राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर । हिंदी साहित्य का एक ऐसा सितारा है जिसने विपुल
लेखन किया । उन्हें ज्ञानपीठ समेत कई पुरस्कार मिले लेकिन किसी खास विचारधारा को नहीं
मानने की वजह से उनके लेखन का उचित मूल्यांकन नहीं हो सका । दिनकर जी भारत के उन विरले
साहित्यकारों में से हैं जो एक साथ गद्य और पद्य में समान अधिकार और विशिष्टता से लिखते
हैं । दिनकर बहुत बेबाकी से अपनी बातें कहते थे । रामधारी सिंह दिनकर ने साफ तौर पर
लिखा है – ‘साहित्य के क्षेत्र में
हम न तो किसी गोयबेल्स की सत्ता मानने को तैयार हैं, जो हमसे नाजीवाद का समर्थन लिखवाए
और न ही किसी स्टालिन की ही, जो हमें साम्यवाद से तटस्थ रहकर फूलने-फूलने नहीं दे सकता
। हमारे लिए फरमान ना तो क्रेमलिन से आ सकता है और न आनन्द भवन से ही । अपने क्षेत्र
में तो हम उन्हीं नियंत्रणों को स्वीकार करेंगे जिन्हें साहित्य की कला अनंत काल से
मानती चली आ रही है ।‘ ये था दिनकर का साहस और ये थी उनकी साफगोई । ये बातें दिनकर उस वक्त कह रहे थे
जब पूरा देश वामपंथ और नेहरू के रोमांटिसिज्म के प्रभाव में था । अगले साल दिनकर की
किताब संस्कृति के चार अध्याय के प्रकाशन के साठ साल पूरे हो रहे हैं । पहले संस्करण
पर उनकी भूमिका में 5 जनवरी 1956 की तारीख हैं । इस किताब के प्रकाशन के साठ साल पूरे
होने के मौके पर देशभर में सालभर तक दिनकर पर केंद्रित कार्यक्रमों की शुरुआत हो रही
है । यह पहल की है पूर्व केंद्रीय मंत्री सी पी ठाकुर ने । सालभर चलनेवाले इस कार्यक्रम
की शुरुआत दिल्ली के विज्ञान भवन में होगी जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसका आगाज
करेंगे ।
दिनकर की ये किताब संस्कृति के चार अध्याय दरअसल एक बार फिर से बहस की मांग करती
है । दिनकर ने अपनी इस किताब में भारत में चार क्रांतियों का जिक्र किया है । उनका
मानना है देश की सांस्कृतिक क्रांति का इतिहास उन्हीं चार सांस्कृतिक क्रांतियों का
इतिहास है । दिनकर के मुताबिक पहली क्रांति जब हुई जब आर्य भारत आए और उनका संपर्क
आर्येतर जातियों से हुआ । दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और बुद्ध ने स्थापित धर्मों
के विरुद्ध विद्रोह किया और उपनिषदों की चिंताधारा को खींचकर वो अपनी दिशा में ले गए
। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने कहा है कि चौथी क्रांति तब हुई जब इस्लाम, विजेताओं
के धर्म के रूप में भारत पहुंचा और हिंदुत्व से उसका संपर्क हुआ । चौथी क्रांति तब
हुई जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ । संस्कृति के चार अध्याय में जिस तरह से सांस्कृतिक
इतिहास को कालखंडों में विभाजित कर उसको दिनकर ने लिखा है वह इतिहासकारों के सामने
एक बड़ी चुनौती के रूप में अपने प्रकाशन के साठ साल बाद भी खड़ा है । दरअसल दिनकर जब
हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृति एकता और समान संस्कृति ती बात करते हैं तो यह कथित
प्रगतिशील इतिहासकारों को नागवार गुजरता है लिहाजा उन्होंने इसको गंभीरता से नहीं लिया
। एक रणनीति के तहत दिनकर की प्रतिभा को वामपंथी लेखकों ने नजरअंदाज किया । इस किताब
के प्रकाशन के छह साल के अंदर जब इसका तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ तो उसकी भूमिका में
दिनकर ने लिखा- घटनाओं को स्थूल रूप से कोई भी देख सकता है, लेकिन, उनका अर्थ वही पकड़ता
है, जिसकी कल्पना सजीव हो । इसलिए, इतिहासकार का सत्य नए अनुसंधानों से खंडित हो जाता
है, लेकिन कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी खंडित नहीं होते । अब वक्त आ गया है कि दिनकर
की रचनाओं की ओर आलोचकों का ध्यान जाए और गहराई से उसका विश्लेषण और मूल्यांकन किया
जाए ।
1 comment:
जानकारीपरक लेख. हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण पुस्तक के महती आयोजन की सूचना सांझी करने के लिए आभार.
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