Translate

Tuesday, June 30, 2015

साहित्य का बढ़ता दायरा

समकालीन हिंदी साहित्य के परिदृश्य में युवा लेखकों ने दशकों से चली आ रही लीक से अलग हटकर चलने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं । दशकों से हिंदी में यह परंपरा चल रही थी कि कविता कहानी और उपन्यास के अलावा साहित्येतर विषयों पर लेखन नहीं हो रहा था । नतीजा हम सबके सामने हैं हिंदी साहित्य से कई विधाएं लगभग गायब होती चली गईं । संस्मरण तो यदा कदा लोग लिख भी रहे हैं लेकिन यात्रा वृत्तांत तो एक विधा के तौर पर लगभग समाप्त हो गया । यह माना जा सकता है कि तकनीक के फैलाव की वजह से पत्र लेखन खत्म हो गया लेकिन अन्य विधाओं को तो हमने खुद समाप्त किया । फिल्म और संगीत पर लिखनेवालों को हेय दृष्टि से देखने या फिर बुर्जुआ विचाधारा के पोषक माने जाने की वजह से नए लेखकों ने उधर देखना बंद कर दिया । कहानी और उपन्यास में एक खास किस्म की विचारधारा और यथार्थ को बढ़ावा देने की कोशिश ने भी इन विधाओं को नुकसान पहुंचाया । हलांकि इस शताब्दी की शुरुआत में ही कई लेखकों ने इस ठस सिद्धांत पर अपनी रचनाओं के माध्यम से हमला किया लेकिन फिर भी बहुतायत में लेखक में उसी लीक पर चलते रहे । हाल के दिनों में जिस तरह से लेखकों ने ना केवल फिल्मों पर बल्कि संगीत पर भी संजीदगी से लिखना शुरू किया है वह साहित्य की समृद्धि के संकेत देता है । हमारे यहां पहले गंभीरता से इन विषयों पर लिखा जाता था लेकिन कम्युनिस्ट काल में साहित्य लेखन एक खांचे में बंध गया जो अब आजाद होने के लिए छटपटा रहा है ।
पिछले दिनों युवा लेखक यासिर उस्मान ने राजेश खन्ना को केंद्र में रखकर एक मुकम्मल किताब लिखी । राजेश खन्ना बॉलीवुड के उन सितारों में से हैं जिनके वयक्तित्व के पहलुओं का खुलना बाकी है । अंग्रेजी में गौतम चिंतामणि ने ये कोशिश की । यासिर उस्मान के अलावा कुछ दिनों पहले पंकज दूबे ने लूजर कहीं का और सत्य व्यास ने बनारस टॉकीज नाम से उपन्यास लिखा । ये दोनों उपन्यास साहित्य की स्थापित लीक को चुनौती देते हैं । यही वजह है कि पाठकों को ये दोनों उपन्यास काफी पसंद आए । हिंदी के स्थापित आलोचकों ने इन उपन्यासों का नोटिस नहीं लिया उन्हें लगा कि इनकी भाषा मान्य भाषा से कमजोर है ।  लेकिन इनकी भाषा आज की युवा पीढ़ी की भाषा है । इनके पात्र वही भाषा बोलते हैं जो आज के लड़के लड़कियां बोलते हैं । यब बात हिंदी के आलोचकों के गले नहीं उतरती है । तो स्थापित मान्यताओं को हर स्तर पर चुनौती दी जाने लगी है । अभी हाल ही में कई वरिष्ठ लेखकों की कहानियां और उपन्यास पढ़ने का अवसर मिला । उनकी भाषा को देखकर अब भी लगता है कि वो पता नहीं किस दुनिया में जी रहे हैं । रेणु ने अपने जमाने जो भाषा लिखी क्या अब भी वही भाषा चलेगी । उन लेखकों को यह समझना होगा कि गांव की भाषा में बहुत ज्यादा बदलाव हुआ है  । प्रभात रंजन के नए उपन्यास कोठागोई को लेकर भी हिंदी साहित्य में बहुत उत्सकुता है । इस उपन्यास में प्रभात रंजन ने बिहार के मुजफ्परपुर के चतुर्भुज स्थान की बाइयों को केंद्र में रखा है और उनकी अनसुनी दास्तां पाठकों के सामने पेश की है । अब यह हिंदी साहित्य का एक ऐसा प्रदेश है जिसमें सालों से किसी लेखक ने प्रवेश नहीं किया था । कोठेवालियां से लेकर कोठागोई तक के सफर पर नजर डालें तो साहित्य के इस रास्ते पर लगभग सन्नाटा नजर आता है । जबकि बाइयों की यह परंपरा अब लगभग समाप्ति की ओर है और उनके किस्सों को अपनी रचनाओं में जीवित रखने की कोशिश का यह प्रयास सराहनीय है । यह कहना जल्दबाजी होगी की नए लेखकों ने अपनी कलम की ताकत से साहित्य को करवट लेने को मजबूर कर दिया है लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि साहित्य को करवट लेने के लिए उकसाने की गंभीर कोशिश शुरू हो गई है । यह हिंदी साहित्य के लिए शुभ संकेत है ।

No comments: