स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की सोनिया गांधी की फिक्शनलाइज्ड जीवनी कई सालों के अघोषित
प्रतिबंध के बाद अब प्रकाशित हुई है । द रेड साड़ी के नाम की इस किताब के प्रकाशन को
लेकर कांग्रेस ने खूब हो हल्ला मचाया था । लेखक जेवियर मोरो को कानूनी धमकियां दी गई
थी । कांग्रेस उस वक्त सत्ता में थी लिहाजा सोनिया गांधी की इस किताब को हमारे यहां
प्रकाशित नहीं होने दिया गया । लगभग चार साल बाद अब स्थितियां बदल गई हैं । कांग्रेस
सत्ता से बाहर है और जेवियर
मोरो
की
किताब
द
रेड
साड़ी
को
लेकर
बवाल मचानेवाले कांग्रेस के नेता भी कमजोर हुए हैं । सवाल यह नहीं
है कि कांग्रेस के नेता क्यों विरोध कर रहे थे । सवाल यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी
के नाम पर हो हल्ला मचानेवाली ब्रिगेड उस वक्त कहां थी । तमिल लेखक मुरुगन की किताब
पर विरोध करनेवाले, वेंडी डोनिगर की किताब के प्रकाशक का उसको वापस लेने का फैसला करने
पर छाती कूटनेवाले लोग उस वक्त कहां थे जब जेवियर मोरी की किताब को डरा धमका कर प्रकाशित
होने से रोका गया था । सत्ता की हनक में तब भी अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगी थी
। लेकिन विरोध का स्वर उतना तीव्र नहीं था जितने की अपेक्षा की जाती है । अभिव्यक्ति
की आजादी की पक्षपातपूर्ण विरोध की यह घटना मिसाल है । अभी हाल में लेखक जेवियर मोरे
ने माना है कि कांग्रेस पार्टी ने उसके किताब के खिलाफ एक अभियान चलाकर उसका प्रकाशन
रोका गया था । उनके मुताबिक उस वक्त तो वो छह महीने तक अपने ईमेल अकाऊंट को खोलने से
भी घबराते थे कि कहीं कोई कानूनी नोटिस तो नहीं आ रहा है । दो हजार दस में जेवियर मोरो इसको अंग्रेजी में प्रकाशित कर भारतीय बाजार के अलावा अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के बाजार में सोनिया गांधी के नाम को भुनाना चाहते थे । जेवियर मोरो की यह किताब अक्तूबर दो हजार आठ में स्पेनिश में छपी और बाद में इसका अनुवाद इटैलियन, फ्रैंच और डच में किया गया । भारत में उठे विवाद के पहले के
अनुमान के मुताबिक इसकी तीन लाख प्रतिया बिक चुकी थी ।
दरअसल स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की ये किताब कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित है । लेखक मोरो का दावा है कि यह पूरी किताब सोनिया के बचपन से लेकर उनकी राजीव गांधी से मुलाकात और शादी से लेकर सास इंदिरा गांधी के साथ बिताए दिनों के अलावा राजीव गांधी की हत्या का बाद सोनिया की मानसिकता का चित्रण करती है । दरअसल मोरो की इस किताब से इस बात के संकेत मिलते हैं कि सोनिया गांधी अपने पति की हत्या के बाद भारत छोड़कर इटली जाना चाहती थी । मोरो की किताब में इस तरह के संकेत हैं कि सोनिया गांधी के दिमाग में यह बात आई थी कि उस देश में क्यों रहना जो अपने ही बच्चों को खा जाता है । इस किताब में इस
बात
की
ओर
भी
