भारत
में प्रकाशन जगत को उद्योग का दर्जा प्राप्त नहीं है, बहुधा हमारे हिंदी के
प्रकाशक इस बात को अलग अलग मंचों पर उठाते भी रहते हैं कि प्रकाशन के लिए बैंकों
से ऋण नहीं मिलता है। वहीं दूसरी तरफ कई प्रकाशकों का कहना है कि प्रकाशन जगत
काराबोर नहीं हो सकता है क्योंकि ये उद्यम साहित्य सेवा है और इसमें लेखक-प्रकाशक
परिवार की तरह काम करते हैं। इसका नतीजा यह है कि हिंदी में लगातार नए-नए प्रकाशन
गृहों के खुलने के बावजूद ये इस व्यवसाय में लगभग असंगठित क्षेत्र जैसी स्थिति है।
पिछले कुछ सालों से जब से भारत में विदेशी प्रकाशन गृहों ने अपनी उपस्थिति दर्ज
करवाई है तब से प्रकाशन जगत में भी हलचल शुरू हुई है। विदेशी प्रकाशन गृहों के
आगमन के बाद तकनीक के विस्तार के बाद पारंपरिक तरीके से पुस्तकों के प्रकाशन के
अलावा ई प्लेटफॉर्म पर पुस्तकों के प्रकाशन ने भी इस व्यवसाय को नए आयाम दिए। ई
प्लेटफॉर्म पर पुस्तकों के प्रकाशन की वजह से बाजार की तरह की तरह की संभावनाओं की
तलाश भी की जाने लगी। बाजार की संभावनाओं की तलाश में ही कुछ प्रकाशनगृह पूरी तरह
से बाजार में उतरने के उपक्रम करने लगे हुए हैं। यहां चर्चा सिर्फ उन प्रकाशकों की
हो रही है जिनको साहित्यक पुस्तकों का प्रकाशक माना जाता है। बाजार में उतरने की
हिचक लगभग खत्म सी होने लगी है, बाजार की मांग के अनुरूप कुछ प्रकाशकों ने
पुस्तकों का प्रकाशन शुरू कर दिया है। यह ठीक है उनको अभी उस तरह की स्वीकार्यता
या पहचान नहीं मिली है लेकिन प्रयास को पहचान तो मिली ही है। ये आने वाले समय में
तय होगा कि उनकी इस तरह की पहल कितने लंबे समय तक चलती है और साहित्य जगत में किस
तरह का प्रभाव छोड़ती है। अभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होगा।
पिछले
दिनों एक खबर ने प्रकाशन जगत से जुड़े लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। टेलीकॉम के
क्षेत्र की अग्रणी कंपनी एयरटेल ने डिजीटल प्रकाशक जगरनॉट में हिस्सेदारी खरीदी है
। एयरटेल के जगरनॉट में निवेश के बाद इस तरह की खबर आई कि एयरटेल ने ये निवेश डिजिटल
प्लेटफॉर्म पर स्तरीय कंटेंट और गैर पारंपरिक लेखन को बढ़ावा देने के लिए किया है।
जगरनॉट में पहले भी इंफोसिस से जुड़े नंदन नीलेकणि और बोस्टन कंसलटेंसी ग्रुप के
इंडिया सीईओ नीरज अग्रवाल ने निवेश किया था। तब उस निवेश को व्यक्तिगत निवेश की
तरह देखा गया था, था भी।
जगरनॉट
में एयरटेल का निवेश एक सुखद संकेत की तरह है और इस बात की संभावना बनने लगी है कि
प्रकाशन जगत में भी संस्थागत निवेश हो सकता है। हलांकि इस क्षेत्र से जुड़े लोगों
का कहना है कि एयरटेल ने अपने फोर जी प्लेटफॉर्म पर कंटेंट उपलब्ध करवाने के लिए जगरनॉट
में निवेश किया है । इससे ये हो सकता है कि एयरटेल को अपने पाठकों के लिए कंटेंट
उपलब्ध करवाने और उसपर नजर रखने में मदद होगी। अप्रैल दो हजार सोलह में जगरनॉट लॉंच
हुआ था और इस वक्त डिजिटल प्लेफॉर्म पर उसके एप का करीब दस लाख डाउनलोड हो चुका
है। एंड्रायड और आईओएस दोनों प्लेटफॉर्म पर जगरनॉट मौजूद है। जगरनॉट ने जब हिंदी में अपना एप लॉंच किया था तब
उसपर एक महीने तक साहित्यक कृतियां मुफ्त में उपलब्ध करवाई गई थीं। उस वक्त जगरनॉट
के इस एप पर मौजूद कृतियों को देखकर इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि उनकी
रणनीति क्या होगी।इस निवेश के बाद
जगरनॉट को अपने कंटेंट को बेहतर करने का एक अवसर मिल सकता है।
जगरनॉट, खासतौर पर हिंदी में ज्यादातर उस तरह
की रचनाओं को प्रमुखता दे रहा है जिससे पाठकों को अपनी ओर खींचा जा सके। उन रचनाओं
की स्तरीयता को लेकर बहस हो सकती है। जिस तरह की कहानियां या छोटे उपन्यास जगरनॉट ने अपने इस एप पर
डाले थे उसमें प्रकरांतर से यौन प्रसंगों को प्रमुखता दी गई थी । साहित्यक कृतियों
में रीतिकालीन प्रवृतियों को आधुनिकता के छौंक के साथ प्रस्तुत कर पाठकों की
बांधने की रणनीति थी जो उसके एप को डाउनलोड करवाने में काफी हद तक सफल भी रही। पता
नहीं क्यों इस तरह की स्थिति भारत में खासतौर पर हिंदी में क्यों बन रही है कि
यौनिकता को प्रमुखता देनेवालों को इटरनेट पर पाठक मिलते हैं। यह शोध का एक विषय हो
सकता है।
