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Thursday, December 8, 2016

लोकतंत्र कैसे हो मजबूत ?

नोटबंदी पर संसद में लगातार लंबे समय से हो रहे हंगामे के बाद एक बार फिर से संसदीय लोकतंत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष की भूमिका को लेकर बहस शुरू हो गई है । पारंपरिक रूप से यह माना और कहा जाता रहा है कि संसद को चलाने की जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती है । इस परंपरा पर बहस हो सकती है, इसको बदलने को लेकर विवाद हो सकते हैं, लेकिन यह निर्विवाद है कि मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष के साथ साथ मजबूत विपक्ष का होना आवश्यक है । वैसा विपक्ष जो सरकार की रचनात्मक आलोचना करे, जनहित से जुड़े मुद्दों पर जनांदोलन करे । हमारे देश ने सत्तर साल के लोकतंत्र के दौरान कई बार विपक्ष की भूमिका को देखा है । इमरजेंसी के दौरान एकजुट विपक्ष ने इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता को अपने मंसूबों को बदलने के लिए मजबूर कर दिया था । जब बोफोर्स जैसा घोटाला सामने आया था तब वी पी सिंह ने कांग्रेस से बाहर निकलकर पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बनाया था लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान उनको बहुमत नहीं मिला था । उस वक्त भी विपक्ष ने अपनी जिम्मेदारी समझी और जनाकांक्षा का सम्मान करते हुए राजीव गांधी को सत्ता से दूर रखने के लिए वी पी सिंह की अगुवाई में केंद्र में सरकार बनवाई । वह प्रयोग नायाब था जब एक शख्स को वामदलों और भारतीय जनता पार्टी दोनों का समर्थन मिला था । ऐसे कई उदाहरण हमारे लोकतंत्र में हैं ।
विपक्ष की सबसे बड़ी भूमिका होती है कि वो संविधान के मूल्यों की रक्षा करे और सत्तापक्ष अगर उसके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ करे तो उसके खिलाफ जनमानस तैयार करे । लोकतंत्र में जन का मानस तैयार करना ही सबसे बड़ा काम है । विपक्ष के कमजोर होने से सत्ता पक्ष को मनमानी का मौका मिल जाता है । दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में देश की जनता ने भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को प्रचंड बहुमत दिया और उसके अलावा किसी भी दल को उतनी सीटें भी नहीं मिली कि उनको लोकसभा में नेता विपक्ष का पद मिल सके । खैर ये बातें अब इतिहास हैं । बावजूद इसके जनता ने विपक्षी दलों को इतनी सीटें अवश्य दे दीं कि वो सत्ताधारी दल को गलत रास्ते पर चलने से रोक सकें ।
लोकतंत्र के लिए कमजोर या बंटा हुआ विपक्ष बेहद खतरनाक होता है । अभी नोटबंदी के मामले पर यह देखने को मिल रहा है । लगभग सभी विपक्षी दल सरकार के इस फैसले के क्रियान्वयन की कमियों के खिलाफ हैं लेकिन सभी अपनी अपनी डफली लेकर अपना अपना राग अलाप रहे हैं । बंटा हुआ विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक दिखाई दे रहा है । विपक्षी दलों के विरोध के चलते संसद का कामकाज ठप है लेकिन इससे कुछ रचनात्मक निकलता दिखाई नहीं दे रहा है । दरअसल विपक्ष को एकजुट करने के लिए किसी एक धुरी की जरूरत होती है । वो धुरी जिसपर सभी दलों को भरोसा हो कि वो नेतृत्व दे सकता है । इंदिरा गांधी ने जब देश में इमरजेंसी लगाई या यों कहें कि इमरजेंसी के पहले देश में जिस तरह क हालात बन रहे थे उसको लेकर जयप्रकाश नारायण ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया था । माना जा सकता है कि जयप्रकाश नारायण के विरोध की बढ़ती तीव्रता से घबराकर इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई । फिर पूरा विपक्ष जयप्रकाश नारायण के इर्द गिर्द इकट्ठा हुआ और दो ढाई सालों में ही इंदिरा गांधी को अपने कदम वापस खींचने को मजबूर कर दिया । इमरजेंसी के बाद आमचुनाव हुए और कांग्रेस और वो खुद बुरी तरह से पराजित हो गईं ।
