Translate

Sunday, March 29, 2020

आपदा को अवसर में बदलते किरदार


इस वक्त पूरी दुनिया में एक तिलिस्मी वायरस कोरोना का खौफ जारी है। अपने देश में भी कोरोना की वजह से लॉकडाउन चल रहा है. आवश्यक सेवाओं को छोड़कर सबकुछ बंद कर दिया गया है। सड़कों पर सन्नाटा का साम्राज्य है लेकिन देश की जनता का मनोबल ऊंचा है। सबके मन में बस एक ही बात चल रही है कि कैसे इस वायरस को मात देनी है। कोरोना वायरस घातक है, जानलेवा है लेकिन हम भारतीयों के हौसले के आगे, हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे, हमारे संकल्प की शक्ति के आगे उसका झुकना ही होगा। हम भारतीयों की इस ताकत का, दृढ़ इच्छाशक्ति का दर्जनों फिल्मों में चित्रण हुआ है। जहां फिल्म निर्देशकों ने अपनी फिल्मों के माध्यम से ऐसे चरित्रों को पेश किया है जो अपनी जिजीविषा के दम पर दर्शकों के दिलोदिमाग पर अमिट छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं.
ह्रषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ का आखिरी सीन है, जहां अस्पताल में अमिताभ बच्चन अपने दोस्त राजेश खन्ना को झकझोरते हुए कहते हैं ‘उठो आनंद उठो’ लेकिन वो तो चिरनद्रा में लीन हो चुके थे। ये चल ही रहा था कि कमरे में चल रहे टेप से एक आवाज आती है, ‘बाबू मोशाय! जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे न तो आप बदल सकते हैं न ही मैं. हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपरवाले की ऊंगलियों से बंधी हैं. कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं बता सकता है।‘ इसके बाद चंद पलों तक जोरदार ठहाका गूंजता रहता है। साउंड टेप टूटने के बाद आवाज रुक जाती है। फिर स्क्रीन पर गुब्बारा उड़ता है और बैकग्रुंड से आवाज आती है, ‘आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं।‘ हिंदी फिल्मों के इतिहास में इस फिल्म को इसके पात्र ‘आनंद’ की जिजीविषा के लिए याद किया जाएगा। राजेश खन्ना ने अपने शानदार अभिनय से ‘आनंद’ के चरित्र को जीवंत कर दिया था। ये चरित्र इतना सकारात्मक है जिसने अपने इस गुण से अपना इलाज कर रहे डॉक्टर तक की मानसिकता को बदल दिया। उसके अंदर की नकारात्मकता और निराशा को खत्म कर दिया। आनंद को पता था कि उसको कैंसर है और वो छह महीने से अधिक जिंदा नहीं रह सकेगा. बावजूद इसके वो अपनी जिंदगी को भरपूर जिंदादिली से जीता है। उसक इलाज कर रहे डॉक्टर भास्कर के मन में इस बात की निराशा होती है कि वो अपने सभी मरीजों को ठीक नहीं कर पाता है लेकिन जब वो आनंद के संपर्क में आता है तो उसमें बदलाव आता है और उसकी नकारात्मकता खत्म होने लगती है और जिंदगी को देखने का उसका नजरिया बदलने लगता है। आनंद मरा नहीं, आनंद मरते नहीं के जरिए इस फिल्म के निर्देशक ह्रषिकेश मुखर्जी समाज के एक संदेश देते हैं। इसको अगर इस तरह से व्याख्यायित करें कि आनंद (प्रसन्नता) मरा नहीं, आनंद (फिल्म का पात्र) मरते नहीं, तो संदेश साफ पकड़ में आ जाता है।
इसी तरह की अदम्य जिजीविषा वाले चरित्रों का चित्रण किया संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म ब्लैक में। इसमें एक मूक बधिक लड़की और उसका संघर्ष तो है ही उसको शिक्षित करनेवाले शिक्षक का जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण भी है। इस फिल्म में बहुत छोटी बच्ची मूक बधिर बच्ची को जीवन का रंग सिखाने में लगे हैं। अमिताभ बच्चन ने जिस शिक्षक देवराज की भूमिका निभाई है वो खुद उम्रदराज और सनकी है । लेकिन तमाम अपमान सहते हुए भी एक दृष्टि बाधित लड़की को पढ़ाने का संकल्प लेता है, उसको पूरा भी करता है। जो लड़की बेहद आक्रामक थी वो भी इस अपने शिक्षक की प्रेरणा से सीखना शुरू करती है। लंभ संघर्ष के बाद मिशेल नाम की लड़की को स्नातक में दाखिला भी मिल गया। तमाम झंझावातों को झेलते हुए करीब बारह साल बाद वो बीए पास करती है। अपने अबिनय के गांभीर्य की वजह से रानी मुखर्जी ने