साहित्य और बाजार, यह एक ऐसा विषय है जिसको लेकर हिंदी के साहित्यकार
बहुधा बचते हैं या फिर मौका मिलते ही बाजार की लानत मलामत करने में जुट जाते हैं ।
बाजार एक ऐसा पंचिंग बैग है जिस पर हिंदी साहित्य के पुरोधा से लेकर नौसिखिया लेखक
तक आते जाते मुक्का मारते हुए निकल जाते हैं । साहित्यकारों ने जिस तरह से बाजारवाद
के विरोध का झंडा बुलंद किया हुआ है उससे साहित्य का लगातार नुकसान हो रहा है । बजाए
इस नुकसान को समझने के अपने को साबित करने और खुद को आदर्शवादी साबित करने की होड़
में बाजार का विरोध जारी है । सार्वजनिक मंचों पर बाजार का विरोध करना बौद्धिक होने
का इंस्टैंट लाइसेंस है, ठीक उसी तरह जैसे भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी की
आलोचना करना सेक्युलरिज्म का लाइसेंस है । राजनीति की बात अलहदा है लेकिन साहित्य में
बाजारवाद के विरोध ने लेखकों की राह मुश्किल कर दी और नतीजा यह हुआ कि साहित्य को बाजार
ने हाशिए पर डाल दिया । हाशिए पर जाने से यह हुआ कि किताबों की दुकानें और बिक्री लगभग
खत्म हो गईं । इसका बड़ा नुकसान यह भी हुआ कि प्रकाशकों का ध्यान साहित्य से ज्यादा
साहित्येतर किताबों की ओर चला गया है । अब कई प्रकाशक कहानी, कविता, उपन्यास आदि से
इतर विधाओं की किताबों में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं । उनका तर्क है कि साहित्य से
ज्यादा साहित्येतर विषयों की किताबें बिकती हैं । संभव है । इस वक्त एक साथ साहित्य
में कवियों की कई पीढ़ी सक्रिय है – कुंवर नारायण से लेकर बाबुषा कोहली तक लेकिन प्रकाशक हैं कि कविता संग्रह छापने
को तैयार नहीं है । उनका साफ कहना है कि कविता का बाजार नहीं है, कविता संग्रह बिकते
नहीं हैं । क्या यह स्थिति किसी भी भाषा के साहित्य के लिए उत्तम कही जा सकती है ।
कदापि नहीं । साहित्य को बाजार से अलग करने
की ऐतिहासिक वजहें हैं । बाजार का विरोध करनेवाले कमोबेश वही लोग हैं जो पूंजीवाद का
विरोध करते रहे हैं और पूंजीवाद का विरोध मार्क्सवाद के अनुयायी करते रहे हैं । साहित्य
में लंबे समय तक और बहुत हद तक अभी भी मार्क्सवादियों का बोलबाला है, लिहाजा बाजार
का विरोध होता रहता है । अगर हम वस्तुनिष्ठ होकर इस विरोध का आंकलन करें तो हमें इसमें
बुनियादी दोष नजर आता है । लेखक लिखता है और फिर वो प्रकाशक को उसके छापने के लिए देता
है । किताब के छपने के बाद प्रकाशक और लेखक दोनों की इच्छा होती है कि उसकी बिक्री
हो । प्रकाशक अपने कारोबार के लिए तो लेखक पाठकों तक पहुंचने और बहेतर रॉयल्टी की अपेक्षा
में बिक्री की इच्छा रखता है । अब देखिए विरोधाभास यहीं से शुरू हो जाता है वो लेखक
जो बाजारवाद को पानी पी पी कर कोसता है वही अपनी किताब को उसी बाजार में सफल होना देखना
चाहता है, उसी बाजार से बेहतर रॉयल्टी की चाहत रखता है । अब यह कैसे संभव है । आप जिसका
विरोध करेंगे वही आपको फायदा पहुंचाएगा । बाजार की चाहत होने के बावजूद लेखकों ने बाजार
का विरोध करना शुरू कर दिया, नतीजा यह हुआ कि बाजार ने भी लेखकों को उपेक्षित कर दिया
और अंतत: साहित्य का नुकसान हो गया ।
बाजार का विरोध एक हद तक उचित हो सकता है लेकिन सुबह-शाम, उठते
बैठते बाजार को गाली देने का फैशन नुकसानदेह है । जब मार्क्सवाद का प्रतिपादन किया
गया था या उसके बाद जब कई देश उसके रोमांटिसिज्म में थे उस वक्त बाजार का विरोध उचित
लगता था । कालांतर में मार्कसवाद की ज्यादातर अवधारणाओ को लोगों ने ठुकरा दिया लेकिन
लेखकों ने बाजार का विरोध जारी रहा । आज के बदले वैश्विक परिवेश में बाजार एक हकीकत
है, आप चाहें तो उसको कड़वी मान लें । इस हकीकत का विरोध कर या उससे ठुकराकर प्रासंगिकता
बरकरार रखना लगभग मुश्किल सा है । हिंदी के लोगों को याद होगा चंद सालों पहले दक्षिण
कोरिया की एक कंपनी ने साहित्य अकादमी के साथ मिलकर लेखकों को पुरस्कृत करने की एक
योजना बनाई थी । साहित्यकारों ने इतना हो हल्ला मचाया कि उस कंपनी ने साहित्य से ही
तौबा कर ली । पूंजीवाद और बाजारवाद का विरोध करनेवाले हिंदी के साहित्यकारों को धन्नासेठों
से लखटकिया पुरस्कार लेने में संकोच नहीं होता है लेकिन अगर कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी
साहित्य के लिए कुछ करना चाहती है तो ये उनको साम्राज्यवाद, बाजारवाद. साहित्य को उपनिवेश
