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Sunday, June 7, 2015

सियासत के चक्रव्यूह में हिंदी अकादमी

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार हर दिन नए नए विवाद में फंसती नजर आती है । उपराज्यपाल के साथ अफसरों की तैनाती को लेकर विवाद चल ही रहा है । इस विवाद के शोरगुल में दिल्ली की भाषाई अकादमियों में हुई नियुक्तियों का मामला कहीं खो सा गया है । हाल ही में केजरीवाल सरकार ने दिल्ली की हिंदी अकादमी, संस्कृत अकादमी और मैथिली भोजपुरी अकादमी के उपाध्यक्षों की नियुक्ति की। इन नियुक्तियों पर कोई सवाल खड़े नहीं हुए । हिंदी अकादमी में वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा को उपाध्यक्ष के तौर पर नियुक्ति का स्वागत ही हुआ । लेकिन साहित्यक हलके में यह चर्चा तेज है कि मैत्रेयी के स्वागत में जो एक बात दब कर रह गई । चर्चा ये है कि मैत्रेयी पुष्पा जी की नियुक्ति के साथ साथ हिंदी अकादमी के संचालन समिति के पच्चीस में से इक्कीस सदस्यों का मनोनयन भी कर दिया गया । ऐसा करने के पीछे सरकार की मंशा क्या रही है यह बात साफ होनी चाहिए । साहित्य से जुड़े कुछ लोगों का दावा है कि अबतक की परंपरा के मुताबिक उपाध्यक्ष की नियुक्ति के बाद वो सचिव के साथ मिलकर संचालन समिति के लिए मनोनीत किए जानेवाले सदस्यों का नाम अकादमी के पदने अध्यक्ष मुख्यमंत्री के पास भेजते रहे हैं । उन नामों में से दिल्ली का मुख्यमंत्री संचालन समिति के सदस्यों का चुनाव करते हैं । इन आरोपों के मुताबिक आम आदमी पार्टी ने हिंदी अकादमी के गठन के वक्त से चली आ रही परंपरा को तोड़ा। अब उपाध्यक्ष के जिम्मे संचालन समिति के सिर्फ चार सदस्यों के मनोनयन का अधिकार है जो किया जा रहा है । इस परंपरा के समर्थन के पीछे की दलील यह रही है कि उपाध्यक्ष और सचिव अपनी मर्जी की टीम का गठन करते हैं । लेकिन तथ्य यह भी है कि इस बारे में कोई लिखित नियम नहीं है । कई बार सरकार की तरफ से नाम आते हैं और कई बार अकादमी अपना नाम भेजती है । लेकिन संचालन समिति के सदस्यों में एक बात का ध्यान रखा जाता रहा है कि जो भी सदस्य हो उसका दिल्ली से सरोकार हो । कहने का मतलब यह है कि या तो मनोनीत सदस्य दिल्ली का रहने वाला हो या फिर रोजगार के लिए दिल्ली आता हो । बाद में एनसीआर को भी इसमें शामिल कर लिया गया । इस बार संचालन समिति में ऐसे लोग भी रखे गए हैं जिनका दिल्ली से कोई संबंध नहीं है ।  
दरअसल आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद साहित्य संस्कृति का जिम्मा उस पार्टी से जुड़े एक कवि के जिम्मे है । दिल्ली के साहित्यक गलियारों में इस बात की चर्चा भी है कि संचालन समिति में सदस्यों के मनोनयन में उन्हीं की चली है । सदस्यों के नाम तो देखकर प्रतीत भी ऐसा ही होता है । कई सदस्यों की उनसे करीबी सार्वजनिक मंचों पर भी देखी गई है । इस चर्चा की पुष्टि इस बात से भी होती है कि अभी हाल ही में अकादमियों के नवनियुक्त उपाध्यक्षों और संचालन समिति के सदस्यों की मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और मंत्री जितेन्द्र तोमर के साथ एक बैठक हुई । उक्त बैठक में कवि जी भी मौजूद थे । सवाल यह उठता है कि बगैर किसी अकादमी के संचालन समिति के सदस्य होने के, बगैर सरकार में किसी पद पर होने के कवि महोदय उस सरकारी बैठक में किस हैसियत से उपस्थित थे । क्या कोई भी व्यक्ति अगर सत्ताधारी दल का सदस्य है तो वो सरकारी बैठकों में भाग लेने के लिए योग्य हो जाता है । हैरत की बात यह है कि कवि महोदय की इस सरकारी बैठक में मौजूदगी पर किसी ने सवाल नहीं उठाए, ना तो किसी उपाध्यक्ष ने और ना ही किसी संचालन समिति के सदस्य ने । ये तो भला हो सोशल मीडिया का उस बैठक के बारे में और उसकी तस्वीरें सार्वजनिक हो गई । सरकारी बैठक में गैर सरकारी बैठक की उपस्थिति से क्या संदेश निकलता है । क्या यह मान लिया जाए कि आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार ने साहित्य और संस्कृति ये महकमा बगैर कोई पद दिए उनके हवाले कर दिया है । अब तक के संकेत को यही मानने को कह रहे हैं । दरअसल सरकारी भाषाई अकादमियों का हर जगह बुरा हाल है । साहित्य और संस्कृति किसी भी सरकार की प्राथमिकताओं में रही नहीं है । दिल्ली सरकार ने जब मैत्रेयी पुष्पा को हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया तो साहित्य जगत में एक उम्मीद जगी थी लेकिन जब संचालन समिति की बात सामने आई तो उस उम्मीद पर आशंका के काले बादल मंडराते नजर आ रहे हैं । अब मैत्रेयी पुष्पा के सामने सबसे बड़ी चुनौती किसी और की बनाई टीम के साथ काम करना है ।

