अब यह बीते जमाने की बात लगने लगी है कि साहित्यक पत्रिकाएं समकालीन साहित्य परिदृश्य
में सार्थक हस्तक्षेप किया करती थी । हिंदी में साहित्यक पत्रिकाओं का बहुत ही समृद्ध
इतिहास रहा है । दरअसल यह माना जाता रहा है कि साहित्यक पत्र पत्रिकाएं साहित्य का
मंच होती है जहां साहित्य की सभी विधाओं के अलावा समकालीन विषयों पर उठ रहे सवालों
से लेखक मुठभेड़ करता नजर आता है । इन पत्रिकाओं में पाठकों के छपे पत्रों से जो सटीक
प्रतिक्रियाएं मिलती हैं वो भी बेहद मूल्यवान होती हैं । एक जमाने में हिंदी में कविवचन
सुधा, हरिश्चंद्र पत्रिका, सरस्वती, हंस, मतवाला, कल्पना, सुधा, विशाल भारतस रूपाभ
जैसी पत्रिकाएं निकला करती थी । एक जमाने इन साहित्य पत्रिकाओं में बहसें चला करती
थीं और पाठकों को उनके अंकों का इंतजार रहता था । कालंतर में ये सभी साहित्यक पत्रिकाएं
धनाभाव में बंद हो गईं । कुछ सेठाश्रयी पत्रिकाएं भी लंबे समय तक चलीं लेकिन वो भी
बंद ही हो गईं । इस परिदृश्य को देखकर यह प्रतीत होता है कि हिंदी में साहित्य का बाजार
नहीं है । पत्रिकाएं बिक नहीं पाईं लिहाजा वो बंद हो गई । लेकिन इसका एक और पहलू भी
है वो यह है कि हिंदी में इस वक्त कम से कम सौ साहित्यक पत्रिकाएं निकल रही होंगी ।
जितनी रफ्तार से साहित्यक पत्रिकाएं बंद हो रही हैं उसी रफ्तार से नए लोग नई साहित्यक
पत्रिकाओं का प्रकाशन भी कर रहे हैं । इसका अपना एक अलग अर्थशास्त्र है । बाजार को
पानी पी पी कर कोसनेवाले लोग बाजार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साहित्यक पत्रिकाओं
के मार्फत अपनी साहित्यक दुकान सजाने के लिए बेताब नजर आते हैं ।
अभी हाल ही में सामयिक प्रकाशन ने सामयिक सरस्वती का प्रकाशन शुरू किया है । ऐसा
प्रतीत होता है कि रजिस्ट्रेशन की सरकारी मजबूरी के चलते इसका नाम सामयिक सरस्वती रखा
गया है । क्योंकि इसके संपादकीय में इस बात का प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप में खास
जोर दिया गया है कि यह आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी वाली सरस्वती है जो “ कायिक रूप से विलुप्त होकर हिंदी साहित्य के इतिहास के पन्नों में सिमट तकर रह
गया था ।‘ सरस्वती के प्रकाशन
की सूचना जब सोशल मीडिया से मिली थी तो एक उत्साह जगा था, उत्सुकता भी थी कि कौन संपादर
होगा और अंक कैसा होगा । उपन्यासकार शरद सिंह के संपादन में पहला अंक देखने के बाद
वो उत्सुकता खत्म हो गई । संपादकीय में कई तथ्यात्मक भूलें हैं जिसकी ओर संपादक का
ध्यान जाना चाहिए था । जो बसबे बड़ी चूक है वो महावीर प्रसाद द्विवेदी के सरस्वती के
संपादन संभालने के साल को लेकर है । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की विरासत को संभालने
और “हिंदी साहित्य जगत की विलुप्त पत्रिका सरस्वती के पथ
को पुन: प्रशस्त करने के बीड़ा उठाने में संपादक से हुई चूक को
अगले अंक में दुरुस्त किए जाने की आवश्यकता है । दूसरी एक और बात खटकी वो ये कि इस
पत्रिका में छपे कई लेख आदि पहले ही प्रकाशित होकर पाठकों की नजर से गुजर चुके हैं
। हिंदी जगत को संपादक और प्रबंध संपादक से बड़ी अपेक्षाएं हैं और उन्होंने जो रास्ता
चुना है उसपर चलने के लिए बेहद संतुलन और सावधानी की आवश्यकता है । शरद सिंह को एक
संपादक के तौर पर स्थापित होने का यह अवसर मिला है जो लंबा चल सकता है क्योंकि इस पत्रिका
के प्रकाशन के पीछे व्यक्तिगत पूंजी नहीं बल्कि संस्थागत पूंजी है । प्रबंध संपादक
होने के नाते महेश भारद्वाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि वो सबका साथ लेकर चलें । अगर
ऐसा हो पाता है तो यह हिंदी जगत के लिए एक सुखद स्थिति होगी ।
1 comment:
आपने इस लेख में सामयिक सरस्वती के प्रबंधक संपादक महेश भारद्वाज को
सुझाव दिया है कि पत्रिका को चलाने के लिए वे सबका साथ ले कर चलें।
भइया , हिंदी में सबका साथ मिले , मुमकिन नहीं।
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