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Saturday, August 24, 2019

बहिष्कार से नहीं संवाद से बनेगी बात


लगभग एक पखवाड़े पहले पटना में रहनेवाले हिंदी के उपन्यासकार रत्नेश्वर ने फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी, इस समय हिन्दी के कई सुपर हिट गीत लिखने वाले मनोज मुंतशिर के साथ एक शाम। मनोज मुंतशिर ने तेरी गालियां से लेकर तेरे संग यारा, ‘मेरे रश्के-कमर आदि अनेक लोकप्रिय गीत लिखे हैं। इनके गीत अभी क्या हिन्दी और क्या अहिन्दी सबकी जुबान पर चढ़े हुए हैं। कलम श्रृंखला के अंतर्गत चाणक्य होटल में मनोज मुंतशिर मुखातिब थे। कार्यक्रम खत्म होने के बाद कार्यक्रम संयोजक एवं संचालिका अन्विता प्रधान मेरे पास आईं और मुझे धन्यवाद देते हुए कहा- 'आपका धन्यवाद कि आप आए। अन्यथा हिन्दी के एक भी प्रतिष्ठित लेखक का नहीं आना खटकता। अब सवाल यह है कि हिन्दी का ढिंढोरा पीटने वाले, हिन्दी से यश पाने वाले, हिन्दी का पुरस्कार लेनेवाले स्वनामधन्य लेखक इसमें शामिल क्यों नहीं हुए! हिन्दी के गंभीर लेखक हिन्दी सिनेमा को स्तरहीन मानते हैं और उसे अपने साहित्य के बराबर का दर्जा नहीं देते। यह आज से नहीं हमेशा से है। जिस सिनेमा ने हिन्दी को हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं अहिन्दी आमजन तक पहुंचाने में जबरदस्त भूमिका निभाई। वह हमारे लिए अछूत जैसा क्यों है? हिन्दी के गंभीर लेखकों का अपना महत्त्व है पर भाषा को जन-जन तक पहुंचाने का काम हिन्दी सिनेमा ने उनसे कहीं ज्यादा किया है। अन्यथा संस्कृत के तो एक-से-एक प्रकांड विद्वान हमारे बीच रहे हैं पर वह क्यों आमजन के बीच सिर्फ मंत्रों में सिमट कर रह गई। हिन्दी की सर्वमान्य समृद्धि चाहिए तो सबको समान दर्जा देना ही होगा। अहिन्दी भाषियों की टूटी फूटी हिन्दी के उपहास से भी बचना होगा। अन्यथा ढोल पीटते रह जाएंगे और हिन्दी संस्कृत की राह चल पड़ेगी। रत्नेश्वर की टिप्पणी के उत्तरार्ध से असहमि होते हुए मुझे लगा कि फिल्म को लेकर तथाकथित गंभीर साहित्याकारों के मन में जो उपेक्षा भाव की बात उन्होंने की है उसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है। पटना के कथित गंभीर साहित्यकारों की कलम कार्यक्रम में अनुपस्थिति की रत्नेश्वर की टिप्पणी का वरिष्ठ लेखिका उषाकिरण खान ने प्रतिवाद किया। ठीक किया, लेकिन कलम के हर कार्यक्रम में जिनकी आवश्यक उपस्थिति होती है उन सभी का ना होना रत्नेश्वर की आशंका को पुष्ट ही करता है। मनोज मुंतशिर हमारे दौर के महत्वपूर्ण कवि-गीतकार हैं। उनकी कविताओं का संग्रह जागरण बेस्टसेलर की सूची में शामिल हो चुका है। उनके गीत तो लोकप्रिय होते ही हैं। उनके कार्यक्रम में पटना के कथित गंभीर साहित्यकारों का ना आना साहित्यकारों के अहंकार को भी दर्शाता है। ये ऐसा अहंकार है जो आपको अघोषित बहिष्कार करने के लिए बाध्य करता है। जब आप किसी का बहिष्कार करते हैं तो आप संवाद बाधित करते हैं। संवाद बाधित होने से लोकतंत्र कमजोर होता है। लेकिन विचारधारा विशेष के लेखकों को