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Saturday, January 18, 2020

रणनीतिक चूक से असफल हुई फिल्म


अजय देवगन की फिल्म तान्हाजी ने एक बार फिर से ये साबित किया कि दर्शकों की अपने ऐतिहासिक चरित्रों में खासी रुचि है। ये फिल्म रिलीज के पहले ही सप्ताह में सौ करोड़ के कारोबारी आंकड़ें को पार करके अपनी सफलता का परचम लहरा चुकी है। जबकि इसके साथ ही दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक भी रिलीज हुई थी जिसको मेघना गुलजार जैसी मशहूर शख्सियत ने निर्देशित किया था। अपनी फिल्म की रिलीज के पहले दीपिका ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के आंदोलनकारी छात्रों को मूक समर्थन देकर मीडिया में सुर्खियां बटोरने का उपक्रम भी किया था। बावजूद इसके फिल्म छपाक को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी। छपाक एक सप्ताह में लागत भी नहीं निकाल सकी और सप्ताह का कलेक्शन 26 करोड़ से नीचे रहा। बॉक्स ऑफिस की रिपोर्ट के मुताबिक दीपिका की फिल्प छपाक फ्लॉप हो गई है। सोशल मीडिया पर तमाम क्रांतिकारी शूरवीरों ने भी दीपिका की इस फिल्म को सफल बनाने की मुहिम चलाई थी लेकिन उस फिल्म को लेकर जो एक अवधारणा लोगों तक पहुंचनी चाहिए थी वो बन नहीं पाई। रिपोर्ट क मुताबिक छपाक ने बड़े शहरों में भी अच्छा बिजनेस नहीं किया और रिलीज होने के अगले शुक्रवार को उसका बिजनेस सवा करोड़ तक पहुंच गया। फिल्म छपाक का विषय अच्छा है लेकिन उसका ट्रीटमेंट और निर्देशन उस स्तर का नहीं है कि वो फिल्म से कोई छाप छोड़ सके। एसिड पीड़िता के दर्द को समाज में प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति महसूस करता है, इस हमले के खिलाफ उसके मन से प्रतिरोध की आवाज भी उठती रहती है लेकिन फिर भी लोग इस फिल्म को अपेक्षित संख्या में देखने नहीं गए। इसकी वजह यही रही कि ये फिल्म लोगों के बीच आपसी बातचीत का हिस्सा नहीं बन पाई। छपाक जैसी फिल्मों को कभी भी बंपर ओपनिंग नहीं मिली है और इस तरह की फिल्में धीरे-धीरे ही बेहतर कारोबार करती हैं। हाल ही में रिलीज हुई निर्देशक अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15 भी इसी रास्ते पर चलकर सफल हुईं। आर्टिकल 15 के बारे में उसके विषय के बारे में, उसके ट्रीटमेंट के बारे में, आयुष्मान खुराना के अभिनय के बारे में लोगों के बीच चर्चा शुरू हो गई और फिर धीरे-धीरे दर्शक इस फिल्म को देखने के लिए सिनेमा हॉल जाने लगे और फिल्म सफल हो गई। लोगों के बीच चर्चा से फिल्म हिट होने का एक और सटीक उदाहरण है फिल्म शोले। 1975 में जब फिल्म शोले रिलीज हुई थी तब ना तो चौबीस घंटे के न्यूज चैनल थे, ना ही वेबसाइट्स और ना ही सोशल मीडिया। ट्विटर और फेसबुक का तो अता-पता ही नहीं था इस वजह से लाइव समीक्षा भी नहीं हो पाती थी फिल्मों की। तब अखबारों में विज्ञापन आया करते थे। फिल्म समीक्षा छपा करती थी। पोस्टरों से लोगों को फिल्मों की जानकारी मिलती थी या कई शहरों में तो रिक्शे पर लाउडस्पीकर लगाकर फिल्म का प्रचार किया जाता था। जब अगस्त 1975 में शोले रिलीज हुई थी तो लगभग सभी अखबारों ने इसको फ्लॉप करार दे दिया था। समीक्षकों को ये फिल्म अच्छी नहीं लगी थी। एक अखबार में तो फिल्म समीक्षा का शीर्षक था- शोले जो भड़क न सका। लेकिन फिल्म को लेकर जब लोगों के बीच बातचीत शुरू हुई तो फिर माउथ पब्लिसिटी ने वो असर दिखाया जिसके आगे प्रचार के सारे माध्यम पिछड़ गए। शोले की सफलता की कहानी लिखने की आवश्यकता नहीं है। शोले की सफलता के पीछे भी दर्शकों में आपस में हुई बातचीत के फैलने का असर ही माना जाता है। ये एक कारक था लेकिन इसके अलावा इसका निर्देशन और सभी कलाकारों का अभिनय भी कमाल का था।
दीपिका की फिल्म छपाक को अपेक्षित सफलता नहीं मिलने की एक वजह उनका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाना भी रहा। वो छात्रों के बीच गईं, मौन रहीं लेकिन उनके आसपास जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार की उपस्थिति और वामपंथी विचारधारा के लोगों के दीपिका के पक्ष में आने से फिल्म के खिलाफ माहौल बन गया। जेएनयू जाकर दीपिका वामपंथियों के साथ खड़ी दिखी। इस स्तंभ में विस्तार से इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि दीपिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इस वजह से गई कि उनकी प्रचार टीम को दीपिका के इर्द गिर्द चर्चा चाहिए थी। प्रचार टीम इस बात का आकलन करने में चूक गई कि बाजार के औजार तभी सफल हो सकते हैं जब उसके साथ व्यापक जन समुदाय हो। बाजार उस विचारधारा के कंधे के पर नहीं चल सकता है जिस विचारधारा को पूरे देश ने लगभग नकार दिया। इसका प्रकटीकरण चुनाव दर चुनाव होता रहा। प्रचार टीम की इस रणनीतिक चूक का खामियाजा फिल्म को भुगतना पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक कोई फिल्म तभी सफळ मानी जाती है जबकि उसको देखने के लिए कम से कम पचास लाख लोग पहुंचें। इस पचास लाख की संख्या से एक तय फॉर्मूल के आधार पर धनार्जन देखा जाता है।
