पिछले साल के शुरुआत की बात है, सीरीफोर्ट
ऑडिटोरियम में वडाली ब्रदर्स का परफॉर्मेंस था। संगीत रसज्ञ कुछ मित्रों के साथ
मैं भी वहां गया था लेकिन इस शर्त पर कि हमें पांच दस मिनट वडावी बंधुओं से बात करने
का मौका मिलेगा। मैं बड़े कलाकारों से मिलता हूं तो उनके संघर्षों के बारे में
जानने की चाहत होती है। जब आयोजकों में से एक ने उनसे हमारा परिचय करवाया और कहा
कि ये बात करना चाहते हैं तो वो फौरन तैयार हो गए। वडाली बंधुओं से दस मिनट की
मुलाकात हुई। हमारी उस मुलाकात में छोटे भाई प्यारेलाल वडाली कम ही बोले लेकिन
उन्होंने बड़े भाई पूरण चंद से चुटकी ली। प्यारेलाल जी ने बताया था कि एक बार
दोनों भाई दिल्ली आए थे तो कुछ लोग उनसे मिले और अनुरोध किया कि वो अपने कैसेट
बनवा लें। वो कैसेट पर गाने और संगीत सुनने का दौर था। प्यारे लाल जी ने बेहद
शरारतपूर्ण मुस्कुराहट के साथ बड़े भाई की ओर देखा और कहा कि इन्होंने साफ मना कर
दिया और कहा कि कैसेट बन जाएगा तो उनको सुनने कौन आएगा। हलांकि बाद में वो रिकॉर्डिंग
के लिए तैयार हुए और उनके कैसेट्स खूब लोकप्रिय हुए। इसी तरह से जब मैंने पूरण चंद
जी से उनके शुरुआती दिनों के बारे में पूछा तो वो बताने ही वाले थे कि प्यारे लाल
जी ने कहा कि इनको तो शुरू में कोई गायक समझता ही नहीं था। बड़ी मूंछों की वजह से लोग
या तो इनको पहलवान समझते थे या फिर ड्राइवर। दोनों भाइयों से बात करते हुए यह
एहसास तो हो ही गया कि उनकी बॉडिंग जबरदस्त है। उस दिन पूरण चंद जी को चलने में
तकलीफ हो रही थी तो प्यारेलाल जी उऩका हाथ पकड़कर स्टेज की ओर ले गए।
पूरणचंद जी ने पहले गाना शुरू किया था और
बाद में उन्होंने प्यारेलाल वडाली जी को अपने साथ जोड़ा था। बड़े भाई ने अपने पिता
और पंडित दुर्गादास से गायकी के गुर सीखे थे। प्यारे लाल जी बताते थे कि कई बार
पूरण चंद जी के साथ गाते हुए वो बड़े भाई की रुहानी आवाज में इतना डूब जाते थे कि खुद
गाना भूल जाते थे। उनको इस बात का अफसोस था कि कव्वाली गाने वाले कुछ गायक उनके
धर्म के आधार पर उनकी गायकी को खारिज रहे । ये दर्द उन्होंने सिरीफोर्ट परिसर में
हुई बातचीत में भी साझा किया था। बावजूद इसके उन्होंने कव्वाली गाना नहीं छोडा और
उसको अपनी आवाज से समृद्ध किया। वडाली बंधुओं का ये प्यारा साथ टूट गया। प्यारे
लाल जी के निधन से सूफी संगीत का एक कोना सूना सा हो गया है।
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