देश में इंटरनेट के बढ़ते घनत्व ने पाठकों तक पहुंचने का एक बड़ा
अवसर हिंदी के प्रकाशकों और लेखकों को उपलब्ध करवाया है। पिछले एक दशक में देश में
तकनीक का फैलाव काफी तेजी से हुआ है । मोबाइल फोन की क्रांति के बाद देश ने टू जी
से लेकर फोर जी तक का सफर देखा और अब तो फाइव जी की बात होने लगी है। इसका फायदा
उठाने की कोशिशें भी लगातार परवान चढ़ने लगी हैं । इस वक्त कई तरह के एप हैं जहां
से हिंदी साहित्य की पुस्तकें सस्ते में खरीदी और पढ़ी जा सकती हैं। किंडल पर भी
हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं की रचनाएं हैं। हिंदी के कई प्रकाशकों ने बेहद
गंभीरता से ई प्लेटफॉर्म पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई है और लगातार उसको मजबूत कर
रहे हैं।
आज से
करीब पांच साल पहले पहले भी प्रकाशन जगत में इसी तरह की एक प्रमुख घटना घटी थी। विश्व के दो बड़े प्रकाशन संस्थानों- रैंडम हाउस
और पेंग्विन का विलय हुआ था। रैंडम हाउस और पेंग्विन विश्व के छह सबसे बड़े
प्रकाशन संस्थानों में से एक थे । जब दोनों का विलय हुआ था तब यह माना गया था कि अंग्रेजी
पुस्तक व्यवसाय के पच्चीस फीसदी राजस्व पर इनका कब्जा हो जाएगा । अगर हम विश्व के
पुस्तक कारोबार खास कर अंग्रेजी पुस्तकों के कारोबार पर नजर डालें तो इसमें मजबूती
या कंसॉलिडेशन का दौर काफी पहले से शुरू हो गया था । रैंडम हाउस जो कि जर्मनी की
एक मीडिया कंपनी का हिस्सा है उसमें भी पहले नॉफ और पैंथियॉन का विलय हो चुका है ।
उसके अलावा पेंग्विन, जो कि एडुकेशन पब्लिकेशन हाउस
पियरसन का अंग है, ने भी वाइकिंग और ड्यूटन के अलावा अन्य
छोटे छोटे प्रकाशनों गृहों को अपने में समाहित किया था। जब पेंगिवन और रैंडम हाउस
का विलय हुआ था तब अमेरिका के एक अखबार की टिप्पणी ने की थी- रैंडम हाउस और
पेंग्विन में विलय उस तरह की घटना है जब कि एक पति पत्नी अपनी शादी बचाने के लिए
बच्चा पैदा करने का फैसला करते हैं । उस वक्त पुस्तकों के कारोबार से जुड़े
विशेषज्ञों ने माना था कि अमेजॉन और किंडल पर ई पुस्तकों की लगातार बढ़ रही बिक्री
ने पुस्तक विक्रेताओं और प्रकाशकों की नींद उड़ा दी थी। माना गया था कि अमेजॉन के
दबदबे से निबटने के लिए रैंडम हाउस और पेंग्विन ने साथ आने का फैसला लिया था। कारोबार
का एक बेहद आधारभूत सिद्धांत होता है कि किसी भी तरह के आसन्न खतरे से निबटने के
लिए आप अपनी कंपनी का आकार इतना बड़ा कर लें कि प्रतियोगियों को आपसे निबटने में
काफी मुश्किलों का सामना करना पड़े । कारोबार के
जानकारों के मुताबिक आनेवाले वक्त में पुस्तक कारोबार के और भी कंसोलिडेट होने के
आसार हैं । अगर पुस्तकों के कारोबार पर समग्रता से विचार करें तो ई बुक्स की बढ़ती
लोकप्रियता से पारंपरिक प्रकाशन पर असर पड़ सकता है। दरअसल जिन इलाकों में इंटरनेट
का घनत्व बढ़ेगा उन इलाकों में छपी हुई किताबों के प्रति रुझान कम हो सकता है, ऐसा
माना जा रहा है, हलांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि छपी हुई किताबों
का अपना एक महत्व है । पाठकों और किताबों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता होता है ।
किताब पढ़ते वक्त उसके स्पर्श मात्र से एक अलग तरह की अनुभूति होती है
हिंदी
प्रकाशन जगत से जुड़े लोगों को समझना होगा कि भारत में भी इंटरनेट का घनत्व लगातार
बढ़ता जा रहा है और उसके यूजर्स भी । ऐसे में अगर हिंदी प्रकाशन जगत को प्रोफेशनल
तरीके से एक इंडस्ट्री के तौर पर उभरना है तो उसको भी जतन करने होंगे। पाठकों तक
पहुंचने के लिए और अपने पाठकों की संख्या को दर्ज करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से
काम करना होगा। अगर हिंदी प्रकाशन जगत को संस्थागत पूंजी निवेश की दरकार है तो
उसको और व्यवस्थित होना पड़ेगा। आज हिंदी के प्रकाशकों के पास जिस तरह का समृद्ध
कंटेंट हैं, उसको लेकर बाजार में उतरने की जरूरत है। जिस तरह का साहित्य उनके पास
उसको व्यापक पहुंच की जरूरत है और अगर एक बार ये पहुंच बन गई या व्यापक पाठक वर्ग
तक पहुंचने का रास्ता बन गया तो फिर इस कारोबार में निवेश की अपार संभावनाएं हैं।
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