लोकतंत्र से क्या देना वो तो विदेशों में बैठे अपने आकाओं के इशारे पर साहित्यिक कदमों को भी तय करते हैं। यह अलग बात है कि अब उनके विदेशी आका थोड़े कमजोर हो गए हैं और दिशा निर्देश के साथ धन नहीं भेज पाते हैं तो उनके समर्थक थोड़े उदासीन हो गए हैं। लेकिन अंग्रेजी की एक कहावत है न कि पुरानी आदतें देर से जाती हैं, तो ये भी अबतर पुरानी आदतों से उबर नहीं पाए हैं। मनोज मुंतशिर के कार्यक्रम को लेकर पटना के साहित्यकारों की उदासीनता खेदजनक है। खास तौर पर उन लेखकों की उदासीनता जो बिना नागा कलम के कार्यक्रम में उपस्थित रहते थे। इस तरह की कई टिप्पणी रत्नेश्वर के पोस्ट पर भी है।
आजकल वामपंथियों के प्रिय लेखक अशोक वाजपेयी भी फिल्मों पर या फिल्मी शख्सियतों पर लेखन को दोयम दर्जे का ही मानते रहे हैं, कुमार शाहनी जैसे फिल्मकारों को छोड़कर ।एक सम्मान समारोह में उन्होंने लता पर लिखी किताब के बारे में बेहद हल्की टिप्पणी की थी। यह एक प्रकार का आभिजात्य भी है। एक बार अशोक वाजपेयी ने ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह में अमिताभ बच्चन को बुलाने को लेकर भी तंज किया था। तब भी खासा विवाद हुआ था। लेकिन अशोक वाजपेयी यह भूल जाते हैं कि अमिताभ बच्चन का अभिनय कला में तो अप्रतिम योगदान है ही हिंदी के प्रचार प्रसार में भी वो किसी भी साहित्यकार से अधिक योगदान कर रहे हैं। अमिताभ बच्चन इस बात पर जोर देते हैं कि उनको स्क्रिप्ट देवनागरी में दी जाए जबकि बॉलीवुड में ज्यादातर स्क्रिप्ट रोमन में लिखी जाती हैं। इसी तरह से भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में अमिताभ को बुलाए जाने पर हिंदी के लेखकों ने बहुत अनाप शनाप लिखा था। सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय एक अध्यापक-लेखक ने उस समय लिखा था कि- हिंदी साहित्य में अभिनेता अमिताभ बच्चन के योगदान के बारे में गूगल से लेकर राष्ट्रीय पुस्तकालय तक पर कहीं कोई रचना नहीं मिलेगी । इसके बावजूद उनको मोदी सरकार ने दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन सत्र में आमंत्रित किया ।यह संकेत है कि मोदी जी की निष्ठा साहित्य में नहीं मुंबईया सिनेमा में है। अब इतने विद्वान लेखक को क्या बताया जाए कि ये विश्व हिंदी साहित्य सम्मेलन नहीं था । मैं यह मानकर चलता हूं कि उनको इतना तो ज्ञान होगा ही कि साहित्य और भाषा में थोड़ा फर्क तो है । रही बात अमिताभ बच्चन के हिंदी साहित्य में योगदान की तो ना तो अमिताभ बच्चन ने और ना ही उस वक्त की सरकार ने कभी ये दावा किया था कि बच्चन साहब बड़े साहित्यकार हैं । पर हिंदी के प्रचार प्रसार को लेकर अमिताभ के प्रयास सराहनीय है । वयोवृद्ध फिल्मी गीतकार गुलजार की भी यही पीड़ा है कि हिंदी साहित्य जगत के कथित गंभीर आलोचक और कवि उनको कवि नहीं मानते। गुलजार की ये पीड़ा तो कई बार सार्वजनिक रूप से झलक भी जाती है। दरअसल ये हिंदी के इस तरह के लेखक ये समझ नहीं पा रहे हैं कि हिंदी फिल्मों और टेलीविजन सीरियलों ने उनकी भाषा को कितना विस्तार दिया। मुझे याद है