पिछले दिनों भाषा को लेकर दो बहुत अहम खबर आई
जिसपर भारतीय समाज में खासतौर पर हिंदी समाज को चर्चा करने की आवश्यकता है। पहली
खबर आई देश के महत्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली के
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नामांकन के
लिए हुई परीक्षा के लिए हिंदी विभाग में एमफिल और पीएचडी के लिए सात सौ उनचास
परीक्षार्थियों ने आवेदन किया लेकिन जो परिणाम आया वो बेहद चौंकानेवाला था। सात सौ
उनचास अवेदनकर्ताओं से सिर्फ चार ने प्रवेश परीक्षा पास की और उऩको साक्षात्कार के
लिए बुलाया गया । सात सौ उनचास में से सिर्फ चार यानि कि सफल परीक्षार्थियों का
प्रतिशत लगभग आधा है। पूरे देश में जहां हिंदी पढ़ने जानने समझने वालों की संख्या
देश की आधी आबादी से ज्यादा है वहां हिंदी को लेकर इस तरह की खबर हिंदी समाज को
चिंतित करने के लिए काफी हैं। लेकिन इस पर हिंदी समाज से किसी तरह की चिंता व्यक्त
की गई हो ऐसा ज्ञात नहीं हो सका। हमारे देश में हिंदी को लेकर उदासीनता क्यों है,
अगर इसकी पड़ताल करते हैं तो जिस सबसे बड़े यथार्थ से मुठभेड़ होता है वह है हिंदी
का रोजगार की भाषा नहीं बन पाना। इसपर बहुत बातें होती हैं लेकिन इस दिशा में कोई
ठोस काम होता नहीं दिख रहा है। हिंदी के नाम पर खुले विश्वविद्यालयों में जिस तरह
से काम हो रहे हैं वो संतोषजनक नहीं हैं या कह सकते हैं कि नाकाफी हैं। हिंदी को
रोजगार से जोड़ने और साहित्य के अलावा अन्य विधाओ का सृजन हिंदी में नहीं होने पर
भी काफी सालों से बातें हो रही हैं। 1910 में हिंदी साहित्य सम्मेलन में एक
प्रस्ताव पारित हुआ था जिसमें भी हिंदी को लेकर चिंता की गई थी और उसको मजबूत करने
का रोडमैप पेश किया गया था। कालांतर में साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन में भी
पुरुषोत्तमदास टंडन के प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी जिसमें हिंदी को बढ़ाने के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी
विषयों की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाने पर जोर दिया गया था। प्रस्ताव
पर चर्चा हुई थी और सबों की राय समान थी कि हिंदी को विस्तार देने और उसको मजबूती
देने के लिए यह कार्य प्रारंभ करना होगा। आजादी के बाद इस दिशा में जो भी प्रयत्न
हुए वो नाकाफी रहे। सरकार और संस्थागत स्तर पर अगर इस तरह के काम हुए भी तो बहुत
कम थे। अंग्रेजी का दबदबा बना रहा जो आजतक कायम है। नब्बे के दशक में जब हमारे देश
में अर्थव्यवस्था खुलने लगी उस वक्त भी अगर हिंदी को लेकर कोशिश की गई होती तो आज
स्थिति बेहतर हो सकती थी। शायद बाजार के दबाव में कुछ हो पाता। दरअसल आजादी के बाद
कई सालों तक कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलने पर जोर रहा। शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर
बढ़ाने और हिंदी को उसमें मजबूती से स्थापित करने का उपक्रम गंभीरता से नहीं किया
गया। कॉलेज और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को हिंदी में शोध करने,हिंदी में
छात्रों से संवाद करने, हिंदी में शोध पत्र प्रस्तुत करने के लिए जितने प्रोत्साहन की जरूरत थी उतना हो नहीं सका। शिक्षकों
ने भी अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझा। नतीजा यह हुआ कि हिंदी को लेकर छात्रों
में भी उदासीनता बढ़ती चली गई। हालात इतने बुरे होते चले गए कि कई कॉलेजों में
हिंदी के छात्रों की संख्या शिक्षकों से कम रह गई । छात्र आ जाएं तो कक्षा लगती थी
वर्ना शिक्षकों के पास कोई काम नहीं होता था। स्थिति बद से बदतर होती चली गई और
छात्रों की पीढ़ी दर पीढ़ी हिंदी से विमुख होती गईं। आज अगर जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय में इस तरह के हालात पैदा हो रहे हैं तो वो वर्षों की लापरवाही और
गलत नीतियों का परिणाम है।
दूसरी खबर आई नागपुर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि
सभा की बैठक से। 9 से 11 मार्च तक चली इस प्रतिनिधि सभा में भाषा को लेकर एक
महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया गया जिसमें भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की
आवश्यकता पर जोर दिया गया। सभा का मत था कि ‘भाषा
किसी भी व्यक्ति एवं समाज की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण घटक तथा उसकी संस्कृति की
सजीव संवाहिका होती है। देश में प्रचलित विविध भाषाएं व बोलियां हमारी संस्कृति, उदात्त
परंपराओं, उत्कृष्ट ज्ञान एवं विपुल साहित्य को अक्षुण्ण
बनाये रखने के साथ ही वैचारिक नवसृजन हेतु भी परम आवश्यक हैं…आज विविध भारतीय भाषाओं व बोलियों के
