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Friday, December 30, 2016

चुनौतियों से निबटने का वक्त

नोट बदलने की मियाद खत्म होने के बाद अब पांच सौ और हजार रुपए के नोट सिर्फ रिजर्व बैंक से बदले जा सकेंगे, वो भी अगले वर्ष इकतीस मार्च तक । आठ नवंबर को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी के सरकार के फैसले का एलान किया था तब से लेकर अब तक देशभर में विमर्श की धुरी ये फैसला ही रहा है । नोट बदलने की मियाद खत्म होने के पहले ही इस बात का आंकलन भी शुरू हो गया है कि इससे हासिल क्या हुआ । आठ नवंबर को जब प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का एलान किया था तो उन्होंने तीन बिंदुओं पर जोर दिया था । उनके मुताबिक इस फैसले से भ्रष्टाचार, काला धन और जाली नोट का कारोबार करनेवालों की कमर टूट जाएगी और उनके पास रखे पांच सौ और हजार के नोट महज काजग के टुकड़ों में तब्दील हो जाएंगें । उन्होंने जोर देकर कहा था कि देश में नकदी का अत्यधिक प्रचलन का सीधा संबंध भ्रष्टाचार से है और भ्रष्टाचार के मार्फत कमाई गई नकदी महंगाई को बढ़ाती है जिसकी मार गरीबों को झेलनी पड़ती है । तीसरी महत्वपूर्ण बात जो प्रधानमंत्री मोदी ने कही थी वो ये कि इस फैसले से आतंकवादियों और भारत के खिलाफ गतिविधि चलानेवालों की कमर टूट जाएगी । इन तीन बिंदुओं पर जनता ने प्रधानमंत्री पर भरोसा किया और नकदी की दिक्कतों के बावजूद जनता में व्यापक पैमाने पर नाराजगी देखने को नहीं मिली ।
नोटबंदी के पचास दिन बीत जाने के बाद बैंकों के बाहर लगनेवाली लंबी कतारें छोटी हो गई हैं । लोगों को शुरुआती दिक्कतों से राहत मिलती नजर आ रही है । हलांकि स्थिति सामान्य होने में अभी और वक्त लगेगा । लेकिन क्या इस फैसले के असर को आंकने के लिए बैंकों के आगे लगनेवाली लंबी या फिर छोटी होती कतार आधार बन सकती है । कतई नहीं । यह एक ऐसा फैसला है जिसका असर भी कम से कम छह महीने बाद महसूस किया जा सकेगा । लोगों को होनेवाली दिक्कतों को मुद्दा बनाकर जो लोग सरकार पर हमलावर हो रहे हैं वो खालिस सियासत कर रहे हैं । जनता को होनेवाली दिक्कतों पर चर्चा होनी चाहिए उसको दूर करने के उपायों पर विचार किया जाना चाहिए और सरकार को उन उपायों को संवैधानिक दायरों में लागू करने में किसी भी तरह की कोई हिचक भी नहीं दिखानी चाहिए । संसद में भी ये बहस होती तो बेहतर होता लेकिन विपक्षी दलों और सत्ता पक्ष के शोर-शराबे के बीच पूरा शीतकालीन सत्र धुल गया । नोटबंदी का यह फैसला इतना बड़ा है कि इसपर विचार करते समय देश की अर्थव्यवस्था, बैंकिंग सिस्टम और सिस्टम से बाहर की नकदी को सिस्टम में लाने के फायदों पर विचार करना होगा । जब नोटबंदी का फैसला लागू किया गया था तो एक आंकलन सामने आया था कि पांच सौ और एक हजार के जो नोट चलन में हैं वो करीब साढे पंद्रह लाख करोड़ हैं । एक अनुमान के मुताबिक अबतक अबतक साढे चौदह लाख करोड़ रुपए बैंकिंग सिस्टम में आ चुके हैं । अब इस पर विचार किया जाना चाहिए कि जो धन बैंकिगं सिस्टम में आ गया है वो टैक्स के दायरे में भी आयगा यानि कि जो साढे चौदह लाख करोड़ रुपए बैंकों के पास जमा हुए हैं उसके बारे में आयकर विभाग के पास जानकारी उपलब्ध हो गई है ।
इस आधार पर सरकार की आलोचना की जा रही है कि नोटबंदी करने से बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ और महज लाख पचास हजार करोड़ रुपए का काला धन ही सामने आ पाया है, जिसके लिए सरकार ने पूरे देश को कतार में खड़ा कर दिया । ये वो राशि है जो बैकों में जमा नहीं की गई । यह सही है लेकिन जो पैसे बैकों में जमा हुए हैं और उनपर टैक्स लगाया गया तो सरकारी खजाने में लोकहित में खर्च करने के लिए धन की बढ़ोतरी हो जाएगी । इसके अलावा अगर हम अर्थशास्त्र के लिहाज से बात करें तो रिजर्व बैंक की जिम्मेदारी भी लाख पचास हजार करोड़ कम हो जाएगी क्योंकि वो नोट काजग के टुकड़े हो गए । लेकिन सवाल वही कि क्या क्या इससे कालाधन खत्म हो जाएगा । आम लोगों को यह लग सकता है कि जो पैसा बैंक में आ गया वो काला धन नहीं है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है । लोगों ने अपने काले धन को बैंकों में जमा करवाकर सफेद दिखाने की कोशिश की है लेकिन अभी इसका सही मूल्यांकन होना अभी शेष है । अब आयकर विभाग के लोग इस बात का असेसमेंट करेंगे कि जिन खातों में पैसे जमा हुए हैं उनपर टैक्स दिया गया है या नहीं । लिहाजा इस बात की संभावना है कि इस वर्ष आयकर विभाग ज्यादा टैक्स वसूलने में कामयाब होगा ।
केंद्र सरकार पर एक आरोप यह भी लग रहा है कि इस योजना से कालाधन को रोकने में कोई मदद नहीं मिलेगी क्योंकि उसका स्त्रोत नहीं सूखेगा । इस तरह का आरोप लगाने वाले लोग सामान्यीकरण के दोष के शिकार हो जा रहे हैं । अर्थशास्त्र का एक बहुत ही बुनियादी नियम है कि यहां कोई भी नीति बनाई जाती है तो वो एक खास लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उसको हासिल करना होता है । अर्थशास्त्र में इसको लक्षित सिद्धांत यानि टार्गेटिंग प्रिंसिपुल के नाम से जाना जाता है ।  कालेधन के स्त्रोत को रोकना इस योजना का उद्देश्य था भी नहीं, सरकार की योजना के मुताबिक कालेधन को टैक्स के दायरे में लाना और सरकार को उसके मालिकों के बारे में जानकारी हासिल करना था और पचास दिनों में जिस तरह से बैंकों में पैसे जमा हुए उससे लगता है कि सरकार अपने इस लक्ष्य को हासिल करने में लगभग कामयाब रही है । इस संदर्भ में एक छोटा सा उदाहरण देना काफी होगा। बहुजन समाज पार्टी के खाते में इस पचास दिनों के दौरान सौ करोड़ से ज्यादा की राशि जमा की गई । सरकार को इस राशि के बारे में जानकारी नहीं थी और ना ही राशि बैंकिंग सिस्टम में थी । जमा होने के बाद अब यह राशि सिस्टम का हिस्सा है । इस तरह के कई खाते होंगे जिनमें करोड़ों जमा हुए होंगे । आंकड़ों के मुताबिक बैंकों में करीब तीन सौ फसदी ज्यादा नकदी जमा हुई है । नोटबंदी के पहले बैंकों के पास करीब ढाई लाख रुपए का जमाधन था जो अब बढ़कर 7 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया है । इससे बैंकिंग सिस्टम मजबूत हुआ है ।  

