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Thursday, July 30, 2020

फिल्मों में रामकथा


सचिन भौमिक को क्या पता था कि राज कपूर से उनकी एक मुलाकात उनको सफलता की ऐसी राह दिखा देगा जिसपर चलकर वो हिंदी फिल्मों के सबसे सफल कहानीकार बन जाएंगे। हिंदी फिल्मों के इतिहास में जितनी सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली फिल्में सचिन भौमिक के खाते में हैं उतनी किसी और के नहीं। सलीम-जावेद की जोड़ी को भी नहीं। सचिन भौमिक की सफलता के पीछे की कहानी बेहद दिलचस्प है। सचिन काम की तलाश में कोलकाता (तब कलकत्ता) से मायानगरी मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे। जब वो मुंबई आए तो उस समय राज कपूर को प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनकी फिल्म ‘बरसात’, ‘सरगम’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिश’ और ‘श्री 420’ जैसी फिल्में लोकप्रिय हो चुकी थीं। सचिन भौमिक किसी तरह से राज कपूर से मिलना चाहते थे। एक दिन वो आर के स्टूडियो पहुंचे और राज कपूर से मिलने की इच्छा जताई। उस दिन राज कपूर से भेंट नहीं हो सकी लेकिन अगले दिन का समय तय हुआ। नियत समय पर सचिन भौमिक चेंबूर के आर के स्टूडियो पहुंचे। वहां उनको राज कपूर के कमरे में ले जाया गया। सचिन भौमिक से राज कपूर ने हाल-चाल पूछा और फिर आने का प्रयोजन। भौमिक ने बताया कि वो फिल्मों के लिए कहानी लिखना चाहते हैं। राज कपूर की सहमति के बाद सचिन ने कहानी सुनाना आरंभ किया और राज कपूर बहुत धैर्यपूर्वक उनकी कहानियां और बातें सुनते रहे। बातचीत जब खत्म हुई तो राज कपूर ने कहा कि आप हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां लिखते हो, अच्छी बात है, लिखते भी रहो लेकिन इतना ध्यान रखना कि हिंदी फिल्मों में कहानी तो एक ही होती है, ‘राम थे, सीता थीं और रावण आ गया।‘ सचिन भौमिक जब राज कपूर से मिलकर निकल रहे थे तो उनके मस्तिष्क में ये बात बार-बार कौंध रही थी। सचिन भौमिक ने एक साक्षात्कार में बताया था कि राज कपूर की ये बात उन्होंने गांठ बांध ली थी और वो कोई भी कहानी लिखते थे तो उनके अवचेतन मन में रामकथा अवश्य चल रही होती थी।

