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Saturday, July 13, 2019

फूहड़ता की चपेट में व्यंग्य लेखन


कुछ वर्ष पहले की बात है, शायद 2017 की, जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी के सर्वाधिक समादृत लेखकों में से एक नरेन्द्र कोहली जी का साक्षात्कार का अवसर मिला था। वो साक्षात्कार कोहली जी के समग्र लेखन पर था, लिहाजा मुझे ये छूट मिल गई थी कि मैं प्रश्नों को अपने मन मुताबिक बना सकूं। उनके बातचीत करने के पहले लगभग सप्ताह भर मैंने उनके लेखन को लेकर शोद किया था, उनके लेख आदि पढ़े थे। लगभग घंटे भर के उस साक्षात्कार में मैने उनसे बेहद संकोच के साथ पहला प्रश्न किया था। प्रश्न उनके व्यंग्य लेखन से जुड़ा था। मैंने जानना चाहा था कि जब दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उनके जुड़वां बच्चों में से एक की मृत्यु हो गई थी, वो और उनका पूरा परिवार अवसादग्रस्त था तो ऐसे में उन्होंने व्यंग्य लेखन की शुरूआत कैसे की। कोहली जी ने तब कहा था कि जब मेरा बच्चा बीमार हो, अस्पताल में डॉक्टर उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहे हों, अस्पताल में प्रधानमंत्री आ जाए और आप अंदर घुस नहीं सकते हो और आपका बच्चा मरनेवाला हो तो उस समय जो मन में कड़वाहट होती है, जो आक्रोश होता है, जो कटाक्ष है वो सिवाए व्यंग्य के कहां प्रकट हो सकता है। अस्पताल के प्रति, सिस्टम के प्रति, प्रधानमंत्री के प्रति कटुता तो व्यंग्य में ही आएगी, इसलिए मैंने वहीं से व्यंग्य लिखना शुरू किया। एक स्थिति कोहली जी की है जहां सिस्टम के खिलाफ उनका आक्रोश उनकी व्यंग्य रचनाओं में आता है। एक दूसरी आज के व्यंग्य लेखन का परिदृष्य है, जहां आपको सिस्टम के खिलाफ आक्रोश लगभग नहीं के बराबर दिखता है। व्यंग्य के नाम पर जिस तरह की फूहड़ता देखने को मिल रही है वो इस विधा के होने पर ही सवाल खड़े कर रही है। व्यंग्य लेखन और चुटकुला लेखन का भेद लगभग मिट गया है। ज्यादातर व्यंग्य लेखक फूहड़ता और चुटकुलेबाजी में इस कदर लीन हैं कि उनको इस बात का भान ही नहीं हो रहा है कि वो हिंदी की एक विधा का आधारभूक स्वभाव ही बदल दे रहे हैं। यह गहन शोध की मांग करता है कि व्यंग्य लेखन कब और किन परिस्थितियों में चुटकुला लेखन बन गया। हास्य और व्यंग्य के बीच एक बहुत ही बारीक रेखा हुआ करती थी लेकिन ये बारीक रेखा कब और कैसे मिट गई इसपर विचार करना होगा। पहले हास्य और व्यंग्य कहा जाता था लेकिन धीरे-धीरे हास्य-व्यंग्य हो गया। अब ये सायास हुआ या अनायास, इसपर व्यंग्य विधा से जुड़े लेखकों को और फिर आलोचकों को विचार करना चाहिए। मंथन होगा तो उससे कुछ सूत्र निकल कर सामने आएंगें।
हम अगर इसर विचार करें तो यह पाते हैं कि व्यंग्य लेखन में फूहड़ता का प्रवेश इसके सार्वजनिक मंचन या वाचन से मजबूती पाता है। व्यंग्य के नाम पर इस मंच से इस तरह की रचनाओं का वाचन होता है जो इसको हास्य या चुटकला बना देता है। मंचीय व्यंग्यकारों के सामने ये चुनौती होती है कि वो श्रोताओं को बांधकर रखें। श्रोताओं को बांधकर रखने का दबाव और लेखक की फौरन लोकप्रिय होने की चाहत उसको फूहड़ता की ओर ले जाती है। व्यंग्य के नाम पर फूहड़ता की इस विधा का विकास कालांतर में स्टैंडअप कॉमेडी के लोकप्रिय होते जाने से भी हुआ। जिस तरह की भाषा और जिस तरह की जुमलेबाजी कॉमेडियन करते हैं वो कभी-कभी तो बेहद अश्लील या द्विअर्थी होती है । मंचन का आयोजन करनेवालों को इसका एक फायदा यह मिलता है कि दर्शकों को मजा आता है और दर्शक उनको सुनने के लिए रुके रहते हैं। हाल के दिनों में इस तरह के स्टैंडअप कलाकारों को यूट्यूब पर जिस तरह की सफलता मिल रही है वो भी व्यंग्य विधा के सामने एक चुनौती की तरह खड़ी है। व्यंग्य जब लेखन से उठकर मंचन तक पहुंचा तो उसमें ह्रास दिखाई दिया। अब उससे आगे जाकर जब टीवी पर शोज होने लगे तो इसमें और भी गिरावट या मिलावट देखने को मिली। इनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपनी लोकप्रियता को बनाए रखने की होती है। पिछले दो तीन सालों से कमेडी शोज का जोर समाज में बढ़ा है, इनके दर्शक बढ़े हैं। । इन कॉमेडी शोज की बदौलत ही मनोरंजन की दुनिया को कपिल शर्मा और सुनील ग्रोवर जैसा स्टार मिला। इन्हीं कमेडी शोज में एक और प्रवृत्ति देखने को