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Saturday, February 19, 2022

वैचारिक जकड़न में इतिहास लेखन


इतिहास, ये एक ऐसा शब्द है जिसको लेकर स्वाधीन भारत में लंबे समय से बहस चलती रही है। पश्चात्य और वामपंथी इतिहासकार हमेशा से इस बात को स्थापित करने में लगे रहे कि भारतीयों ने अपना इतिहास लिखा ही नहीं। कई बार तो यहां तक कह दिया जाता है कि भारतीयों के पास इतिहास लेखन का विवेक ही नहीं था। 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तो वामपंथी इतिहासकारों ने विदेशी इतिहासकारों के लेखन को पत्थर की लकीर मान लिया। उनके लेखन को ही प्रचारित प्रसारित करते रहे। पीढ़ियों तक उनका लिखा इतिहास भारत के विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालय के छात्रों को पढ़ाया जाता रहा है। जब भी इतिहास लेखन ने पाश्चात्य-वामपंथी धारा से अलग हटकर कुछ करने की कोशिश की तो उसकी प्रामाणिकता को लेकर संदेह का वातावरण बनाने का प्रयास हुआ। इस प्रयास में सफलता भी मिली। अब भी वामपंथी इतिहासकारों का ये प्रयास जारी है। ताजा मामला है विक्रम संपत का। वीर सावरकर पर दो खंडों में लिखी उनकी पुस्तक में वर्णित तथ्यों में जब किसी प्रकार की कमजोरी नहीं मिली तो उनके लेखन को संदेहास्पद बनाने के लिए दूसरे हथकंडों का उपयोग किया जाना लगा। मामला इतना बढ़ा कि विक्रम संपत को अदालत की शरण लेनी पड़ी जहां से उनको राहत मिली। विक्रम संपत अकेले उदाहरण नहीं हैं । जिस भी इतिहासकार ने इतिहास लेखन का वैकल्पिक मार्ग चुना और भारतीय पौराणिक ग्रंथों के आधार पर लिखने की कोशिश की उनको नीचा दिखाने की कोशिश की गई। उनके अकादमिक कार्य को कोरी कल्पना तक करार दे दिया गया। पुराणों और वेदों में लिखे गए तथ्यों को कल्पना बताकर या साहित्य बताकर खारिज किया जाता रहा है। वामपंथी इतिहासकारों ने कभी भी पुराणों में वर्णित राजवंशों के कालखंड की तरफ देखा ही नहीं। कई इतिहासकार पुराणों की ऐतिहासिकता को भी संदिग्ध मानते हैं। संदिग्ध मानने की वजह बताए बगैर सीधा निर्णय सुना देते हैं। 

एफ ई पार्जिटर जैसे पश्चिमी विद्वान एक तरफ पुराणों में उल्लिखित कई बातों को अपने इतिहास लेखन का आधार बनाते हैं और दूसरी तरफ भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा और प्रविधि पर संदेह भी करते हैं। उनके लेखन में ये विरोधाभास दिखता है। आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से संबद्ध संस्कृत के विद्वान आर्थर एंटनी मैकडानेल से लेकर अलबरुनी तक बेहिचक ये कहते रहे हैं कि भारतीयों को इतिहास लिखना नहीं आता है। मैकडानेल ने तो अपनी पुस्तक संस्कृत साहित्य में भी भारतीय इतिहास लेखन को लेकर निर्णयात्मक टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था कि इतिहास लेखन भारतीय साहित्य की कमजोरी है, बल्कि ये कह सकते हैं कि भारतीय साहित्य में इतिहास लेखन अनुपस्थित है। वो यहीं नहीं रुकते हैं और यहां तक कह देते हैं कि भारतीय साहित्य में इतिहास बोध की कमी पूरे संस्कृत साहित्य पर एक छाया की तरह दिखाई देती है। अलबरुनी तो एक कदम आगे बढ़ जाता है जब वो कहता है कि दुर्भाग्य से हिंदुओं ने इतिहास को कालक्रम के अनुसार नहीं संजोया और वो शासकों के कालखंड को दर्ज करने को लेकर लापरवाह रहे। इस तरह की टिप्पणियों को स्वाधीन भारत के इतिहासकारों ने गंभीरता से लिया और उसके आधार पर ही व्याख्या करने में लग गए। होना ये चाहिए था कि इसको परखने की कोशिश होती लेकिन वैसा नहीं हुआ। परिणाम ये हुआ कि वो भी विदेशी इतिहासकारों और विद्वानों की तरह दोष के शिकार हो गए। विदेशी विद्वान अगर पुराणों को छोड़ भी देते और सिर्फ कल्हण की राजतरंगिणी को ही देख लेते तो उनकी भारतीय इतिहास लेखन को लेकर पैदा हुई भ्रांति दूर हो सकती थी। 