चलन तथा उपयोग में आ रही कमी, उनके शब्दों का
विलोपन व विदेशी भाषाओं के शब्दों से प्रतिस्थापन एक गम्भीर चुनौती बन कर उभर रहा
है।‘ भाषा के
संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकारों, नीति निर्धारकों और स्वयंसेवी संगठनों से
प्रयास करने की अपील की गई। अपील में कहा गया है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा या
अन्य भारतीय भाषा हो, सरकारें इस दिशा में उचित नीतियों का निर्माण कर आवश्यक
प्रावधान करे। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकारें आरएसएस की प्रतिनिधि सभा की
अपील पर ध्यान देंगी और इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाएंगी।
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की
प्रतिनिधि सभा में तकनीकी और आयुर्विज्ञान सहित उच्च शिक्षा के लिए शिक्षण
सामग्री, पाठ्य सामग्री और परीक्षा का विकल्प भारतीय भाषाओं में सुलभ करवायया जाए।
यह एक ऐसा काम है जो सरकारों से गंभीरता की अपेक्षा करती है। इसके लिए एनसीईआरटी
से लेकर राज्य सरकारों को भी पहल करनी होगी। अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी को भी
इसका लाभ होगा और वो रोजगार से जुड़ने की दिशा में अग्रसर हो सकती है। इसके अलावा
इस प्रस्ताव में शासकीय और न्यायिक कार्य में भी
भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात की कही गई है, अंग्रेजी पर भारतीय भाषा
को तरजीह देने की अपेक्षा की गई है। नाटकों,लोककलाओं आदि के प्रोत्साहन की बात कही
गई है जो कि अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय भाषाओं को मजबूत करेगी। आखिर में कहा गया है
कि – ‘प्रतिनिधि सभा सरकारों, स्वैच्छिक
संगठनों, जनसंचार माध्यमों, पंथ-संप्रदायों
के संगठनों, शिक्षण संस्थाओं तथा प्रबुद्धवर्ग सहित संपूर्ण
समाज से आवाहन करती है कि हमारे दैनन्दिन जीवन में भारतीय भाषाओं के उपयोग एवं
उनके व्याकरण, शब्द चयन और लिपि में परिशुद्धता सुनिश्चित करते
हुये उनके संवर्द्धन का हर सम्भव प्रयास करें।‘ यह एक
महत्वपूर्ण प्रस्ताव है जिसपर गंभीरता से राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए थी। सरकारों
को आगे आकर इस दिशा में काम को आगे बढ़ाने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना था। समाज
में इसपर बहस होनी चाहिए।
बौद्धिक
वर्ग के एक खास विचारधारा वाले लोगों से प्रतिनिधि सभा के इस प्रस्ताव पर बहुत
उत्साह की अपेक्षा मुझे नहीं है क्योंकि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रस्ताव
है । आरएसएस के नाम से ही उनमें एक उदासीनता का भाव व्याप्त हो जाता है । प्रस्ताव
चाहे लाख अच्छा हो, उससे समाज और देश का भला हो रहा हो, भाषा मजबूत हो रही हो, लेकिन
अगर उसमें आरएसएस का नाम जुड़ गया है तो उसको प्रयासपूर्वक हाशिए पर डालने की
कोशिश होती रही है, आगे भी होती रहेगी। लेकिन अगर हम चाहते हैं कि जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय जैसी स्थिति नहीं आए तो राजनीति और विचारधारा को छोड़कर हमें अपनी
भाषा को मजबूत करने के लिए एकजुट होना पड़ेगा। उसको एक मुहिम के तौर पर चलाना
होगा, देश की सभी राज्य सरकारों को आगे बढ़कर भाषा को मजबूती देने का काम करना
होगा। इसके अलावा हिंदी के लोगों को उस षड़यंत्रकारी सिद्धांत को भी निगेट करना
होगा जिसमें सालों से ये प्रचारित किया जाता रहा है कि हिंदी मजबूत होगी तो वो
अन्य भारतीय भाषाओं को कमजोर कर देगी। यह एक दुश्प्रचार है क्योंकि अगर हिंदी
मजबूत होती है, उसका विस्तार होता है तो स्वाभाविक रूप से सभी भारतीय भाषाएं मजूबत
होंगी। अन्य भाषाओं के साहित्य को हिंदी का विशाल पाठक वर्ग मिलेगा। पिछले दिनों
पूर्वोत्तर के कई लेखकों ने इस बात को स्वीकारा कि हिंदी में उनकी कृतियों के अनुवाद
होने से उनको लाभ हुआ और उनको अखिल भारतीय पहचान मिली। इस तरह की बातों को लगातार
प्रचारित करना होगा, गोष्ठियों सेमिनारों में हिंदी के लोगों को जोर देकर अपना
पक्ष रखना होगा। दिनकर ने भी कभी कहा था कि हिंदी को पूरे देश में उसी तरह से लागू
किया जाना चाहिए जिस तरह कि अन्य भारतीय भाषा के लोग चाहते हैं। दिनकर की इस राय
को ही मूलमंत्र मानते हुए सभी भारतीय भाषाओं को एकजुट होना होगा और इन भाषाओं के
उपयोगकर्ताओं को भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा कि हमें हमारी भाषा में काम करने
का माहौल दो। लोकतंत्र में लोक का दबाव सर्वापरि होता है, इसको समझना होगा।
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