उसके बाद देश ने वो धौर देखा जब वी पी सिंह ने अपनी साख की वजह से सभी दलों को एक भरोसा दिया । इसी तरह से जब नब्बे के दशक के अंत के वर्षों में भारत में गठबंधन सरकारों का दौर चला उस वक्त सीपीएम के नेता हरकिशन सिंह सुरजीत विपक्षी दलों की एकजुटता की धुरी बने । इस धुरी ने कई सरकारें बनवाईं । अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान सोनिया गांधी विपक्षी दलों की एकता की धुरी बनीं । सोनिया गांधी को भी हलांकि कई वरिष्ठ नेताओं का साथ मिला था यहां तक परोक्ष रूप से वी पी सिंह ने भी सोनिया का समर्थन किया था। नतीजा दस साल तक केंद्र में यूपीए की सरकार । इस वक्त वैसा कोई नेता दिखाई नहीं दे रहा है जो विपक्षी दलों की एका की धुरी बन सके या फिर तमाम विपक्षी दलों को उस शख्सियत पर भरोसा हो । सोनिया गांधी अपनी बीमारी की वजह से नेपथ्य में रह रही हैं । राहुल गांधी अपना वो कद अभी बना नहीं पाए हैं कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल जैसे नेता उनका नेतृत्व ना भी स्वीकार करें तो उनकी बात तो मानें । सत्तापक्ष इसका फायदा उठा रहा है । वो हर मौके पर विपक्ष की इन कमजोरियों को एक्सपोज कर रहा है और जनता को ये संदेश दे रहा है कि सरकार के अच्छे कामों में विपक्ष बेवजह अडंगा लगा रहा है । सत्तापक्ष लोगों तक यह संदेश पहुंचाने में सफल लग रहा है कि विपक्ष नोटबंदी का सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं । विपक्ष की इस कमजोरी ने बीजेपी को खेलने के लिए खुला मैदान दे दिया है ।
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका होती है कि वो संसद में जनहित के मुद्दे उठाए, जनता के बीच जाकर लोगों को सरकार की गलत नीतियों के बारे में आगाह करे, मीडिया में अपने सवालों को उठाते हुए उसपर डिबेट करे । इन सबसे लोकतंत्र को सामाजिक और राजनीतिक मजबूती मिलती है । अगर विपक्ष कमजोर होता है तो सत्तापक्ष मनमानी पर उतर जाता है । फिर देश के सामने तानाशाही का खतरा उत्पन्न हो जाता है हलांकि भारत में लोकतंत्र की जड़े इतनी गहरी जा चुकी हैं और जनता ने लोकतंत्र में मिली आजादी का इतने लंबे समय तक उपभोग कर लिया है कि वो अब किसी और राजनीतिक व्यवस्था को मंजूर नहीं करेगी । बावजूद इसके अगर सत्ता पक्ष मजबूत होता है तो उसके नेता बहुधा गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं । यह गलतफहमी उनको उन फैसलों की तरफ ले जाती है जो ना तो देशहित में होते हैं और ना ही जनहित में । इन गलत फैसलों के कई बार दूरगामी परिणाम होते हैं । सत्तापक्ष की मजबूती का सबसे बड़ा उदाहरण तो राजीव गांधी की सरकार जब कांग्रेस को चार सौ से अधिक सीटें मिली थीं । उस सरकार ने तो सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने के लिए शाह बानो के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए संविधान में संशोधन कर दिया । उस वक्त विपक्ष कमजोर था लिहाजा वो माहौल नहीं बना पाया । हलांकि जब राजीव गांधी की सरकार ने मानहानि कानून की आड़ में अभिवय्क्ति की आजादी पर अंकुश लगाने की कोशिश की तो मीडिया ने उनको कदम वापस खींचने के लिए मजबूर कर दिया था । लोकतंत्र में सत्तापक्ष की मजबूती कूटनीतिक और रणनीतिक फैसलों के लिए जरूरी होती है । अंतराष्ट्रीय निवेश के लिए किसी भी देश में मजबूत सरकार का होना जरूरी माना जाता है क्योंकि बाजार का स्वभाव है कि वो अनिश्चितता के माहौल में फल फूल नहीं सकता है । इन दिनों जिस तरह से पूरी दुनिया में कूटनीति अर्थ पर आश्रित हो गई है उसके लिहाज से सत्तापक्ष का मजबूत होने से ज्यादा मजबूक दिखना जरूरी है लेकिन स्थानीय राजनीति के लिए सत्तापक्ष का बेलगाम होना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है ।   


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