दिल्ली की हिंदी अकादमी का एक और दुर्भाग्य है कि 2009 से वहां कोई नियमित सचिव नहीं है । ज्योतिष जोशी के हिंदी अकादमी के सचिव का पद छोड़ने के बाद से नियमित सचिव की नियुक्ति नहीं हो पाई है । एक बार जब अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष थे उस वक्त सचिव के पद के लिए आवेदन मंगाए गए थे लेकिन नियुक्ति नहीं हो पाई । उसके बाद भी दिल्ली सरकार ने इस पद को विज्ञापित किया और लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया । इस विज्ञापन के आधार पर लोगों को दो बार इंटरव्यू के लिए बुलाया गया और आखिरी इंटरव्यू 14 अक्तूबर दो हजार चौदह को हुआ । उसके बाद विशेषज्ञों के पैनल ने तीन नामों की सूची तैयार कर संबंधित विभाग को भेज दी । उस वक्त दिल्ली में चुनी हुई सरकार नहीं थी और प्रशासन उपराज्यपाल के हाथ में था लेकिन तब भी किसी ने विशेषज्ञों की बनाई हुई सूची को राज्यपाल की मंजूरी के लिए नहीं भेजी या अगर भेजी गई तो उपराज्यपाल सचिवालय से उसको मंजूर कर नोटिफाई नहीं किया गया । अब खबर आ रही है कि विशेषज्ञों द्वारा तैयार की गई सूची को केजरीवाल सरकार ने रद्द कर दिया है और फिर नए सिरे से सचिव की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया चलेगी । यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि सचिव के पैनल को रद्द करने का आधार क्या रहा है । क्या केजरीवाल सरकार सचिव पद पर भी अपने किसी मनचाहे अफसर को बैठाना चाहती है ।   दरअसल हिंदी अकादमी के सचिव का पद प्रतिनुयुक्ति का पद है और इस पर खास योग्यता वाले की ही नियुक्ति हो सकती है । जिलस पैनल को सरकार ने रद्द किया उसमें हिंदी के एक दलित लेखक का भी नाम था । इस पैनल को रद्द करने के बाद केजरीवाल सरकार ने एक दलित को हिंदी अकादमी का सचिव बनाने के अवसर को भी गंवा दिया । हिंदी अकादमी के गठन के बाद से अबतक इसके सचिव पद  पर किसी दलित की नियुक्ति नहीं हुई है । रही बात उपाध्यक्ष की तो जनार्दन द्विवेदी के बाद के दिल्ली हिंदी अकादमी के उपाध्यक्ष बस शोभा के तौर पर काम करते रहे हैं । हिंदी अकादमी में उनके बैठने के लिए एक कमरा जरूर है लेकिन उनके लिए और कोई सुख सुविधा नहीं है । हर महीने पांच हजार रुपए के मानदेय का प्रावधान है । इन को देखते हुए हिंदी के वरिष्ठ लेखक उपेन्द्र नाथ अश्क से जुड़ा एक वाकया याद आ रहा है । अश्क जी को एक पत्रिका से समीक्षा के लिए कुछ पुस्तकें प्राप्त हुई । अश्क जी ने संपादक को लिखा कि समीक्षा के लिए पुस्तकें प्राप्त हो गई हैं और वो यथासमय उसकी समीक्षा लिखकर भेज देंगे । इसके साथ ही अश्क जी ने यह भी लिखा कि अगर समीक्षा लिखने का मानदेय़ अग्रिम मिल जाता तो समीक्षा हुलसकर लिखता । तो अगर दिल्ली सरकार सचमुच भाषाई अकादमियों को लेकर गंभीर है तो उसको अपने उपाध्यक्ष के लिए बेहतर सुविधाओं का इंतजाम करना होगा ताकि वो हुलसकर काम कर सकें । दूसरे दिल्ली सरकार को इन भाषाई अकादमियों को एक छत के नीचे लाना चाहिए । इस वक्त हिंदी अकादमी दिल्ली के किशनगंज इलाके के एक सामुदायिक केंद्र से चल रहा है जहां कि आधारभूत सुविधाएं भी नहीं हैं । हिंदी से जुड़े लोगों का वहां तक पहुंचना ही मुश्किल है । दिल्ली सरकार को चाहिए कि वो इन अकादमियों को ऐसी जगह पर लेकर जाएं जहां वो आम आदमी की पहुंच में हो । एक ऐसे परिसर का निर्माण हो जहां कि भाषा, संस्कृति, कला पर बात हो सके, किताबों पर चर्चा हो सके । दिल्ली की जनता को आम आदमी पार्टी की सरकार से बहुत उम्मीदें हैं, ऐसी ही उम्मीद साहित्य, संस्कृति और कला जगत के लोगों को भी है । दिल्ली की हालत तो यह है कि यहां किसी भी एक किताब या पत्रिका को खरीदने के लिए आपको कई किलोमीटर के चक्कर लगाने पड़ सकते हैं । वर्ल्ड सिटी का सपना देख रहे दिल्ली वासियों के लिए यह भी आवश्यक है ।   

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