाली तो खुशवंत सिंह वहां सलाहकार बने । अस्सी में इंदिरा गांधी
सत्ता में लौटी और उसी साल खुशवंत सिंह राज्यसभा पहुंचे । लेकिन संजय गांधी की मौत
के बाद मेनका के समर्थन में लिखे उनके लेख ने इंदिरा-राजीव और उनके बीच दरार डाल दी
। उन्होंने मेनका गांधी और इंदिरा गांधी के झगड़े पर भी विस्तार से लिखा । बाद में
अपनी आत्मकथा को लेकर मेनका से कानूनी लड़ाई भी खुशवंत सिंह को लड़नी पड़ी थी । ठीक
इसी तरह इलेस्ट्रेटेड वीकली की कहानी भी किसी किवदंती से कम नहीं है । खुशवंत सिंह
की संपादकी में सिर्फ पांच साल में पत्रिका का सर्कुलेशन पैंतीस हजार से चार लाख दस
हजार तक पहुंच गया । पत्रिका और ज्यादा छापी जा सकती थी लेकिन अखबारों के नफा नुकसान
के गणित में यह तय किया गया था कि इससे ज्यादा छापना घाटे का सौदा होगा । तमाम सफलताओं
के बाद भी खुशवंत सिंह को वहां से बेआबरू होकर निकलना पड़ा था क्योंकि मालिकों ने उन्हें
बर्खास्त कर दिया था । खुशवंत सिंह ने कई बेस्ट सेलर किताबें लिखी जिनमें-
हिस्ट्री ऑफ सिख्स, ट्रेन टू पाकिस्तान, देल्ही, रणजीत सिंह, सेक्स, स्कॉच और स्कॉलरशिप
प्रमुख हैं । खुशवंत सिंह की कुल मिलाकर पचास से ज्यादा कृतियां प्रकाशित हैं । पंजाब
समस्या पर लिखी खुशवंत सिंह की किताब-ट्रेजडी ऑफ पंजाब – उस समस्या और जनता के मनोविज्ञान को
समझने का एक रास्ता देती है । खुशवंत सिंह को 1974 में पद्मभूषण मिला तो दो हजार दस
में साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता से नवाजा गया । 1984 में स्वर्ण मंदिर में सेना
घुसने के विरोध में खुशवंत सिंह ने पद्मभूषण पुरस्कार लौटा दिया था । बाद में उन्हें
दो हजार सात में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया । खुशवंत सिंह के वयक्तित्व के इतने
शेड्स हैं कि उसको पकड़ना बहुत आसान नहीं है । उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी खुशवंत सिंह
की सक्रियता और बीच बीच में उनका अपना स्तंभ लिखना पत्रकारों-लेखकों के लिए प्रेरणा
पुंज की तरह है ।
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