बाजार के स्वभाव को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि आमिर और शाहरुख खान की फिल्मों के फ्लॉप होने या उनकी चमक फीकी पड़ने के पीछे उनका 2014 के बाद दिया गया बयान रहा है। जन के मानस पर जो बात एक बार अंकित हो जाती है उसको कुछ लोग आक्रामक तरीके से प्रकट कर देते हैं जबकि ज्यादातर लोग खामोशी से उसका प्रतिरोध करते हैं। फिल्मों के वितरण के कारोबार से जुड़े लोगों का मानना है कि जनता के मन को समझते हुए ही शाहरुख और आमिर दोनों ने अपना रास्ता बदला और वो दोनों नरेन्द्र मोदी से मिलने का कोई मौका नहीं छोड़ते और प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात की तस्वीरों को प्रचारित भी करते हैं ताकि जनता को ये संदेश जा सके कि वो अब मोदी के विरोध में नहीं हैं। दूसरी बात ये कि देश की जनता खासकर हिंदी फिल्मों के दर्शक इस बात को पसंद नहीं करते हैं कि राजनीति को फिल्मों के सफल होने का उपयोग किया जाए। इस बात के दर्जनों उदाहरण हैं कि जब फिल्म के कलाकारों ने फिल्म रिलीज के पहले राजनीति का दांव चला है उसका फायदा नहीं हुआ उल्टे नुकसान हो गया।  
दीपिका के जेएनयू जाने से जो प्रतिरोध हुआ उसका फायदा अजय देवगन की फिल्म को मिला। आज जिस तरह से देशभर में राष्ट्रवाद को लोग पसंद कर रहे हैं और उसके खिलाफ सुनने को तैयार नहीं है। कोई भी देश अपने स्वर्णिम इतिहास और उस इतिहास के उन चरित्रों को बेद पसंद करते हैं जिन्होंने देश की गौरव गाथा लिखी और अपनी वीरता, शौर्य और अपने कृत्यों से देश का नाम रौशन किया। अपने अतीत को लेकर गौरव का उभार इस वक्त पूरी दुनिया में है। इस वैश्विक परिघटना से भारत भी अछूता नहीं है। अब भारत औपनिवेशिक गुलामी से मानसिक रूप से भी लगभग मुक्त हो चुका है। आजादी के बाद की फिल्मों को देखें तो उस दौर में फिल्मकार अंग्रेजों के जुल्म को दिखाते थे और फिर नायक उस जुल्म के खिलाफ खड़ा होता था। उसको देखने के लिए जनता की भारी भीड़ उमड़ती थी। ये क्रम काफी लंबे समय तक चलता रहा। क्रांति और लगान भी इसी थीम पर बनी और उसको दर्शकों का जबरदस्त प्यार मिला। इसके बाद भारत पाकिस्तान के युद्ध पर आधारित फिल्में बनीं। पाकिस्तानियों को हारते हुए देखकर लोग खूब ताली बजाते थे और टिकट खिड़की पर दर्शक टूट पड़ते थे।  
हिंदी फिल्मों में अब वो दौर बदल गया है। अब लोग भारत की गौरव गाथा को देखना चाहते हैं। चाहे वो खेल के मैदान में लिखी गई गौरव गाथा हो, विज्ञान की दुनिया की खास उपलब्धि हो या फिर आजाद भारत की सैन्य उपलब्धियां हों। चाहे वो अक्षय कुमार की फिल्म गोल्ड हो, उनकी ही फिल्म मिशन मंगल हो या फिर फिर विकी कौशल की फिल्म उरी हो। ये बदलाव इस बात को रेखांकित करता है कि भारत में सिनेमा के दर्शकों का मन और मिजाज दोनों बदल रहा है। सिर्फ फिल्म ही क्यों अगर हम वेब सीरीज की या ओवर द टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म पर भी देखें तो ऐतिहासिक चरित्रों के इर्द गिर्द बनी सीरीज बेहद सफल हो रही है। ना सिर्फ सफल हो रही बल्कि लगातार इस तरह की सीरीज बनने की घोषणाएं भी हो रही हैं। नेटफ्लिक्स से लेकर अमेजन और जी फाइव से लेकर एमएक्स तक के प्लेटफॉर्म पर गौरव गाथाओं को प्राथमिकता दी जा रही है। बाजार का अच्छा जानकार वही होता और माना जाता है जो देश के मूड को भांपते हुए जनता के मन मुताबिक चीज उसके सामने रखे। सफलता मिलती ही है नहीं तो फिर उसका छपाक हो जाता है।    

3 comments:

Ashish said...

Behatreen lekh

Anonymous said...

You mean films are made only to earn crores of rupees and count on it.You people never know or heard about social responsibility. You are living in a fools paradise where everything counts in terms money and fake nationalism.

Anonymous said...

A fake nationalist.