पर्याप्त इशारा किया गया है कि गांधी परिवार में राजीव की मौत के बाद इटली वापस लौट जाने पर चर्चा होती थी । हलांकि कई प्रसंगों में साफ है कि लेखक ने सोनिया गांधी की जिंदगी के यथार्थवादी पहलुओं में अपनी कल्पना का तड़का लगाया है । जैसे एक जगह इस बात का जिक्र है कि रात के तीन बजे सोनिया ने राजीव को कहा कि देश में इमरजेंसी लगाने के ड्राफ्ट में उन्होंने इंदिरा गांधी की मदद की थी । मोरो लिखते हैं- सोनिया के पैदा होने पर लुजियाना के घरों में परंपरा के अनुसार गुलाबी रिबन बांधे गए । चर्च ने सोनिया को नाम दिया एडविजे एनटोनियो अलबिना मैनो । लेकिन उनके पिता स्टीफैनो ने उन्हें सोनिया नाम दिया । रूसी नाम रखकर वो उन रूसी परिवारों का शुक्रिया अदा करना चाहते थे जिन्होंने
द्वितीय
विश्वयुद्ध के दौरान उनकी जान बचाई थी । सोनिया के पिता स्टीफैनो,
मुसोलिनी की सेना में थे जो रूसी सेना से पराजित हो गई थी । सोनिया जियोवेनो के कॉन्वेंट स्कूल में गई लेकिन उतनी ही पढाई की जितनी की जरूरत थी । यानि वो अच्छी विद्यार्थी
नहीं
थी
लेकिन
पढ़ाई
में
कमजोर
होने
के
बावजूद
वो
हंसमुख
और
दूसरों
की
मदद
को
तत्पर
रहती
थी
। कफ और अस्थमा की शिकायत की वजह से वो बोर्डिंग स्कूल में अकेले सोती थी । आगे जाकर तूरीन में पढ़ाई के दौरान सोनिया के मन में एयर होस्टेस बनने का अरमान भी जगा था ले किन वो सपना जल्द ही बदल गया । उसके बाद सोनिया विदेशी भाषा की शिक्षक या फिर संयुक्त राष्ट्र में अनुवादक बनने की ख्वाहिश पालने लगी ।
लेखक मोरो
का
दावा
है
कि
उसकी
किताब
लंबे
समय तक किए गए शोध पर आधारित है । जेवियर मोरो का दावा है कि तथ्यों
और
घटनाओं
की
सत्यता
को
परखने
के
लिए
उन्होंने सोनिया के होम टाउन लुजियाना में काफी वक्त बिताया । उसका तो यह भी दावा है कि उसवे किताब छपने के पहले उसकी पांडुलिपि
सोनिया
गांधी
की
बहन
नाडिया
को
भी
दिखाई
थी
क्योंकि
वो
स्पैनिश
जानती
थी
। कांग्रेस नेताओं की आपत्तियों
और
लेखक
को
कानूनी
नोटिस
के
हो
हल्ले
के
बीच
जेवियर
मोरो
की
किताब
सोनिया
और
उसके
इर्द
गिर्द
के
विवादों
और
घटनाओं
में
सिमटकर
रह
गई।
जबकि
इस
किताब
में
इस वक्त केंद्र सरकार में मंत्री और सोनिया की देवरानी मेनका गांधी के बारे में ज्यादा विस्फोटक प्रसंग छपे हैं, जो घटनाओं के चश्मदीदों
के
बयानों
पर
आधारित
होने
की
वजह
से
ज्यादा
प्रामाणिक प्रतीत होते हैं । बेटे संजय गांधी की जिद की वजह से तेइस सितंबर उन्नीस सौ चौहत्तर को गांधी के पारिवारिक
मित्र
मोहम्मद
युनुस
के
घर
पर
संजय
और
मेनका
परिणय
सूत्र
में
बंध
गए
। यहां पर जेवियर मोरो ने इस बात के संकेत दिए हैं कि मेनका को गांधी परिवनार में एडजस्ट करने में सोनिया से ज्यादा दिक्कत हुई ।
एक और बेहद ही दिलचस्प वाकया इस किताब में है । एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह जब गांधी परिवार से मिलने उनके घर गए तो वहां कुत्तों के बीच जबरदस्त झगड़ा चल रहा था । किताब के मुताबिक मेनका के आइरिश वुल्फहाउंड
और
सोनिया
के
शांत
से
अफगानी
कुत्ते
के
बीच
लड़ाई
चल
रही
थी
