सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी पर अपने ताजा ऐतिहासिक
फैसले में कहा है कि किसी भी व्यक्ति को इस मसले पर पूर्ण आजादी नहीं है । अदालत के
मुताबिक संविधान ने इस आजादी के साथ कुछ सीमाएं भी निर्धारित की हैं । अदालत के मुताबिक
धारा 19(1) और 19(2) को एक साथ मिलाकर देखने पर स्थिति साफ होती है । सुप्रीम कोर्ट
ने अपने इस फैसले में कहा कि कलात्मक अजादी के नाम पर लेखकों और कलाकारों को भी अपने
माहापुरुषों के बारे में अभद्र और अश्लील टिप्पणी की छूट नहीं मिल सकती । लेखकों को
भी शालीनता के समसामयिक सामुदायिक मापदंडों की सीमा लांघने की अनुमति नहीं दी जा सकती
। दरअसल ये पूरा मामला 1994 में महात्मा गांधी पर छपी एक कविता को लेकर उठे विवाद पर
दिया गया है । सुप्रीम कोर्ट के महात्मा गांधी पर लिखी एक कविता के ताजा फैसले के संदर्भ
में मराठी के मशहूर लेखक श्रीपाद जोशी की आत्मकथा का 1939 का एक प्रसंग याद आ रहा है
। एक अक्तूबर 1939 को महात्मा गांधी ग्रैंड ट्रंक एक्सप्रेस से वर्धा से दिल्ली जा
रहे थे । उनके डिब्बे में अचानक एक युवक पहुंचता है जिसके हाथ में गोविंद दास कौंसुल की अंग्रेजी में
लिखी एक किताब – महात्मा गांधी, द ग्रेट रोग ( Rogue) ऑफ इंडिया थी । वो गांधी जी से अपने गुरू कौंसुल की किताब पर प्रतिक्रिया लेना
चाहता था । गांधी के साथ बैठे महादेव देसाई ने जब किताब का शीर्ष देखा तो गुस्सा हो
गए और उसे भगाने लगे । शोरगुल होता देख बापू ने उस युवक को अपने पा बुलाया और उसके
हाथ से वो किताब ले ली और पूथा कि आप क्या चाहते हैं । युवक ने गांधी जी को बताया कि
वो इस किताब पर उनका अभिप्राय लेना चाहता है । गांधी जी ने कुछ देर तक उस किताब को
उलटा पुलटा और फिर उसपर लिखा- ‘मैंने इस किताब को पांच
मिनट उलट पुलटा है, अभी इस किताब पर निश्चित रूप से पर कुछ पाना संभव नहीं है । लेकिन
आपको अपनी बात अपने तरीके से कहने का पूरा हक है ।‘ उसके बाद उन्होंने किताब पर दस्तखत किया
और उसको वापस कर दिया। ठीक इसी तरह से जब 1927 में अमेरिकन लेखक कैथरीन मेयो ने ‘मदर इंडिया’ लिखी और उसमें भारत के बारे में बेहद अपमानजनक टिप्पणी
की तब भी गांधी जी ने उस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग का समर्थन नहीं किया था ।
गांधी जी ने उस किताब की विस्तृत समीक्षा लिखकर मेयो के तर्कों को खारिज किया था और
अपना विरोध जताया था । उसी वर्ष अंग्रेजों ने भारतीय दंड संहिता में सेक्शन 295 ए जोड़ा
तो उसको अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात के तौर पर देखा गया था और उसका जमकर विरोध
हुआ था । लाला लाजपत राय ने पुरजोर तरीके से इसका विरोध करते हुए कहा था कि यह धारा
आगे चलकर अकादमिक कार्यों में बाधा बनेगी और सरकारें इसका दुरुपयोग कर सकती हैं ।
दरअसल अगर हम देखें तो
लाला लाजपत राय की बातें आगे चलकर सही साबित हुईं । संविधान के पहले संशोधन, जिसमें
अभिव्यक्ति की आजादी के दुरुपयोग की बात जोड़ी गई, के वक्त उसको लेकर जोरदार बहस हुई
थी । तमाम बुद्धिजीवियों के विरोध के बावजूद उस वक्त वो संशोधन पास हो गया था । अब
हालात यह हो गई है कि संविधान के पहले संशोधन और 295 ए मिलकर अभिव्यक्ति की आजादी की
राह में एक बड़ी बाधा बन गई है । इन दोनों को मिलाकर किसी भी किताब या रचना पर पाबंदी
लगाने का चलन ही चल पड़ा है । हमारे यहां लोगों की भावनाएं इस कदर आहत होने लगीं कि
हम रिपब्लिग ऑफ हर्ट सेंटिमेंट की तरफ कदम बढ़ाते दिखने लगे । अब सुप्रीम कोर्ट ने
जिस तरह से देश के महापुरुषों को लेकर टिप्पणी करने को गलत ठहराया है उससे और बड़ी
समस्या खड़ी होनेवाली है । एक पूरा वर्ग अब इस फैसले की आड़ में मिथकीय चरित्रों या
देवी देवताओं पर टिप्पणी, उनके चरित्रों के काल्पनिक विश्लेषण की लेखकीय आजादी पर हमलावर
हो सकता है । संविधान सभा की बहस के दौरान बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि उदारतावादी
गणतंत्र बनाने के सपने के अपने खतरे हैं । उन्होंने उस वक्त कहा था कि अगर हम इस तरह
का गणतंत्र चाहते हैं तो सामाजिक पूर्वग्रहों के उपर हमें संवैधानिक मूल्यों को तरजीह
देनी होगी । सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले के बाद एक बार फिर से सवाल खड़ा हो गया
है कि क्या संविधान की व्याख्या करते वक्त सामाजिक मानदंडों का ध्यान रखना जरूरी है
।
1 comment:
ज्ञानवर्धक नई जानकारी, खासकर मदर इंडिया किताब के संबंध में.
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