अपनी आत्मकथा बियांड द लाइंस में कुलदीप नैयर ने लाल बहादुर शास्त्री से जुड़े
कई बेहद दिलचस्प प्रसंग लिखे हैं । उनमें से एक सोवियत रूस के दौरे के दौरान बैले नृत्य
देखने का है । शास्त्री जी के सोवियत रूस के दौरे के दौरान उनके सम्मान में वहां की
सरकार ने लेनिनग्राद में बैले नृत्य का आयोजन किया गया था । कुलदीप नैयर, लालबहादुर
शास्त्री और उनकी पत्नी ललिता शास्त्री नृत्य देखने पहुंचे । पूरे समारोह के दौरान
शास्त्री जी बेहद असहज दिखे । नृत्य के बीच में शास्त्री जी से जब कुलदीप नैयर ने इसकी
वजह जाननी चाही तो शास्त्री जी ने संकोच के साथ बताया कि वो इस वजह से असहज हैं कि
नर्तकियों के पांव बहुत उपर तक बगैर कपड़ों के और खुले हुए हैं । शास्त्री जी की दलील
थी कि चूंकि उनकी पत्नी भी साथ बैठ कर इस तरह का नृत्य देख रही हैं लिहाजा वो सहज नहीं
महसूस कर रहे हैं । इलसके अलावा एक और प्रसंग से सामाजिक स्थिति को समझने में मदद मिल
सकती है । पंडित जवाहर लाल नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तो उस वक्त ही नोबोकोब का मशहूर
उपन्यास लोलिता का प्रकाशन हुआ था । तब लालबहादुर शास्त्री ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र
लिखकर लोलिता को भारत में प्रतिबंधित करने की वकालत की थी । शास्त्री के पत्र के जवाब
में नेहरू जी ने एक लंबा पत्र लिखा और लोलिता को देश में प्रतिबंधित करने से मना कर
दिया । नेहरू तो अपने खत में एक और कदम आगे चले गए और सलाह दी कि डी एच लॉरेंस का उपन्यास-
लेडी चैटर्लीज लवर- भी पाठकों के लिए उपलब्ध होना चाहिए । तो ये दो तरह की धारा साफ
तौर पर देखी जा सकती है । कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा में शास्त्री जी को रूढिवादी
करार दिया है । अब इस पूरे प्रसंग से ये समझा जा सकता है कि हमारे देश की राजनीति के
शीर्ष पर बैठनों वालों में से कई लोग स्त्री देह के खुलेपन और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन
को लेकर कितना संकोच करते थे । नेहरू जी हमेशा से अपने समय से आगे थे । उनकी सोच पश्चिमी
देशों से प्रभावित थी इसलिए वो आधुनिक माने गए । भारतीय समाज नेहरू जी के वक्त भी और
उनके बाद भी पारंपरिक समाज ही रहा है । अब भी स्त्री देह के सार्वजनिक प्रदर्शन और
साहित्य में यौनिकता का खुला वर्णन आलोच्य है । हिंदी साहित्य में तो यौनिकता को लेकर
बहस ही छिड़ी हुई है । कामनसूत्र के रचियता वात्सयायन के देश में लोग यौनिकता पर बात
करने में परहेज करने लगे हैं । कालिदास की कृतियों में जिस तरह की सेंसुअलिटी है वो
विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ कृतियों को टक्कर दे सकती है । खैर यह एक अवांतर
प्रसंग और यह विषय विस्तार से विमर्श की मांग करता है । इस पर फिर कभी चर्चा होगी ।
बैले नृत्य में शास्त्री जी की असहजता उस भारतीय मानसिकता को प्रतिबिंबित करता
है जो स्त्री देह के सार्वजनिक प्रदर्शन को अश्लीलता मानता रहा है । हमारे देश में
लंबे समय से चली आ रही यही मानसिकता हमारी फिल्मों में भी प्रदर्शित होती रही है ।
वक्त बदलने के साथ साथ फिल्मों में खुलापन आने लगा । लेकिन सेंसर बोर्ड ने कुछ वर्जनाओं
को कायम रखा । भारत में प्रदर्शित होनेवाली फिल्मों में चुंबन दृष्यों को तो आधुनिकता
के नाम पर मंजूरी मिलनी शुरू हो गई लेकिन कामक्रीडा को दर्शाने की इजाजत अभी भी नहीं
