सलमान खान की एक फिल्म का संवाद है – तुम करो तो रासलीला,
हम करें तो कैरेक्टर ढीला । रायपुर साहित्य महोत्सव पर हिंदी के मशहूर वामपंथी आलोचक
वीरेन्द्र यादव के मनोरंंजक लेख को पढ़ते हुए यह फिल्मी संवाद शिद्दत से याद आया। आलोचक
मित्र वीरेन्द्र यादव का यह लेख मनोरंजक, पर पुराने तर्कों से भरा हुआ है । जैसे वरिष्ठ कवि नरेश मेहता की रमन सिंह
के साथ की तस्वीर को पढ़ते हुए उनको उनकी कविता ‘गिरना’ की पंक्तियां याद आती हैं, वैसे ही मुझे भी अखिलेश यादव से साहित्य भूषण सम्मान से सम्मानित होते आलोचक की
तस्वीर देखकर कुछ स्मरण होता है । वीरेन्द्र यादव के लेख का शीर्षक है- पार्टनर, तुम्हारी
पॉलिटिक्स क्या है । मैं सिर्फ इसको थोड़ा हेरफेर के साथ कहना चाहता हूं- पार्टनर,
अपनी पॉलिटिक्स तो बताओ । दरअसल वीरेन्द्र यादव का रायपुर साहित्य महोत्सव पर लिखा
गया यह लेख वामपंथियों के बौद्धिक पाखंड का शिखर है । इस लेख में वीरेन्द्र यादव तमाम
घिसे पिटे तर्कों के साथ उपस्थित हैं । भगवा, हिंदुत्ववादी एजेंडा, जल जंगल जमीन की
कारपोरेट लूट और माओवादियों के हिंसक आंदोलन के समर्थन की परोक्ष कोशिश । वीरेन्द्र
यादव को आदिवासी महिलाओं की मौतों ( हलांकि यह गलत प्रयोग है, मौत का बहुवचन नहीं होता
) की चीख तो सुनाई देती है लेकिन सीआरपीएफ के जवानों के परिवारवालों की चीत्कार नहीं
सुनाई देती है । विचारधारा के रुदन में वच्चों का क्रन्दन दब जाता है । सिर्फ मौतों
का ही नहीं वीरेन्द्र यादव तो पारिश्रमिक और मानदेय का फर्क भी मालूम नहीं प्रतीत होता
है । संभव है कि रायपुर साहित्य महोत्सव में शामिल लोगों को डिफेम करने के लिए पारिश्रमिक
शब्द का इस्तेमाल किया गया हो । यहां यह बताते चलें कि पिछले दो साल से बिहार सरकार
का संस्कृति विभाग दो दिनों का भारतीय कविता समारोह आयोजित कर रहा है । इस कविता समारोह में हिंदी समेत गुजराती, मलयालम,
मराठी, बांग्ला, तेलुगू, ओडिया, काक बरोत, मणिपुरी कई भारतीय भाषाओं के कवि शिरकत करते
हैं । बिहार सरकार वहां भी कवियों को मानदेय के तौर पर पच्चीस हजार रुपए देती है ।
तब तो कोई हो हल्ला नहीं मचता है । तो कुछ तो पॉलिटिक्स होगी ।
अपने लेख में श्री यादव यह सवाल उठाते हैं कि क्या उन लेखकों को इस आयोजन में शामिल
होना चाहिए था जो नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और भाजपा के हिंदुत्ववादी एजेंडे के मुखर
विरोधी रहे हैं । उनके इस प्रश्न का प्रतिप्रश्न यह है कि क्या इस महोत्सव में शामिल
होने से लेखकों का मुखर विरोध कुंद हो गया है । क्या छत्तीसगढ़ महोत्सव में जाकर हिंदी
लेखकों ने अपने विरोध को दरकिनार कर अमित शाह, नरेन्द्र मोदी और भाजपा की विरुदावलियां
गाईं ? बिकने के तर्क
से तो वो खुद भी सहमत नहीं हैं । वो विरोध के दृढता की अपेक्षा कर रहे हैं । मार्क्सवाद
की शवसाधना कर रहे लोगों में एक बड़ा दोष सुनी सुनाई बातों पर यकीन कर उसके आधार पर
मत बनाने का है । जिस विरोध की दृढता की वो अपेक्षा कर रहे हैं वह वहां कई वक्ताओं
के वक्तव्यों में पुरजोर तरीके से उठा वो चाहें तो अशोक वाजपेयी या फिर रमणिका गुप्त
के भाषणों के बारे में दरियाफ्त कर लेते । वीरेन्द्र यादव को यह तक नहीं मालूम कि
- प्रतिरोध का साहित्य,सत्र में हिंदी की वरिष्ठ लेखिका रमणिका गुप्ता ने आदिवासियों
के मुद्दे पर छत्तीसगढ़ सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक को कठघरे में खड़ा कर दिया था।
दरअसल मार्क्सवाद की कैद से अस्पृश्ता और तानाशाही के सिद्धांतों का प्रतिपादन
करनेवाले वीरेन्द्र यादव जैसे बुद्धिजीवियों के तर्कों को पढ़ते हुए मुझे मैक्सिम गोर्की
याद आते हैं जब वो कहते हैं – हमें यह निश्चित रूप से
समझ लेना चाहिए कि स्वतंत्रता और न्याय का सबसे बड़ा शत्रु हमारे भीतर ही है, वह हमारी
