चंद दिनों पहले मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस संजय किशन
कौल ने एक बेहद अहम टिप्पणी की । एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस कौल ने
कहा कि संवैधानिक संस्थाओं यानि अदालतों के अलावा किसी और संस्था के पास यह अधिकार
नहीं है कि वो ये फैसला दे कि क्या सही है और क्या गलत है । दरअसल जस्टिस कौल लेखक
मुरुगन के उपन्यास पर इलाके की पीस कमेटी के फैसले पर दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई
कर रहे थे । इस याचिका पर सुनवाई करते हुए उन्होंने एक और तल्ख टिप्पणी की कि प्रशासन
को भी यह अधिकार नहीं है कि वो किसी लेखक को यह बताए कि वो क्या लिखे या उसका लिखा
हुआ सही है या गलत । तमिलनाडू के लेखक पेरुमल
मुरुगन के उपन्यास मथुर बागान जिलसका अंग्रेजी अनुवाद वन पार्ट वूमेन के नाम से छपा
था । उस उपन्यास को लेकर कई दक्षिणपंथी संगठनों ने खासा बवाल मचाया । विरोध प्रदर्शन
हुए । तमिलनाडू के नामक्कल जिले में जब विरोध काफी बढ़ गया और हिंसा की आशंका बढ़ने
लगी तो जिला प्रशासन ने एक शांति समिति बनाई और उसकी बैठक में यह फैसला लिया गया कि
मुरुगन बाजार से इस उपन्यास की सभी प्रतियां वापस ले लेंगे । उनसे एक लिखित अंडरटेकिंग
लिया गया जिसमें बिना शर्त माफी की भी बात थी । इस अंडरटेकिंग में यह बात भी लिखवाई
गई कि मरुगन अपने उपन्यास से सभी विवादित अंश हटाएंगे और भविष्य में कोई भी विवादास्पद
चीज नहीं लिखेंगे । यह एक बेहद आपत्तिजनक कदम था जो कि नामक्कल जिला प्रशासन ने उठाया
। विरोध प्रदर्शन रोकने की अपनी नाकामी को छुपाने के लिए जिला प्रशासन ने लेखक को पहले
तो दबाव में लिया और फिर उनसे भविष्य में इस तरह के लेखन नहीं करने का लिखित में आश्वासन
लिया । यह जिला प्रशासन का एक ऐसा कदम था जो कि लेखकीय अभिव्यक्ति पर हमला ही नहीं
है बल्कि एक तरह की सेंसरशिप है । जिला प्रशासन की अगुवाई में हुई इस शांति् समिति
के फैसले के खिलाफ कुछ संगठन अदालत पहुंचे हैं । अदालत ने कहा है कि यह मामला एक व्यक्ति
विशेष का नहीं है बल्कि यह संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मामला
है । अदालत ने सुनवाई के दौरान कहा कि जिस किसी को भी किसी किताब पर या उसके अंश पर
आपत्ति हो वह अदालत की शरण में जाए क्योंकि अदालत के अलावा कोई भी व्यक्ति या संस्था
यह फैसला नहीं कर सकती है कि क्या सही है और क्या गलत है
दरअसल इस पूरे मामले को जिस तरह से जिला प्रशासन ने निबटाया
है वह घोर आपत्तिजनक है । लेखक मुरुगन को जिलाधिकारी के कार्यालय में भारी सुरक्षाबल
के बीच ले जाकर बार बार बयान बदलने को मजबूर किया गया वह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता
पर हमला है । जिला प्रशासन ने संविधान को दरकिनार कर लेखक पर दबाव बनाया और उनके वकील
को यहां तक कह डाला कि यह कानून व्यवस्था का मामला है और इसको उसी तरह से देखा जाएगा
। दरअसल जिला प्रशासन के इस रवैये पर पूरे देश के लेखक समुदाय को खड़ा होना चाहिए और
इस प्रवृत्ति का पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए । जिस तरह से एक लेखक को दबाव डालकर
उसको लिखने से रोका जा रहा है उसपर कलम के तमाम सिपाहियों को विरोध जताना चाहिए । लेखक
समुदाय से यह अपेक्षा की जाती है कि वो साथी लेखकों के पक्ष में खड़ा हो और वृहत्तर
सवालों पर अपनी आस्था और राजनीतिक झुकाव को दरकिनार कर विरोध में खड़ा हो जाए । लेखक
चाहे किसी वाद या विचारधारा का हो अगर उसके पास लेखकीय स्वतंत्रता ही नहीं बचेगी तो
फिर वाद और विचारधारा की माला गले में लटकाए घूमते रहने से कोई फायदा नहीं है ।
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