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Sunday, May 3, 2015

कट्टरता को सींचती प्रगतिशीलता

इस्लाम धर्म को बहुत वैज्ञानिक धर्म माना जाता रहा है । कुरान के आधार पर संचालित होनेवाले इस धर्म में कट्टरता की कोई गुंजाइश इसके शुरुआत में नहीं थी लेकिन कांलांतर में कुरान की व्याख्या करनेवाले मौलवियों ने इस धर्म को कट्टरता के गड्ढे में धकेल दिया। आज सही या गलत लेकिन इस्लाम को लेकर पूरे विश्व में यह धारणा बन गई है कि यह बेहद कट्टर धर्म है और इसमें ना तो सहिष्णुता है और ना ही सहनशीलता । यह बहुत ही खतरनाक बात है, प्रवृत्ति भी । मशहूर इस्लामिक चिंतक असगर अली इंजीनियर ने अपनी किताब- इस्लाम का जन्म और विकास- में लिखा था कि दुनियाभर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने आधुनिक समाजविज्ञानों की रौशनी में आरंभिक इस्लाम के विश्लेषण के आवश्यक मगर कठिन कार्य को अनदेखा किया । असगर अली इंजीनियर की बात में यह भी जोड़ा जा सकता है कि जब चंद कठमुल्ले कुरान की गलत व्याख्या कर रहे थे तो प्रगतिशील सोच के मुसलमान उनके खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाए । उनकी खामोशी से इस्लामिक कट्टकपंथ को बढ़ावा मिला । हौसले तो बुलंद उनके उन मौलवियों ने भी किए जो फतवा के नाम पर कुरान की आयतों की गलत व्याख्या करते रहे । फतवे की इस राजनीति ने सबसे ज्यादा नुकसान इस्लाम की छवि को पहुंचाया । मुस्लिम प्रगतिशील तबकों के अलावा अपनी प्रगतिशीलता का तमगा गले में लटकाए घूमने वाले और बात बात पर धर्मनिरपेक्षता की दुंदुभि बजानेवाले लोग भी इस्लाम में बढ़ते कट्टरवाद पर खामोश रहे । हिंदू कट्टरतावाद, अव्वल यह शब्द ही गलत प्रचलित किया गया, के खिलाफ जो बयानवीर सामने आते थे वो ऊलजलूल के फतवों के खिलाफ खामोशी ओढ़ लेते थे । इसकी सबसे बड़ी मिसाल तस्लीमा नसरीन हैं । उन्हें पश्चिम बंगाल की प्रगतिशील सरकार ने ही सूबे से बाहर किया था। उस वक्त भी प्रगतिशील लेखकों ने आश्चर्यजनक चुप्पी साध ली थी । जबकि होना यह चाहिए था कि धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार हर धर्म की बुराइयों पर समान रूप से विरोध जताते । चुनिंदा विरोध की वजह से धीरे धीरे उनकी विश्वसनीयता खत्म होती चली गई । इस तरह से अगर हम देखें तो प्रगतिशील जमात ने ही धर्मनिरपेक्षता का सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया ।
एक साथ लगभग एक ही तरह की दो बातें सामने आईं हैं । एक तरफ तो भारत सरकार ने वैवाहिक बलात्कार को कानूनी जामा पहनाने से इंकार कर दिया । भारत सरकार का तर्क है कि भारत में विवाह एक पवित्र संस्था है लिहाजा वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा यहां लागू नहीं हो सकती है । राज्यसभा में भारत सरकार की तरफ से गृह राज्य मंत्री ने अपने लिखित बयान में बताया कि- वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा जैसा कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर समझा जाता है अनेक कारणों से भारतीय परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त