। सोनिया दोनों को अलग करना चाह रही थी लेकिन मेनका इस झगड़े से मजा ले रही थी क्योंकि उसे मालूम था कि उसका कुत्ता सोनिया के कुत्ते से मजबूत था । लेखक ने इंदिरा गांधी की सचिव उषा के हवाले से लिखा है कि मेनका बेहद ही बुद्धिमती
लेकिन
महात्वाकांक्षी थी । उसे हर वक्त यह लगता था कि जल्द ही संजय गांधी भारत के प्रधानमंत्री
बनेंगे, और वो गाहे बगाहे इस बात तो सार्वजनिक रूप से कहती भी थी । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । सतहत्तर में कांग्रेस की कारी हार के बाद जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई तो इंदिरा गांधी मेनका को लेकर बेहद चिंतित रहने लगी । उन्होंने अपनी दोस्त पुपुल जयकर से अपनी चिंता जताते हुए कहा भी था कि मेनका की मां की महात्वाकांक्षा
उसको
संजय
की
जगह
लेने
के
लिए
प्रेरित
करेगी
। इस सोच को बल मिला खुशवंत सिंह के एक लेख से जिसमें उन्होंने खुलेआम इस बात की वकालत की थी कि संजय की मौत के उनकी राजनीतिक वारिस मेनका हैं । खुशवंत सिंह ने यह भी लिखा कि मेनका संजय गांधी की तरह बहादुर हैं और दुर्गा की अवतार हैं । जाहिर है खुशवंत सिंह के इस लेख से इंदिरा गांधी आहत हुई क्योंकि बांग्लादेश
युद्द
में
विजय
के
बाद
इंदिरा
गांधी
की
तुलना
दुर्गा
से
होने
लगी
थी
। खुशवंत की इस तुलना से इंदिरा गांधी के मन में इस बात का संदेह पैदा हो गया कि मेनका की रजामंदी के बाद ही खुशवंत ने वो लेख लिखा । मेनका गांधी को घर वापस निकालने के इंदिका गांधी के फैसले पर भी यह किताब प्रकाश डालती हैं । घर से बाहर निकालने के वक्त हुए हाई वोल्टेज ड्रामा पर भी मोरो ने विस्तार से लिखा है ।
ये सारी बातें लिखते हुए मोरो ने किताब में एक डिस्क्लेमर
भी
लगाया
है
- बातचीत, संवाद और स्थितियां लेखक के व्याख्या पर आधारित है और यह जरूरी नहीं है कि वो प्रामाणिक भी हो । इस पूरे विवाद पर जैसे अभिव्यक्ति की आजादी के झंडाबरदारों पर सवाल खड़े होते हैं
उसी तरह लेखक की मंशा पर भी सवालिया निशान लगता है । सवाल वही कि क्या लेखकीय आजादी के नाम पर कुछ भी काल्पनिक लिखने की इजाजत किसी लेखक को दी जा सकती है । इन्हीं सवालों के बीच अब सोनिया की यह जीवनी भारतीय पाठकों के लिए उपलब्ध है । राजनीति और राजनेताओं
की किताबों की खासी बिक्री के बीच इस बात पर सबकी नजर रहेगी कि सोनिया गांधी की इस
काल्पनिक जीवनी को हमारे देश का पाठक कैसे लेता है ।
1 comment:
श्रीमती सोनिया गांधी की ड्रामेटिक जीवनी 'द रेड साड़ी' पर आपका यह लेख बेहद रोचक तथ्यों को उजागर करता है। आज कल सनसनी का ज़माना है, सनसनी के नाम पर कुछ भी परोसना उचित तो नहीं लेकिन लोगों को ड्रामा हमेशा से पसंद आया है...इस बार भी पसंद आएगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला दे कर सनसनी पैदा करना और पैसा उगाहना...कोई नयी बात नहीं। किताबों के बारे में आपके लेख बहुत ही संतुलित होते हैं। पढ़ कर अच्छा लगा।
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