अगर हम हिंदी फिल्मों के सौ साल से अधिक के इतिहास पर नजर डालें तो रामकथा अब तक सौ से अधिक फिल्मों का निर्माण हो चुका है। मूक फिल्मों के दौर में 1917 में दादा साहब फाल्के ने ‘लंका दहन’ के नाम से एक फिल्म बनाई थी। कहना न होगा कि जब लंका दहन के प्रसंग की चर्चा होगी तो राम कथा के अन्य प्रसंग भी इसमें आते चले जाते हैं। इस फिल्म की सफलता के साथ तो कई किवदंतियां भी जुड़ी हुई हैं। मद्रास (अब चेन्नई) में ये फिल्म इतनी हिट रही थी कि इसकी कमाई के पैसों को बैलगाड़ी में भरकर ले जाना पड़ता था। उस दौर में एक और फिल्मकार हुए जिनका नाम था श्री नाथ पाटणकर। इन्होंने 1918 में ‘राम वनवास’ के नाम से एक ऐतिहासिक फिल्म बनाई। इस बात का उल्लेख मिलता है कि पाटणकर की कंपनी फ्रेंड्स एंड कंपनी ने इस फिल्म को करीब पच्चीस हजार फीट के रील में शूटिंग की थी। इसको दर्शकों को धारावाहिक के रूप में दिखाया गया था और दर्शकों के लिए एक विशेष प्रकार का टिकट भी बनाया गया था। जब भी इस फिल्म का प्रदर्शन होता था तब उसके पहले राम की महिमा का बखान करनेवाले विशेष प्रकार के गीत-संगीत का कार्यक्रम होता था। उसी दौर में सीक्वल का भी चलन हिंदी फिल्मों में शुरू हो गया था और पाटणकर ने राम वनवास के सीक्वल के तौर पर ‘सीता स्वंयवर’, ‘सती अंजनि’ और ‘वैदेही जनक’ नाम से फिल्में बनाईं थीं। मूक फिल्मों के दौर में तकरीबन हर वर्ष राम कथा पर केंद्रित फिल्में बनती थीं। ‘अहिल्या उद्धार’, ‘श्री राम जन्म’, ‘लव कुश’, ‘राम रावण युद्ध’, ‘सीता विवाह’, ‘सीता स्वयंवर’ और ‘सीता हरण’ आदि प्रमुख फिल्में हैं।      
जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तब भी रामकथा फिल्मकारों की पंसद बनी रही। बंगाल के मशहूर फिल्मकार देवकी बोस ने ‘सीता’ के नाम से एक फिल्म बनाई थी जो बेहद लोकप्रिय हुई थी। इस फिल्म में राम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को स्थापित करने की कोशिश की गई थी। इस फिल्म में सीता की भूमिका मशहूर अभिनेत्री दुर्गा खोटे ने निभाई थी और पृथ्वीराज कपूर ने राम की। ये हमारे देश में बनी पहली ऐसी फिल्म थी जिसको अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया था। इस फिल्म का प्रदर्शन 1934 में वेनिस फिल्म फेस्टिवल में किया गया था। प्रकाश पिक्चर्स ने वाल्मीकि के रामयाण के आधार पर चार फिल्में बनाईं, ‘भरत मिलाप’, ‘रामराज्य’, ‘राम वाण’ और ‘सीता स्वयंवर’। इन चारों फिल्मों में पूरी रामायण को फिल्माया गया। इन चार फिल्मों में राम का किरदार अभिनेता प्रेम अदीब और सीता की भूमिका का शोभना समर्थ ने निभाई थी। इन फिल्मों में प्रेम अदीब और शोभना समर्थ ने बेहद शानदार काम किया था। उस दौर में लोग प्रेम अदीब और शोभना समर्थ की तस्वीरें देखकर उनके सामने सर झुकाकर प्रणाम करते थे। आज की पीढ़ी ने दूरदर्शन पर रामानंद सागर की रामायण की लोकप्रियता देखी। प्रकाश पिक्चर्स की ये चारों फिल्में भी अपने दौर में इसी तरह लोकप्रिय हुई थीं। इनमें से ‘रामराज्य’ को महात्मा गांधी ने देखी।
1967 में प्रकाश पिक्चर्स ने जब ‘रामराज्य’ को नए अंदाज में बनाने तैयारी शुरू की तो इसके निर्देशक विजय भट्ट ने नूतन से सीता के रोल के लिए संपर्क किया था। उनको लगा था कि शोभना समर्थ की बेटी नूतन इस भूमिका के लिए उपयुक्त होंगी। नूतन ने तब ये कहते हुए मना कर दिया था कि उनके अभिनय की तुलना उनके मां के अभिनय से होगी और वो ऐसा नहीं चाहती। नूतन के इंकार के बाद सीता की भूमिका वीणा राय ने निभाई थी। लेकिन ये फिल्म सफल नहीं हो पाई थी। इसके बाद भी नियमित अंतराल पर राम कथा पर फिल्में बनती रहीं हैं जो इस बात को साफ तौर पर इंगित करती हैं कि राम और उनसे जुड़ी कहानियां भारतीय जनमानस को हमेशा आकर्षित करती हैं। इसी आकर्षण को पकड़ने हुए राज कपूर ने सचिन भौमिक को कहा था कि कहानी तो एक ही है राम थे, सीता थीं और रावण आ गया।   

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