बनाने की कोशिश आदि लगने लगता है । बाजार की हकीकत को स्वीकार करते हुए उसको साहित्य
के और अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की जानी चाहिए । हमारे यहां तो साहित्य
में तो जो एक सांचा बन जाता है, और अगर वो जरा भी सफल हो जाता है तो चीजें या रचनात्मकता भी उसी में ढलती रहती हैं ।
वसुधा के फरवरी 1957 के अंक में हरिशंकर परसाईं ने ढलवॉं साहित्य शीर्षक से लिखा था– जैसे एक सांचे में ढले गहने होते हैं, वैसा ही कुछ साहित्य
विशेष प्रकार के सांचों में ढलकर बनता है । सांचे में सुभीता होता है – सुनार को सोचने का काम नहीं करना पड़ता । सांचे में नुकसान
भी है – एक किस्म का माल ढलता है, कारीगर
की कला-प्रतिभा व्यर्थ चली जाती है, बदलती जनरुचि उसी के माल को कुछ दिनों बाद नापसंद
करने लग जाती है ।‘ बाजारवाद के विरोध का भी यही हश्र हुआ पहले तो यह
लोगों को लुभाता था, आकर्षक लगता था । क्रांति आदि की आहट महसूस होती थी लेकिन कालांतर
में जनरुचि बदली लेकिन साहित्य के अलंबरदारों ने बाजारवाद के विरोध का सांचा नहीं बदला
। लगातार उसी में माल ढलता रहा और कलाकार की कला प्रतिभा जनरुचि को पकड़ने में नाकाम
रही । हरिशंकर परसाईं अपने उसी लेख में लिखते हैं- कई यथार्थवादी लेखक, यथार्थ जीवन
में प्रवेश किए बिना, जनजीवन से सीधा और संवेदनात्मक संपर्क स्थापित किए बिना, एक सांचे
पर ढलाई कर रहे हैं । इसमें मनुष्य कहीं दिखता नहीं है । कुछ समझते हैं कि सुर्ख मेंहदी,
सुर्ख सूरज, लाल कमीज, सुर्ख धरती आदि लिख देने से यह प्रगतिवाद कहलाने लगेगा । या
किसी ने किसी की प्रेमिका को ‘सुर्ख रूमाल’ भेंट दिलवाने-मात्र से
क्रांति हुए बिना नहीं रहेगी । इन रचनाओं में ठप्पेदार शब्दों के सिवा कुछ नहीं रहता
। जीवन तत्व गैरहाजिर ! संवेदना लुप्त !! बाजार और बाजारवाद का विरोध भी कुछ इसी तर्ज पर होता रहा है
। अपने फायदे के लिए बाजार का विरोध वो भी उन्हीं घिसे पिटे तर्कों के आधार पर । यह
तो नहीं कहा जा सकता कि बजार का विरोध करनेवाले साहित्यकार बदलते वक्त को नहीं पहचान
पा रहे हैं लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अपने फायदे के लिए बाजारवाद के विरोध
की दुंदुभि बजाना नहीं छोड़ रहे ।
चालीस पचास सालों बाद अब स्थितियां कुछ बदलती नजर आ रही हैं
। कुछ युवा लेखकों ने बाजार को ध्यान में रखकर किताबें भी लिखनी शुरू की हैं और उसको
पाठक वर्ग तक पहुंचाने का उद्यम भी शुरू किया है । यह एक अच्छी सोच है और इसका समर्थन
किया जाना चाहिए । अंग्रेजी में हमेशा से यह होता रहा है । मुझे याद आता है कि जब दो
हजार सात में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के डेढ सौ साल हो रहे थे तो हिंदी के प्रकाशनों
ने योजनाबद्ध तरीके से कई किताबें एक के बाद एक जारी की थीं । उससे लेखकों को भी लाभ
हुआ और प्रकाशकों को तो हुआ ही । इसी तरह 26 जून को इमरजेंसी के चालीस साल हो रहे हैं
। अंग्रेजी के प्रकाशकों ने उसको ध्यान में रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर की किताब
जारी कर दी । अब इस साल जब भी जहां भी इमरजेंसी की बात हो रही तो कूमी की किताब की
चर्चा हो जा रही है । इससे किताबों का बाजार बनता है । हिंदी के प्रकाशक और लेखक दोनों
इस तरह से योजना बनाकर किसी खास तिथि को ध्यान में रखते हुए ना तो किताब लिखते हैं
और ना ही छापते हैं । बाजार को भुनाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करने की जरूरत
है । स्वांत: सुखाय लेखन के बजाय बहुजन
हिताय की ओर कदम बढ़ाने की आवश्यकता है । अंग्रेजी में दो चार किताबें लिखकर लेखक का
जीवन चल जाता है लेकिन हिंदी में नहीं । क्यों । वजह साफ है । दीवार पर लिखी इबारत
को भी अगर हम नहीं पढ़ पा रहे हैं तो यह सबकुछ देखकर अनदेखा करने जैसी स्थिति है ।
आज के युवा लेखकों को भी यह समझना होगा कि बाजारवाद का विरोध करके साहित्य के चंद मठाधीशों
का आशीर्वाद उनको प्राप्त हो सकता है, कुछ प्रसिद्धि आदि भी मिल सकती है लेकिन पाठकों
का प्यार नहीं हासिल हो सकता है । पाठकों तक पहुंचने का माध्यम बाजार ही है । अंग्रेजी
में एक कहावत है – च्वाइस इज योर्स । तय कर लीजिए
।
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