मिली। वो प्रवृत्ति है कि पुरुषों को महिला के किरदार में पेश करने की। कपिल शर्मा के शो में तो सुनील ग्रोवर,किक्कू शारदा और अली असगर को महिला पात्रों के तौर पर पेश किया जाता है। अब इसपर विचार किया जाए कि क्यों पुरुषों को महिलाओं के तौर पर पेश किया जाता है? इसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है? क्या इनके माध्यम से फूहड़ता को पेश करने में निर्माताओं को सहूलियत होती है? क्या इनके मुंह से अश्लील या फिर द्विअर्थी बातें कहवाने से आसोचना से बचा जा सकता है? अगर इन शोज के कई एपिसोड को देखें तो कुछ ऐसा ही लगता है। जिस तरह से महिला पात्र बने ये पुरुष शोज पर आनेवाली महिलाओं से बात करते हैं या इनकी जो अदाएं होती हैं वो कोई अभिनेत्री निभाती तो उसपर आपत्ति हो सकती थीं। जिस तरह से ये पात्र पुरुष और महिला मेहमानों को आलिंगबद्ध करते हैं या फिर उनके साथ फ्लर्ट करते हैं उसमें सब कुछ छुप सा जाता है। महिला बनी अभिनेताओं की आड़ में इस ओर किसी का ध्यान जाता ही नहीं। इन कॉमेडी शोज में जिस तरह से इन चरित्रों के माध्यम से महिलाओं का व्यवहार दर्शकों के सामने पेश किया जाता है, जिस तरह से इनके चरित्र का चित्रण होता है उसपर किसी महिला संगठन ने आज तक आपत्ति जताई हो ये ज्ञात नहीं हो सका है। महिला अधिकारों का झंडा-डंडा लेकर चलनेवाली एक्टिविस्टों ने भी कभी महिलाओं के इस तरह के चित्रण पर आपत्ति नहीं उठाई। क्या ये माना जाए कि महिलाओं के इस पुरुषोचित चित्रण पर उनका ध्यान नहीं गया या फिर वो जानबूझकर खामोश हैं। इस तरह के पात्रों की लोकप्रियता से कितना नुकसान होता है इसपर ध्यान देने की जरूरत है। तर्क यह दिया जा सकता है कि हमारे लोक में इस तरह की रीति पहले से चली आ रही है। बिहार और पूर्व उत्त्कर प्रदेश के कुछ इलाकों में लड़कों के लड़कियों का वेश धरकर नाचने-गाने का प्रचलन काफी पुराना है। कई पुस्तकों में भी इस तरह के चरित्रों का उल्लेख मिलता है। बिहार के एक मुख्यमंत्री को इस तरह के पात्रों का नृत्य बहुत पसंद आता था। उनकी रैली से लेकर उनकी सभा तक में इनका नृत्य होता ही था। खैर ये एक अलग प्रसंग है जिसपर कभी विस्तार से चर्चा होगी। हम बात कर रहे थे कि व्यंग्य विधा के चुटकुले में तब्दील हो जाने की।
विधागत ह्रास की यह प्रवृत्ति बेहद चिंता की बात है। उपरोक्त कुछ वजहों के अलावा भी इसके अन्य कारण हैं जो व्यंग्य की पहचान खत्म कर रहे हैं। जिस तरह का व्यंग्य लेखन इन दिनों हो रहा है और गंभीर व्यंग्यकार उसको ना केवल देख रहे हैं बल्कि बढ़ावा दे रहे हैं वो भी बहुत हद तक व्यंग्य विधा के लिए नुकसानदायक ही है। व्यंग्य को हास्य बना देने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि इसके आलोचक भी धीरे-धीरे कम होते चले गए। व्यंग्य आलोचना के नाम पर एक तीन-चार नाम ही याद आते हैं। उनमें से भी कुछ तो बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहने के लिए जाने जाते हैं। बिगाड़ का जो डर है न वो भी एक बहुत महत्वपूर्ण कारक है। यह प्रवृत्ति अन्य विधाओं में भी उपस्थित है लेकिन व्यंग्य के आलोचकों के बीच बहुत मजबूती के साथ इसकी उपस्थिति व्यंग्य को सही रास्ते पर आने की राह में बाधा बनकर खड़ी हो जा रही है। कहानी, कविता, उपन्यास में भी आलोचक कम हो गए हैं लेकिन अब भी वहां कुछ लोग ऐसे हैं बचे हैं जिन्हें बिगाड़ का डर नहीं लगता और वो सच्ची बात कहने में हिचकते नहीं हैं। इसका एक फायदा यह होता है कि लेखक सतर्क रहते हैं और हल्का-फुल्का लिखने के पहले उनके मन में ये चलता रहता है कि उनकी रचनाओं को आलोचना की कसौटी पर कसा जाएगा। व्यंग्य लेखकों के चेतन या अवचेतन मन में ये नहीं चलता होगा क्योंकि वहां इस तरह की परंपरा बची नहीं कि कोई उनकी रचनाओं को आलोचना की कसौटी पर कसेगा। उनके लिए तो फेसबुक पर चंद लाइक्स, किसी गोष्ठी में चंद तालियां और किसी कॉमेडी शो में वाह-वाह की गूंज ही काफी है। आज इस बात की जरूत है कि व्यंग्य विधा से जुड़े लोग इन कारणों पर मंथन करे, साहित्य समाज में इसपर चर्चा हो और इस विधा को फूहड़ता से बताने का कोई रास्ता तलाशा जाए।  
      

1 comment:

pritpalkaur said...

बेहतरीन लेख है व्यंग्य लेखन पर. बेहद ज़रूरी भी. व्यंग्य की परम्परा अपनी लीक से हट कर अनजान दिशा की ओर बढ़ गयी लगती है.