कि 2012 में जोहिनसबर्ग में विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ था। जोहिनसबर्ग में जिस टैक्सी से हमलोग एयरपोर्ट से होटल जा रहे थे उसका ड्राइवर वहां के लोकल एफएम चैनल लोटस पर हिंदी के गाने सुन रहा था। जब मैंने उन, पूछा कि क्या वो हिंदी गाने सनझते हैं तो उसने अंग्रेजी में उत्तर दिया था कि वी डोंट अंडरस्टैंड हिंदी बट वी एंजॉय हिंदी सांग्स। कोई भी भाषा जब किसी दूसरी भाषा के लोगों को आनंद देने लगे तो समझिए कि उस भा। की संप्रेषणीयता अपने उरूज पर है। विष्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मॉरिशस के उस वक्त के कला और संस्कृति मंत्री चुन्नी रामप्रकाश ने भी ये माना था कि हिंदी के प्रचार प्रसार में बॉलीवुड फिल्में और टीवी पर चलनेवाले हिंदी सीरियल्स का बड़ा योगदान है। उन्होंने सभा को हिंदी में संबोधित कर मजमा तो लूटा ही था, वहां मौजूद सभी लोगों का दिल भी जीत लिया था। चुन्नी रामप्रकाश ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया था कि उनकी जितनी भी दक्षता हिंदी में है वो हिंदी फिल्मों और टीवी की बदौलत। लेकिन हिंदी के कथित गंभीर साहित्यकार इस बात को कभी नहीं मानते। उनका तो तर्क ये होता है कि हिंदी सीरियल्स और सिनेमा में उपयोग में लाई जानेवाली भाषा हिंदी का नाश कर रही है। इस तरह की धारणा हिंदी की सबसे बड़ी शत्रु है।
हिंदी सिनेमा एक गंभीर विधा है और सिनेमा पर लेखन रचनात्मक साहित्य की श्रेणी में आता है। सिनेमा के लिए लिखनेवाले भी उतना ही महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं जितना कथित तौर पर गंभीरता से उपन्यास या कविता लिखने वाले हिंदी के लेखक या कवि। हिंदी के प्रचार प्रसार में फिल्मों का बहुत योगदान है । दरअसल फिल्मी कलाकारों को लेकर हिंदी के वामपंथी लेखक कभी संजीदा नहीं रहे । फिल्म वालों को बुर्जुआ संस्कृति का पोषक मानकर उनकी लगातार उपेक्षा की जाती रही । हिंदी फिल्मों के बड़े से बड़े गीतकार को हिंदी का कवि नहीं माना गया जबकि विचारधारा का झंडा उठाकर घूमनेवाले औसत कवियों को महान घोषित कर दिया गया । मनोज मुंतशिर के कार्यक्रम में कथित गंभीर साहित्यकारों का नहीं आना इसी मानसिकता का प्रकटीकरण था। आज जरूरत इस बात की है कि वामपंथी विचारधारा के लेखकों को किसी को भी अस्पृश्य मानने की अपनी मानसिकता से बाहर निकलें, हर तरह की विधा को महत्व दें और हर तरह की विचारधारा के साथ संवाद करें। अस्पृश्यता के सिद्धांत को अपनाकर वामपंथियों ने अबतक अपना बहुत नुकसान कर लिया है और अगर वक्त रहते नहीं चेते तो नुकसान भी नदी के कटान की तरह तेजी से उनकी बची-खुची जमीन को लील जाएगा।

2 comments:

S.K MISHRA said...

बिल्कुल सही, जब हम ऐसे प्रदेश में जाते हैं जो हिंदी कम बोलते हैं फिर भी हमलोग एक दूसरे से संवाद कर लेते हैं इसका मूलत कारण है बालीवुड

Anonymous said...

Greetings! Verry սseful advice in thіs particular post!
It's the little changes that make the most siցnificant changes.
Thanks foг sharing!