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में पश्चिमी देशों में या पश्चिम के अकादमिक जगत में इतिहास लेखन की जो प्रविधि थी वो इतिहास लेखन की भारतीय पद्धति से बिल्कुल अलग थी। पश्चिम के इतिहासकार जब भारत का इतिहास लिखने लगे तो उन्होंने अपने देश के इतिहास लेखन के औजारों को अपनाया। स्वाधीन भारत में वामपंथियों ने मार्क्सवादी सिद्धांतों के आधार पर इतिहास लेखन किया। ये दोनों ही भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा को समझने में विफल रहे। वो ये भी समझने में विफल रहे कि इतिहास सिर्फ कालखंड का निर्धारण या शासकों के नामों और युद्ध में जय पराजय का लेखा-जोखा मात्र नहीं है। इतिहास सिर्फ राजनीतिक घटनाओं का विवेचन भी नहीं है, इतिहास तो समवेत रूप से समाज की परंपराओं को रेखांकित करता है। इसमें राजनीति, धर्म, समाज के बनने और बिगड़ने की खोज होती है और उसके आधार पर आकलन होता है। जब भारत पराधीन हुआ तो सिर्फ राजनीतिक रूप से ही पराधीन नहीं हुआ बल्कि गुलामी ने अकादमिक जगत को भी प्रभावित किया । पाश्चात्य लेखकों के प्रभाव के पहले भारतीय इतिहास लेखन की प्रविधि और दृष्टि अलग थी जो पराधीनता के काल में बदल गई। उम्मीद की गई थी कि स्वाधीनता के बाद हम अपने प्राचीन ग्रंथों और इतिहास लेखन के तौर तरीकों को अपनाते हुए गुलामी के कालखंड का परिस्थितियों के आधार पर भारतीय पद्धति से विश्लेषण करेंगे लेकिन ऐसा हो न सका। काशी प्रसाद जायसवाल जैसे कई इतिहासकारों ने भारतीय पद्दति अपनाने की कोशिश की थी लेकिन उनको हाशिए पर डाल दिया गया। 1970 के बाद जब भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का गठन हुआ तो तमाम वामपंथी इतिहासकार उसके कर्ताधर्ता हुए। वहां से इतिहास लेखन की धारा ऐसी बदली कि भारतीय लेखन पद्धति नेपथ्य में चली गई और मार्क्सवादी पद्धति केंद्र में आ गई। कभी उसको सुधारने की कोशिश भी नहीं की गई बल्कि उसको मजबूती ही प्रदान की गई।

स्कूली छात्रों को पढ़ाई जानेवाली किताबों में भी इन वामपंथी इतिहासकारों के मार्गदर्शन में तैयार किया गया। नेशनल काउंसिल आफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) ने जिस तरह की इतिहास पुस्तकें तैयार की वो भी छात्रों को परोक्ष रूप से यही बताती रही कि भारतीयों के पास इतिहास लेखन का विवेक ही नहीं था। घटनाओं  का विचारधारा के आधार पर वर्णन किया गया। एक ही उदाहरण काफी होगा कि स्कूली छात्रों को ये पढ़ाया जाता रहा कि महात्मा गांधी की हत्या एक हिंदू ब्राह्मण ने की। ये उनको मन में एक समुदाय और जाति के खिलाफ नफरत का बीज बोने के लिए किया गया प्रतीत होता है। इस बात की क्या आवश्यकता थी कि गांधी के हत्यारे की जाति छात्रों को बताई जाए। पता नहीं कि पुस्तक में संशोधन हुआ या अब भी यही पढ़ाया जा रहा है। पिछले दिनों एनसीईआरटी के नवनियुक्त निदेशक प्रोफेसर दिनेश प्रसाद सकलानी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि इतिहास लेखन का काम इतिहासकारों का है । अगर उनके पास किसी पाठ्य सामग्री को लेकर कोई शिकायत आती है तो वो विशेषज्ञों से जांच करवाने के बाद उसपर निर्णय लेंगे। अच्छी बात है पर जो शिकायतें पहले से मौजूद हैं उसकी जांच भी प्राथमिकता के आधार पर करवानी चाहिए। इस स्तंभ में कई बार एनसीईआरटी की इतिहास और अन्य विषयों के पुस्तकों में वर्णित तथ्यों को लेकर चर्चा की जा चुकी है। अनुच्छेद 370 का जिस तरह से उल्लेख एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तक में है उसपर निदेशक महोदय को विचार करना चाहिए। एनसीईआरटी की भूमिका इस वजह से महत्वपूर्ण है कि छात्रों को भारत का वही इतिहास पढाया जाए जो किसी विचारधारा में रंगा हुआ न हो। 

इसके अलावा अकादमिक जगत में भी इतिहास लेखन की उस प्रणाली को मजबूत करना होगा जिसमें भारतीय साहित्य में उपलब्ध तथ्यों का उपयोग हो। भारतीय साहित्य में उपलब्ध स्त्रोंतों का आधार हो। उस पूर्वग्रह से मुक्त होकर इतिहास लिखना होगा कि भारतीयों के पास इतिहास लेखन का विवेक ही नहीं है। अगर समग्रता में देखें और पौराणिक ग्रंथों में  उपलब्ध स्त्रोतों को आधार बनाया जाए तो भारतीय इतिहास लेखन की स्वदेशी प्रणाली को पुनर्जीवित किया जा सकता है।    


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