मूढ़ता, हमारी क्रूरता, हमारी निम्न, अराजक भावनाओं की उच्छृंखलता है ।‘ मार्क्स के इन अनुयायियों ने तानाशाही
और फासिज्म की खिलाफत का तर्क लेकर सालों तक भारत की जनता को भ्रम में रखा है । फासिज्म
का विरोध का नारा देनेवाले ये लोग भूल जाते हैं कि जब हिटलर की पराजय और फासिज्म के
खात्मे का उल्लास था उसी वक्त सोल्झेनित्सिन को देश विरोधी गतिविधियों की आड़ में दस
साल के लिए यातना शिविर में भेज दिया गया था । उस विचारधारा के अंधानुकरण करनेवालों
के मुख से फासिज्म विरोध का नारा सालों तक भारत की जनता को लुभाता रहा लेकिन वक्त आने
पर यहां भी ये फासिज्म के साथ खड़े दिखे । उन्नीस सौ पचहत्तर में जब इंदिरा गांधी ने
इमरजेंसी लगाया तो कम्युनिस्टों ने उसका साथ दिया । जिन्हें इमरजेंसी में फासिज्म नहीं
दिखा वो हिंदुत्ववादी ताकतों को फासिस्ट कह रहे हैं । प्रगतिशीलता के नाम हिंदी साहित्य
को लंबे वक्त तक अपनी गिरफ्त में रखनेवालों ने हिंदी में सरकारी आयोजनों में शिरकत
करनेवालों या नेताओं के साथ मंच साक्षा करनेवालों को हेय दृष्टि से देखा । हिंदी में
इस तरह का वातावरण तैयार किया गया कि सरकारी साहित्यक आयोजन अछूत हो गए । वह दौर था
जब देश में विचारधारा वाले साहित्य और साहित्यकार की तूती बोलती थी । उस दौर ने हिंदी
साहित्य का जितना भला किया उससे ज्यादा उसका नुकसान किया । इमरजेंसी के समर्थन के एवज
में इंदिरा गांधी ने साहित्य संस्कृति को वामपंथी विचारधारा वाले लेखकों के हवाले कर
दिया । उसके बाद वामपंथी विचारकों ने इस तरह का ताना-बाना बुना कि सामान्य लेखकों को
सरकार से दूर कर दिया । सरकार किनके पैसे पर चलती है । वह आम जनता का पैसा होता है
। हमारे अपने पैसे पर आयोजित होनेवाले समारोहों से लेखकों को काट देने का एक षडयंत्र
रचा गया । उसके तहत यह बात फैलाई गई कि सरकारी कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले कवि-लेखक
दरबारी हैं । जबकि उक्त विचारधाऱा के पोषक शीर्ष लेखक सरकारों से फायदा लेते रहे ।
तमाम कमेटियों में नामित होकर क्यूबा से लेकर आयोबा तक की यात्रा के मजे लूटते रहे
। अब वक्त आ गया है कि सत्तर के दशक के बाद देश में जिस तरह से साहित्य संस्कृति को
लेकर खेल खेला गया उसपर गंभीरता से विचार हो कि उस खेल से साहित्य का और प्रगतिशील
साहित्यकारों का कितना फायदा और कितना नुकसान हुआ । प्रगतिशीलता का मुखौटा लगाकर अस्पृश्यता
और तानाशाही का जो खेल खेला गया, उसकी पहचान आवश्यक है । किसी को भी संघी कहकर उसकी
विचारधारा पर बात नहीं करना साहित्यक अस्पृश्यता ही तो है । अगर किसी विचारधारा से
विरोध हो तो उसको तर्कों के आधार पर ध्वस्त करना साहित्यक शिष्टाचार होना चाहिए । मंच
साझा नहीं करना और उनसे वाद विवाद संवाद रोक देना तो अस्पृश्यता ही है । वीरेन्द्र
यादव मृतप्राय वामपंथी लेखक संगठनों से भी प्रतिरोध की उम्मीद जता रहे हैं । जो लेखक
संगठन अपने लेखकों की हितों की आवाज बुलंद नहीं कर पा रहा है उससे किसी मुद्दे पर प्रतिरोध
की अपेक्षा करना हास्यास्पद ही है । रायपुरवाद के एक नए वाद के रूप में आसन्न महिमामंडन
से वीरेन्द्र यादव चिंतित दिखाई देते हैं लेकिन क्या उन्हें कभी मार्क्सवादी विमर्श
की बजाए ईमानदार विमर्श की चिंता हुई । शायद नहीं । अगर साहित्य में ईमानदार विमर्श
होता तो इस तरह के लेख सामने नहीं आते, बल्कि रायपुर में उठे मुद्दों पर बात होती।
हिंदी के मार्क्सवादी कवि ने तो रायपुर विरोध में तमाम मर्यादा तोड़ डाली और गाली गलौच
पर उतर आए । उनके फिसलन और विचलन पर एक मित्र ने बेहद सटीक टिप्पणी की थी कि पता कर
लो उनके गाली गलौच का वक्त क्या है । अगर वो रसरंजन के बाद का वक्त है तो बाइबिल की
उक्ति की तरह कहना- हे यीशु ! उन्हें माफ कर दो उन्हें
नहीं पता वो क्या कह रहे हैं ।
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