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Saturday, May 7, 2016

डायरी से खुलती मन की गिरहें

दोपहर ग्यारह बजे लखनऊ से नरेश सक्सेना का फोन आया । उन्हें दस्तावेज का एक सौ चोदहवां अंक मिला है । उन्होंने कहा- हिंदी की सभी पत्रिकाओं में मुझे दस्तावेज सबसे अलग और विशिष्ट लगती है । इसकी साज-सज्जा ही नहीं इसमें छपी सामग्री भी । मेरा इससे ज्ञानवर्धन होता है । लेकिन आप वामपंथ विरोध क्यों जारी रखे हुए हैं ? मैंने कहा, आपके हाथ में जो अंक है उसी का संपादकीय देख जाइए तो पाएंगे कि मैंने सभी दलों के नेताओं का नाम ले लेकर विरोध किया है । इस अंक में किसानों की आत्महत्या शीर्षक संपादकीय है । क्या यह वामपंथ विरोध है ? नरेश सक्सेना ने मेरी बात को स्वीकार किया । असल बात यह है कि यह वामपंथी दुष्प्रचार है और वो अपने दल की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते । यह पूरा प्रसंग दर्ज है साहित्य अकादमी के मौजूदा अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी की डायरी में और तारीख है बीस जून दो हजार सात ।उनकी डायरी को वाणी प्रकाशन नई दिल्ली ने पुस्तकाकार छापा है । नाम है – दिन रैन ।  अगर सतही तौर पर देखें तो ये दो साहित्यकारों के बीच की बातचीच है जो विश्वनाथ तिवारी ने अपनी डायरी में दर्ज कर ली है और अब उसका प्रकाशन हो गया है । लेकिन अगर इसका विश्लेषण करें तो विश्वनाथ तिवारी की एक पंक्ति पर गौर करना पड़ेगा जहां वो कहते हैं कि यह वामपंथी दुष्प्रचार है और वो अपने दल की आलोचवना बर्दाश्त नहीं कर पाते । दरअसल हिंदी साहित्य में वामपंथियों का ये दुष्प्रचार लंबे समय से चल रहा है । वो ना तो अपनी रचना की, ना ही अपने संगठन की, ना अपने पार्टी की और ना ही अपनी विचारधारा और तो और ना ही अपने कॉमरेड की आलोचना बर्दाश्त कर पाते हैं । आलोचना करनेवालों को दक्षिणपंथी, कलावादी, सरकारपरस्त, संघी आदि से लेकर जाने क्या क्या कहकर बदनाम किया जाता रहा है । रामधारी सिंह दिनकर को, अज्ञेय को, निर्मल वर्मा को और तो और अशोक वाजपेयी को भी वामपंथियों ने कहां बर्दाश्त किया । यह अलहदा बात है कि बदली हुई परिस्थिति में अशोक वाजपेयी वामपंथियों के सिरमौर बने हुए हैं ।दरअसल हिंदी साहित्य का यह दौर अवसरवादिता का दौर है और अशोक वाजपेयी की रहनुमाई में वामपंथी लेखकों का आना अवसरवादिता का बेहतरीन उदाहरण है । वामपंथी लेखकों के दुष्प्रचार और अवसरवादिता को हिंदी में लंबे समय से लक्षित किया जाता था लेकिन संस्थाओं और विष्वविद्यालयों के हिंदी विभागों पर उनके कब्जे की वजह से उनके खिलाफ कम लिखा जाता था । विश्वनाथ तिवारी जैसे लेखक यदा कदा वामपंथ के अंतर्विरोधों पर लेख आदि लिखा करते थे लेकिन उसपर कभी कोई विमर्श हुआ, हो याद नहीं आता । या तो इस तरह के लेखों का नोटिस ही नहीं लिया जाता था और अगर कही गले पड़ ही गया तो लेखक को संघी आदि कहकर साहित्यक अछूत करार देकर विमर्श से पीछा छुड़ा लिया जाता था ।
विश्वनाथ तिवारी की प्रकाशित डायरी दिन रैन में कई ऐसे प्रसंग हैं जो हिंदी साहित्य की बजबजाती दुनिया को बेनकाव करते हैं । जुलाई 2007 में विश्वनाथ तिवारी लिखते हैं, किसी भी भाषा में कुंठित लेखकों की कमी नहीं है । हर शहर में कुछ ऐसे हैं, जिनकी शिकायत है कि उनकी उपेक्षा हो रही है । एक दो की शिकायत कुछ सही भी हो सकती है क्योंकि हिंदी में पिछले कुछ दशकों से लेखक संगठनों के कारण साहित्यक माहौल धूमिल हुआ है तथा कुछ लेखक अन्य कारणों से चर्चित हो गए हैं । मगर शिकायत करनेवाले अधिकांश लेखकों का भुनभुनाना और बिसूरना निराधार है । उनमें ना तो प्रतिभा है, न अध्ययन, ना दृष्टि की चमक न सर्जनात्मक भाषा । अपना लिखा सबको अच्छा लगता है लेकिन जब वह दूसरों को प्रभानित करे तब ना । किसी को पद या पुरस्कार तो साहित्येतर प्रयत्नों से प्राप्त हो सकता है पर यश तो उसे आत्मप्रचार या सिफारिश से नहीं ही मिला करता । जिन लेखकों को अपने कर्म में गहरी आस्था नहीं होती वो कुंठित हो जाते हैं । जो अपने लेखन को ही सिद्धि मानते हैं वे लिखते भी रहते हैं और देर-सबेर प्रतिष्ठित भी होते हैं । लेखक की दुनिया में देर है पर बहुत अंधेर नहीं । अपनी इस छोटी सी टिप्पणी में विश्वनाथ तिवारी ने हिंदी के ज्यादातर लेखकों की कमजोरी नस दबा दी है । साथ ही तिवारी जी लेखक संगठनों की भूमिका को भी नकारात्मक मानते हैं और उसको साहित्य का माहौल खराब करने का जिम्मेदार ठहराया है । अपनी इस टिप्पणी में तिवारी साफ तौर पर संकेत करते हैं कि कुछ लेखकों के चर्चित होने की वजह लेखक संगठन और खास विचारधारा से उनकी प्रतिबद्धता है । यह कितना दुखद है कि किसी औसत लेखक को सिर्फ इसलिए चर्तित कर दिया जाए क्योंकि वो आपकी विचारधारा के झंडे की गुलामी स्वीकार कर रहा है । इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता कि वो प्रतिभाशाली है या नहीं, उसके लेखन में उसकी रचनाओं में धार है या नहीं । इस साहित्यक बेइमानी पर पूरी हिंदी पट्टी में बहस होनी चाहिए ।