रूप से लागू नहीं की जा सकती। इन कारणों में शिक्षा-निरक्षरता का स्तर, अनेक रीति रिवाज और मूल्य, धार्मिक आस्थाएं, विवाह को संस्कार मानने की समाज की सोच आदि हैं । भारत सरकार के संसद में दिए गए इस बयान पर पूरा का पूरा तथाकथित प्रगतिशील खेमा तलबारबाजी में जुट गया । दुनिया के तमाम देशों में लागू वैवाहिक बलात्कार के कानून की दुहाई दी जाने लगी । स्त्रियों के अधिकारों की बात पर कोलाहल होने लगा, स्त्री देह की स्वतंत्रता की दुहाई दी जाने लगी, आदि आदि । ऐसा लगा कि आसमान सर पर उठा लिया गया हो । भारत सरकार को दकियानूसी सोच वाली से लेकर उनके इस जवाब को पुरातनपंथी तक करार दे दिया गया । कथित बुद्धिजीवियों में इस बात को लेकर होड़ मच गई कि कौन भारत सरकार की ज्यादा से ज्यादा लानत मलामत कर सकता है ।  संभव है कि उनके तर्क ठीक हों । यह भी संभव है कि देश को अब इस तरह के कानून की जरूरत हो । इस लेख का विषय इस कानून की जरूरत और उसकी बारीकियों के बारे में बात करना नहीं है, बल्कि उन बुद्धिजीवियों को आईना दिखाना है जो विरोध के लिए धर्म विशेष का चुनाव करते हैं । अब एक दूसरा वाकया देखिए जो लगभग इसी तरह का है । मलेशिया के एक मौलवी ने फतवा जारी कर कहा कि औरतें अपने पति को शारीरिक संबंध बनाने के लिए कभी भी मना नहीं कर सकती हैं चाहे वो ऊंट पर ही क्यों ना बैठी हों । उन्होंने भी वैवाहिक बलात्कार की अवधारणा को यूरोपियन अवधारणा करार दिया । यह फतवा धर्म की आड़ में जारी करते हुए कहा गया कि महिला शारीरिक संबंध से सिर्फ तब इंकार कर सकती है जब वो रजस्वला हो, बहुत बीमार हो । मलेशिया के पेराक मुफ्ती जकारिया ने साफ शब्दों में कहा कि मुस्लिम महिला शारीरिक संबंध बनाने के लिए इंकार का अधिकार उस वक्त ही खो देती है जब उसका पिता उसको उसके पति के हाथों सौंप देता है । उन्होंने साफ किया कि मुस्लिम महिलाओं के पास पति को मना करने का हक ही नहीं है । अपने इस फतवे के समर्थन में वो धर्म के सबसे बड़े ढाल का इस्तेमाल करते हैं । अन्य मुस्लिम विद्वानों का कहना है कि इस्लाम में बलात्कार की अवधारणा शादी से बाहर की है, बल्कि वो तो यह तक कहते हैं कि बलात्कार कुंवारी लड़कियों पर ही लागू होता है । उनका कहना है कि इस्लाम में अगर शारीरिक संबंध बनाने के पहले पत्नी की सहमति नहीं ली गई तो यह बलात्कार नहीं है बल्कि इसे बेरदब कहा जाता है जिसका मतलब होता है असभ्य। इसको हराम नहीं माना जाता है बल्कि इसको मकरूह कहा जाता है जिसका अर्थ होता है ऐसा कार्य जिसको नहीं किया जाना चाहिए था । इस फतवे के खिलाफ कहीं से कोई आवाज नहीं उठी । इसमें किसी को स्त्री स्वातंत्र्य का हनन नजर नहीं आया । किसी भी कथित प्रगतिशील बौद्धिक ने इसपर सार्वजनिक एतराज नहीं जताया । जबति भारत सरकार के तर्क में सामाजिक स्थितियों से लेकर शिक्षा के स्तर तक की दुहाई दी गई थी वहीं फतवे में तो फैसला सुनाया गया था । पिता के द्वारा पति तो सौंपे जाने की बात भी थी । इस वक्तव्य में किसी को भी महिला उपभोग की वस्तु नजर नहीं आती है । कोई हाय तौबा नहीं मचती है । अब इन लगभग समान दो स्थितियों पर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं इन कथित प्रगतिशीलों को कठघरे में खड़ाकर देती है । उनकी मंशा पर संदेह करने का पुख्ता आधार प्रदान करती है ।
दरअसल इस्लाम में कट्टरपंथियों के बोलबाला बढ़ते चले जाने की बड़ी वजह यही है कि हम उसपर सख्त रूप से अपनी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं । हाल में तो प्रतिक्रिया देनेवालों को मौत की नींद सुला देने की वारदातें ज्यादा होने लगी हैं । बांग्लादेश में ब्लॉगर की नृशंस हत्या, फिर पाकिस्तान में भी मानवाधिकार कार्यकर्ता सबीन का कत्ल आदि जैसी वारदातें धर्म की आड़ में ही की जा रही हैं । दरअसल इस्लाम धर्म के नाम पर इस तरह के दहशत का खेल पूरी दुनिया में खेला जा रहा है । अभी हाल ही में दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में एक प्रोफेसर पर जानलेवा हमला हुआ क्योंकि उसने सलमान रश्दी के पक्ष में लेक्चर दे दिया था । कुछ दिनों से श्रीलंका की तमिल लेखिका शर्मिला सईद निर्वासित जीवन बिताने को मजबूर हैं क्योंकि उन्होंने तमिल में चलनेवाले एक रेडियो पर दो हजार बारह में उन्होंने इस बात की वकालत की थी कि श्रीलंका में वेश्यावृत्ति को कानूनी कर दिया जाए । उनके इस बयान को इस्लाम की कसौटी पर कसा गया और वहां उसको पाप की श्रेणी में पाया गया क्योंकि इस्लाम में वेश्यावृत्ति को गुनाह माना गया है । उसके बाद शर्मिला सईद और उसके परिवारवालों को धमकियां मिलनी शुरू होने लगी । फेसबुक पर उनके नाम से प्रोफाइल बनाकर अश्लील और भद्दे कमेंट लिखे जाने लगे । ये प्रोफाइल रक्तबीज की तरह बढ़ते थे । शर्मिला और उसके पिता फेसबुक से कहकर एक को हटवाते थे तो सौ और प्रोफाइल बन जाते थे । हर जगह यही तर्क दिए जाने लगे कि एक मुस्लिम महिला कैसे वेश्यावृत्ति की वकालत कर सकती है । शर्मिला के माफी मांगने के बाद भी मामला खत्म नहीं हुआ क्योंकि कठमुल्ले उनसे बगैर शर्त माफी की मांग कर रहे थे जबकि शर्मीला इसके लिए राजी नहीं थी । यहां भी शर्मिला के समर्थन में इक्का दुक्का बुद्धिजीवी ही आए और अपील जारी करने की औपचारिकता निभा गए ।

अब अगर हम गहराई से इस पूरे परिदृश्य पर विचार करें तो बहुत अंधेरा नजर आता है । आलोचना पर हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति भारतीय मुस्लिम समाज पर भी हावी होने के लिए सर पर तैयार खड़ी है । भारत में इस कट्टरपंथ को रोकने के लिए मुस्लिम बुद्धि्जीवियों को तो आगे आना ही होगा साथ ही समाज के हर तबके के बुद्धिजीवियों को समान भाव से कट्टर पंथ पर हल्ला बोलना होगा । अगर हमारे प्रगतिशीलों ने चुनिंदा विरोध की आदत से तौबा नहीं किया तो संभव है कि कट्टरपंथ और हिंसक हो जाए । वह स्थिति हमारे लोकतंत्र के साथ साथ देश को भीकमजोर करेगी । 

1 comment:

शिवेन्द्र सिंह said...

सर ये तो भारत मे आधुनिक लोकतन्त्र के प्रारम्भ से ही हो रहा है कई घटनाये इस बात को दिखाती है आपकी इस बात पर तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियो ने अब तक आपको साम्प्रदायिक घोषित नही किया ये आश्चर्य की बात है