इस नोटबंदी का एक और फायदा दिखाई दे रहा है वह है नक्सलियों की कमर टूटती नजर आ रही है । छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सलियों के पास से करीब सात हजार करोड़ की रकम का पता चला है । इतवनी बड़ी रकम बेकार होने के बाद नक्सलियों को ऑपरेट करने में आर्थिक रूप से बहुत दिक्कत हो रही है । केंद्र सरकार को अनुमान है कि करीब पाचं सौ करोड़ रुपयों के नकली नोट का कारोबार ठप हो गया है । लेकिन यह मान लेना बेमानी होगा कि नोटबंदी से नक्सलियों और आतंकवादियों का सफाया हो जाएगा । नक्सलियों के जो मददगार हैं वो उनको अन्य तरीकों से मदद कर रहे हैं । आतंकवादियों की फंडिंग सीधे तौर पर पाकिस्तान से हो रही है और वो आतंकावादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए फंडिंग का अन्य स्त्रोत ढूंढ लेंगे । इसके अलावा आतंकवादियों के जो स्लीपर सेल सक्रिय हैं वो देश की बैंकिंग सिस्टम से जुड़े हैं उसको पकड़ना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है । देश ने देखा है कि दो हजार आठ में आतंकवादियों को पाकिस्तान ने किस तरह से फंडिंग की थी । सरकार के इस फैसले को लागू करने में बड़ी चुनौतियां अब भी सामने हैं, सामने तो इस योजना को सफल बनाने के लिए और रिफॉर्म की भी जरूरत है ।  

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