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हिंदी लेखकों की आत्ममुग्धता पर भी कठोर टिप्पणी करते हैं । यह हिंदी साहित्य के लिए सचमुच बहुत भयावह स्थिति है कि यहां हर लेखक अपने को साहित्य अकादमी पुरस्कार के योग्य मानता है । युवा लेखकों की एक पूरी फौज है जो इतनी आत्ममुग्ध है कि कहा नहीं जा सकता है । इन युवा लेखकों की आत्ममुग्धता को पंख लगते हैं फेसबुक की लाइक्स से । लाइक्स की वजह से वो इतना आत्मलिप्त हो जाता है कि उसको लगता है कि वो हिंदी साहित्य के हर पुरस्कार के योग्य है । अब इस आत्ममुग्धता को जब मंजिल नहीं मिलती है तो लेखक कुंठित होना शुरू हो जाता है । जैसे जैसे यह कुंठा बढ़ती जाती है तो वो फिर बदतमीजी पर उतारू हो जाता है और फेसबुक आदि के अराजक मंच पर अपनी भड़ास निकालना शुरू कर देता है । वह तटस्थ होकर अपने लेखन की कमजोरियों पर विचार करने की मानसिकता में नहीं रह जाता है । इस मानसिकता के आभाव में कभी वो नकली गंभीरता का आवरण धारण करता है जो उसकी रचनाओं में भी प्रतिबिंबित होकर उसको बोझिल बना देता है । बोझिलता उसको पाठकों से दूर कर देती है और यहीं से कुंठा और बढ़ जाती है । हिंदी साहित्य में खत्म होती विधा डायरी लेखन को इस किताब से प्राणवायु तो मिलेगी ही ये साहित्यक प्रवृत्तियों पर गंभीर विमर्श का आधार भी प्रदान करती है । 

2 comments:

Dheeraj kr. BIHAT said...

अत्यंत रोचक और गंभीर टिप्पणी।

Dheeraj kr. BIHAT said...

अत्यंत रोचक और गंभीर टिप्पणी।