है । महिलाओं के शरीर के उपरी अंगों के खुले प्रदर्शन पर भी अबतक रोक रही है । कम कपड़ों
में या फिर पारदर्शी कपड़ों में कहानी की मांग के नाम पर कुछ निर्देशक छूट लेते रहे
हैं । राजकपूर ने अपनी फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम और राम तेरी गंगा मैली में बड़े गले
के या फिर पारदर्शी कपड़ों में नायिकाओं को दिखाने की छूट सेंसर बोर्ड से हासिल कर
ली थी । उस वक्त भी इसको लेकर काफी बहसें हुई थी । माना गया था कि निर्देशकों ने इस
तरह के दृश्य को दिखाकर दर्शकों में उद्दीपन पैदा करने की कोशिश की है । इसी तरह जब
उन्नीस सौ तेहत्तर में बी के आदर्श ने गुप्त ज्ञान नाम की फिल्म बनाई थी तो सेंसर बोर्ड
के सामने धर्मसंकट खड़ा हो गया था । उस फिल्म में कई दृश्य ऐसे थे जिनको लेकर निर्माताओॆ
की दलील थी कि वो यौनिकता को लेकर जनता को प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से फिल्म में
डाली गई हैं । लेकिन बोर्ड के कई सदस्यों को लग रहा था कि ये जनता की यौन भावनाओं को
भड़का कर पैसा कमाने की एक चाल है । लंबी बहस के बाद गुप्त ज्ञान को बगैर किसी काट
छांट के प्रदर्शन की इजाजत मिल गई । सिनेमाघरों में प्रदर्शन के बाद उस फिल्म के अंतरंग
दृष्यों को लेकर बवाल बढ़ा तो चंद महीनों के भीतर उसको वापस लेना पड़ा था । सेंसर बोर्ड
के सदस्यों ने एक बार फिर से फिल्म गुप्त ज्ञान को देखा और उसपर जमकर कैंची चलाने के
बाद ही प्रदर्शन की इजाजत मिली । इस पूरी प्रक्रिया में लगभग ढाई से तीन साल लग गए
। उन्नीस सौ चौहत्तर में अपने प्रदर्शन के चंद महीनों में वापस ली गई ये फिल्म उन्नीस
सौ सतहत्तर में सिनेमाघरों में पहुंच पाई। भारतीय सिनेमा में चाहे कितना भी खुलापन
आ जाए नग्नता को अभी तक मंजूरी नहीं मिल पाई है चाहे वो आंशिक ही क्यों ना हो । उन्नीस
सौ चौरानवे में फूलन देवी की जिंदगी पर बनी फिल्म बैंडिट क्वीन में भी स्त्री देह की
नग्नता को लॉंग शॉट में ही दिखाने की इजाजत दी गई थी । स्त्री देह की आंशिक नग्नता
को प्रतीकात्मक रूप में अबतक इजाजत मिलती रही है । कहीं उसे धुंधला कर तो कहीं उसे
लांग शॉट में दिखाकर ।
इतने सालों बाद अब लगता
है कि भारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड में खुलेपन की बयार बहने लगी है । दो हजार तेरह में
बनी विदेशी फिल्म - 12 इयर्स अ स्लेव - को भारतीय सिनेमाघरों में प्रदर्शन की इजाजत
मिली तो स्त्री देह की नग्नता को दिखाने की मंजूरी के साथ । ऐतिहासिकता को केंद्र में
रखकर बनाई गई स्टीव मैक्वीन की इस फिल्म को सेंसर बोर्ड ने वयस्क फिल्म का प्रमाण पत्र
दिया है । हमारे यहां वयस्क फिल्मों में भी स्त्री के शरीर के उपरी हिस्से को पूर्ण
रूप से नग्न दिखाने पर एक रोक है । इस फिल्म में इस तरह के दृश्यों की इजाजत के पीछे
तर्क वही है कि गुलामों पर बर्बर अत्याचार के दौरान उनको सार्वजनिक तौर पर नंगा करके
जलील किया जाता था । निर्देशक का तर्क है कि इस तरह के दृश्य फिल्म की मांग है । कहानी
की आवश्कता है । सेंसर बोर्ड पूर्व में इस तरह के तर्कों को खारिज करता रहा है । विदेशी
फिल्मों पर भी उसकी कैंची चलती रही है । फिल्म फायर के दृश्यों से लेकर डर्टी पिक्चर
तक पर अच्छा खासा विवाद हुआ लेकिन सेंसर बोर्ड ने अपनी बात मनवा कर ही दम लिया था ।
लेकिन 12 इयर्स अ स्लेव में गुलामों के अत्याचार के नाम पर इस तरह के दृश्यों की इजाजत
देना हैरान करनेवाला है । यहां सवाल यह उठता है कि क्या हमारा समाज इस तरह के दृश्यों
को देखने और उसको सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए परिपक्व हो चुका है । हमारी सामाजिक
संरचना और समाज को प्रतिबिंबित करनेवाले मानदंड तो यह बताते हैं कि हमारा समाज इतने
खुलेपन के लिए अभी तैयार नहीं है । समाज में शिक्षा की स्थिति, महिलाओं को लेकर सामाजिक
वर्जनाएं और फिर यौनिकता को समझ नहीं पाने से पैदा हुई कुंठा इस बात की ओर इशारा करती
है कि भारत का समाज अभी फिल्मों में स्त्री देह के आंशिक रूप से नग्न प्रदर्शन के लिए
तैयार नहीं है । कई समाज विज्ञानियों की तो दलील है कि फिल्मों में इस तरह के दृश्यों
और अशिक्षा के मेल से जो मानसिकता बनती है वो स्त्रियों के खिलाफ अपराध को बढ़ावा देती
है । कई ऐसे मामले सामने भी आए हैं जब स्त्रियों के खिलाफ होनेवाले अपराध के पीछे इस
तरह की वजहें सामने आई हैं । सेंसर बोर्ड को इस तरह के खुलेपन और नग्नता के सार्वजनिक
प्रदर्शन के पहले समाजिक संरचना को भी ध्यान में रखना चाहिए । फिल्मों में इजाजत के
बाद अब तो टेलीविजन पर भी देर रात एक खास वक्त और टाइम बैंड पर वयस्क फिल्मों और वयस्क
कार्यक्रमों को दिखाने के लिए मुहिम शुरू हो गई है । हमारा मानना है कि इस तरह के फैसले
के पहले एक राष्ट्रव्यापी बहस की जानी चाहिए ताकि पूरे देश की सहमति हासिल हो सके ।
चंद लोगों की कमेटी को कमरों में बैठकर इस तरह सार्वजनिक रूप से नग्नता के प्रदर्शन
की इजाजत नहीं दी जा सकती है ।
2 comments:
sir maine apke sare post pade aisa laga ki bachpan se jis pida se mai dukhi raha aur talash karta raha ek aise DR ki jo hamari pida ko mahsoos kar sake aur use shabdo me kah sake. lekin wo talash aaj achanak apke post pad kar puri hui.A.kejriwal k nam khat b charitarth ko ukerne wala hai .sir mujhe nahi malum ki aap ko mere ye comment kaise lagenge per ye sach hai ki mai apne ander ki tamam kuntha jo aaj k adhunik samaj ko dekhker ghar kar gayi hai apke samne udel dena chahta hu.sir mai apke vicharo se itna prawahit hua hu ki shabdo me batana mere liye sambhaw nahi ek vichar ap se share kar raha hu [ adhunikta aur adhikar me farq utana hi hai jitna atmaviswas aur ahankar me hai ] keep me in touch [your pleader]
sabse behtareen line
samaj ko kya chahiye uska faisla chand log kisi kamre me baith ker na kare.
sir maine apke sabhi post read kiye aur yaqeen mane aisa laga ki bachapan se jis pida me grasit raha aur aise dr. ki talash karta raha jo hamari pida ko mahsoos kar sake aur use apne shabdo me bata sake aaj achanak apka post pad ker wo talash puri hui.A kejriwal k nam khat b bahut gahri chinta ko ujager karta hai .sir mai apna ek vichar aap se share karta hu ager aap sahmat ho to reply jarur kijiye mere email id per
adhunikta aur adhikar me thik utana hi farq hai jitna atmaviswas aur ahankar me .
adhunikta ki nakal me log wo adhikar mangne lage jo kisi samaj k patan ka karan ban sakta hai
[as homosex ]
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