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Monday, December 25, 2017

वर्तमान आलोचना 'आलू-चना'- मेघ

दिसबंर में पूरे देश की निगाहें साहित्य अकादमी सम्मान की घोषणा पर टिकी होती हैं। भारतीय भाषाओं में श्रेष्ठ लेखन के लिए दिया जानेवाला साहित्य अकादमी पुरस्कार देश के सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों में से एक है। हिंदी के लिए इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार 86 वर्ष के लेखक रमेश कुंतल मेघ को उनकी कृति विश्वमिथकसरित्सागर पर दिए जाने की घोषणा की गई है। पुरस्कार की घोषणा के बाद रमेश कुंतल मेघ से अनंत विजय की बातचीत के प्रमुख अंश
प्रश्न- उम्र के इस पड़ाव पर आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। आपकी पहली प्रतिक्रिया।
 मेघ- मैं इस पुरस्कार को सादर स्वीकार करता हूं और अपने पाठकों और साहित्य अकादमी को इसके लिए धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।  
प्र- 11वीं शताब्दी में कश्मीर के सोमदेव भट्ट ने कथासरित्सागर की रचना की थी और ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने रानी को प्रसन्न करने के लिए उसको लिखा था। आपने किसको प्रसन्न करने के लिए विश्वमिथकसरित्सागर की रचना की?
 मेघ- मैंने किसी को प्रसन्न करने के लिए आजतक कुछ नहीं लिखा । मैं विचारों से वामपंथी हूं लेकिन मेरे लेखन के केंद्र में हमेशा से जनता रहती है, जनता के लिए ही साहित्य रचता हूं। अगर किसी को खुश करना होता, तो मैं नेताओं के लिए लिखता और बहुत कुछ पा जाता। मैंने तो देश में वो दौर भी देखा है जब कई क्रांतिकारी हफ्ते में तीन बार पार्टी बदल लेते थे और लाभ पाते थे, मैंने कभी ऐसा नहीं किया।
प्र- आप खुद को विचारों से वामपंथी मानते हैं लेकिन आपने कहा था कि आप आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अकिंचन शिष्य हैं और कार्ल मार्क्स के ध्यान शिष्य। इस संशलिष्टता को कैसे समझा जाए?
मेघ- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानवतावादी थे। उनके ध्यान में हमेशा छोटे से छोटे लोग होते थे, समाज के आखिरी पायदान के लोग होते थे उन्होंने कभी भी उच्चवर्ग को ध्यान में रखकर लेकर कोई बात नहीं की। मैं भी इसको मानता हूं और लोक के हितों को सर्वोपरि मानकर सृजन करता हूं, इस लिहाज से मैं उनका अकिंचन शिष्य हूं। रही मार्क्स के ध्यान शिष्य की बात तो अब तो मार्क्स रहे नहीं तो उनके सिद्धांतों को ही जाना जा सकता है। लेकिन यहां एक बात और आपको बता दूं कि किसी भी धारा में बहकर आप संपूर्णता में व्याख्या नहीं कर सकते। क्या यह संभव है कि विज्ञान और ग्रीको-रसियन दर्शन को एक धारा में बहकर पकड़ा जा सके? हर जगह संस्कृति के तत्व अलग होते हैं।
प्र- आप खुद को आलोचिन्तक कहते हैं, इसके पीछे की सोच क्या है?
मेघ- देखिए मैं हिंदी की वर्तमान आलोचना में से ज्यादातर को आलू-चना कहता हूं। हिंदी में आलोचकों ने आलोचना के केंद्र में साहित्य को ला दिया और अपनी संस्कृति, दर्शन और समाजशास्त्र को हाशिए पर डाल दिया। इस वजह से आलोचना में चिंतन और सांस्कृतिक दर्शन लगभग अनुपस्थित है। मैं जब आलोचना लिखता हूं तो उसका केंद्रीय आधार साहित्य नहीं बल्कि संस्कृति होता है, जिसमें दर्शन भी होता है, समाज भी होता है और चिंतन भी होता है। इस वजह से मैं खुद आलोचिन्तक मानता हूं।
प्र- परंतु हिंदी में तो इस तरह की अवधारणा बिल्कुल नहीं है।
मेघ- दरअसल हमारे यहां हिंदी में लेखन को तुच्छ मानते हैं, सारा कुछ अंग्रेजी में केंद्रित हो गया है। मैंने विदेशों में हिंदी में लिखा तो किसी ने नोटिस ही नहीं लिया। इससे मैंने खुद को अपमानित महसूस किया और तय किया कि भारत में अंग्रेजी में कभी नहीं बोलूंगा, लेकिन वैश्विक मंच पर मजबूरी है अंग्रेजी में बोलने की।
प्र- आपका साहित्य के प्रति रुझान कैसे हुआ, आप तो विज्ञान के छात्र थे।
मेघ- छात्र के तौर पर मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदू हॉस्टल में रहता था। मैं देखता था कि मेरे हॉस्टल के पास से एक सुदर्शन व्यक्तित्व हर रोज खुद से बाते करते हुए गुजरता था। वो काफी देर तक पैदल चलते रहते थे। मैंने किसी से पूछा तो पता चला कि वो शख्स हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला हैं। मैंने एक दिन तय किया कि उनके पीछे पीछे चलूंगा और उनकी बातें सुनूंगा। मैंने ऐसा किया। उनकी बातों को सुनकर लगा कि वो महाकवि ही नहीं बल्कि महामानव हैं।एक दिन मैंने उनके चरणों को छूकर आशीर्वाद लिया। उनके आशीर्वाद ने ही मुझे साहित्य और संस्कृति की ओर प्रेरित किया।
प्र- आपने बिहार, पंजाब, चंडीगढ़ और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया है, आपने कहां खुद को सबसे ज्यादा समृद्ध किया।
मेघ- मैं उत्तर प्रदेश का रहनेवाला हूं और मेरी असली जड़ें इलाहाबाद, लखनऊ और कानपुर में हैं। लेकिन मुझे ये स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि मेरा सांस्कृतिक निर्माण बिहार की धरती से हुआ। बिहार की धरती ने नालंदा और विक्रमशिला जैसे ज्ञान के केंद्र दिए, वहां बुद्ध का प्रभाव रहा है। वहां सांस्कृतिक रूप से इतने समृद्ध व्यक्ति हुए हैं जिनकी सूची बहुत लंबी है। कह सकते हैं कि मेरा सांस्कृतिक चंदोवा वहीं तैयार हुआ। बिहार की संस्कृति से सीखने को बहुत मिला।



   

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