दृष्टिबाधित लड़की के चरित्र को नई ऊंचाई दी है, उसके संघर्ष को यथार्थ के बेहद करीब ले गई। उधर अमिताभ बच्चन बढ़ती उम्र की वजह से अल्जाइमर की गिरफ्त में आ जाते हैं लेकिन कहते हैं न कि मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए। इस फिल्म के अंत में भी आखिरी सीन में नेपथ्य से संवाद चलता है जिसमें रानी मुखर्जी कहती है, वो दुनिया का सबसे महान टीचर है, जिसने आज फिर से साबित कर दिया कि दुनिया में नामुमकिन कुछ भी नहीं, जिसने फिर से मुझे सिखाया कि दूसरों के लिए जीने को ही जीना कहते हैं। यहां भी फिल्म निर्देशक ने इस संवाद के जरिए पूरे समाज को एक संदेश दिया है और फिल्म के माध्यम से ये बताया है कि अंधेरा चाहे कितना भी घना हो लेकिन उम्मीद की किरण जलाकर उस अंधेरे को उजाले में बदला जा सकता है।
आज जब कोरोना की दहशत में लोग घरों के अंदर रहने को मजबूर हैं वैसे ही प्लेग की वजह से लोग पलायन को मजबूर हो गए थे। उसकी ही पृष्ठभूमि पर 1966 में एक फिल्म बनी थी ‘फूल और पत्थर’। इस फिल्म में बीमार शांति, जिसके किरदार को मीना कुमारी को ने निभाया है, के घरवाले अकेले छोड़कर चले जाते हैं। शाका, जिसकी भूमिका धर्मेन्द्र ने निभाई है, जो एक अपराधी की भूमिका में हैं जो उसी घर में घुसते हैं जहां के लोग बीमार शांति को मरने के लिए छोड़कर चले जाते हैं। फिल्म की कहानी कई मोड़ लेती है लेकिन अपराधी की भूमिका निभा रहे धर्मेन्द्र ने सबकुछ छोड़कर बीमार शांति की सेवा की और वो स्वस्थ हो गईं। फिर फिल्म में शांति के घर-परिवार का विरोध, समाज का विरोध आदि आदि है लेकिन इस फिल्म के माध्यम से निर्देशक ओ पी रल्हन ने साफ तौर पर ये संकेत दिया है मदद करनेवाला कोई भी हो सकता है। जान बचाने के लिए कोई भी आ सकता है। साथ ही ये संदेश भी है कि जीवन जीने की इच्छाशक्ति सबसे बड़ी दवाई है। इस संदेश को रल्हन ने शांति के चरित्र के माध्यम से रेखांकित किया है।
एक और फिल्म 1982 में बनी थी जिसे सुनील दत्त ने निर्देशित किया था, ‘दर्द का रिश्ता’। अगर हम इस फिल्म को ऊपरी तौर पर देखें तो इसमें कई इत्तफाक दिखाई देते हैं जो दर्शकों को चौंकाते हैं लेकिन ये फिल्म कैंसर जैसी बीमारी से लोहा लेने की और उसको मात देने की कहानी कहती है। सुनील दत्त, स्मिता पाटिल, रीना रॉय और खुशबू ने इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय किया है। इसमें ग्यारह साल की बच्ची अपनी जन्म के साथ ही अपनी मां को खोती है, फिर ग्रह साल की उम्र में कैंसर दबोच लेता है. अपने डॉक्टर पिता के साथ भारत से लेकर अमेरिका तक के अस्पतालों में वो इस बीमारी से जूझती है। अपनी सकारात्मकता और खुशमिजाजी से सफलतापूर्वक मुकाबला करती है। कहने का अर्त ये है कि हिंदी फिल्मों में कई ऐसे किरदार गढ़े गए जिन्होंने विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला किया। इनमें से कई चरित्र तो यथार्थ के बिल्कुल करीब हैं या फिर सत्य घटनाओं पर आधारित या उनसे प्रेरित हैं। जब भी इस तरह की फिल्में बनीं तो दर्शकों ने उसको खूब पसंद किया। धर्मेन्द्र-मीना कुमारी की फिल्म फूल और पत्थर कई सप्ताह तक सिनेमाघरों में चलती रही थीं, इसी तरह से ब्लैक ने तो पूरी दुनिया में ही धूम मचा दी थी। ‘आनंद’ और ‘दर्द का रिश्ता’ ने भी सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। कहना न होगा कि दृढ्ता और संकल्पशक्ति के साथ ना केवल आप निजी जिंदगी में सफल हो सकते हैं बल्कि आपदा को भी अवसर में बदल सकते हैं।   

1 comment:

विकास नैनवाल 'अंजान' said...

आपने सही कहा कि व्यक्ति में सकारात्मकता और संकल्प शक्ति हो तो किसी भी बड़ी से बड़ी चुनौती को पार कर लेता है। आज हमे इन्हीं चीजों की जरूरत है। इन किरदारों से प्रेरणा लेने की जरूरत है। हमे करना भी क्या है? बस घर में ही तो रहना है और अनुशासन को बरकरार रखना है। अगर इतना कर लेते हैं तो हम साथ मिलकर इस बिमारी से उबर जायेंगे।