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Saturday, June 18, 2022

फिल्मों की सफलता की नई राह


कोरोना महामारी के दौर में सिनेमाघरों के बंद होने का फिल्म उद्योग पर बहुत बुरा असर पड़ा था। फिल्म प्रदर्शन का व्यवसाय बंद होने के कारण भारतीय फिल्म उद्योग पर भी संकट मंडराने लगा था। कई फिल्में पूरी हो गई थीं लेकिन उनका प्रदर्शन लगातार टलता रहा था। बड़े प्रोड्यूसर तो किसी तरह से फिल्मों की रिलीज के टलनेवाले नुकसान को झेल गए लेकिन छोटे प्रोड्यूसरों पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। कई फिल्में आधे में बंद हो गईं तो कई फ्लोर पर ही नहीं जा सकीं। कोरोना महामारी का प्रकोप कम होने के बाद कई तरह की पाबंदियों के साथ जब सिनेमाघर खुले तो भी अपेक्षित कारोबार नहीं हो पा रहा था। इन परिस्थितियों को देखते हुए फिल्मों पर लिखनेवाले कुछ लेखकों ने फिल्म व्यवसाय के बदलते स्वरूप को रेखांकित करना आरंभ कर दिया। सिनेमाघर के कारोबार पर भई प्रश्नचिन्ह लगाना आरंभ कर दिया। उन्होंने महामारी के कारण सिनेमाघरों में दर्शकों की कम उपस्थिति को दर्शकों की बदलती रुचि मान लिया। सिनेमाघरों के बजाए वो एप आधारित प्लेटफार्म को फिल्मों के प्रदर्शन के नए प्लेटफार्म के तौर पर स्थापित करने में जुट गए। सिनेमाहाल में जानेवाले परंपरागत दर्शकों को लेकर जल्दबाजी में टिप्पणी करने लगे। इस तरह के आकलन और निष्कर्ष पर पहुंचने के पहले उन्होंने कोरोना और उसके फैलाव की आशंका पर विचार किया हो, ऐसा नहीं लगता। बंद और वातानुकूलित वातावरण में कोरोना के फैलने की आशंका जताई गई थी। ये बात कहीं न कहीं परंपरागत सिने दर्शकों के अवचेतन मन में थी। इस वजह से सिनेमाघरों में दर्शकों की अपेक्षित उपस्थिति नहीं हो रही थी पर सिनेमा के प्रति प्रेम कम नहीं हो रहा था। जैसे जैसे कोरोना के मरीजों की संख्या कम हुई, अधिकांश लोगों को वैक्सीन की डोज लगी, निश्चिंतता बढ़ने लगी। और बढ़ने लगी सिनेमाघरों में दर्शकों की संख्या भी। फिल्मों के व्यवसाय के विभिन्न आयामों का आकलन करनेवाली संस्था ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष जनवरी से लेकर अप्रैल तक रिलीज फिल्मों ने चार हजार करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। इसका अर्थ ये हुआ कि इस वर्ष हर महीने फिल्मों ने एक हजार करोड़ रुपए से अधिक का कारोबार किया। फिल्म इंडस्ट्री के लिए ये बेहद सुखद आंकड़ा है। लेकिन इस कारोबार में एक संदेश भी है, उसपर हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को विचार करना चाहिए।

इस वर्ष जिन फिल्मों को दर्शकों का प्यार मिला उसमें दक्षिण भारतीय फिल्मों के हिंदी संस्करण का योगदान अधिक है। ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट के अनुसार फिल्मों के बिजनेस में मूल रूप से हिंदी में बनी फिल्मों की हिस्सेदारी अड़तीस प्रतिशत है जबकि साउथ की हिंदी में डब की गई फिल्मों की हिस्सेदारी साठ प्रतिशत है। अब जरा दक्षिण भारत की उन फिल्मों पर विचार करते हैं जिनको दर्शकों का अपार स्नेह मिला और जिसने पांच सौ करोड़ रुपए से अधिक का व्यवसाय किया। ओरमैक्स मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक फिल्म केजीएफ चैप्टर 2 ने 1008 करोड़ का कारोबार किया वहीं आरआरआर ने 875 करोड़ रु और द कश्मीर फाइल्स ने 293 करोड़ रु का बिजनेस किया। द कश्मीर फाइल्स की असाधारण सफलता के पीछे असधारण वजहें हैं। इसकी सफलता पर इस स्तंभ में पहले भी विचार किया जा चुका है। अब अगर हम केजीएफ चैप्टर 2 और आरआरआर की बात करें तो इसमें ज्ञान, भाषण और सैद्धांतिकी की प्रत्यक्ष बातें नहीं हैं। लेकिन फिल्मकार ने परोक्ष रूप से बहुत बड़ा संदेश दिया है। दर्शकों ने फिल्मकार के उस संदेश को पकड़ा भी और उसको पसंद भी किया। आरआरआर की कहानी राम, भीम और सीता के इर्द गिर्द घूमती है। राम-सीता और भीम हमारे दो महान पौराणिक ग्रंथ- रामायण और महाभारत के पात्र हैं। इस फिल्म की कहानी इस तरह से लिखी गई है कि राम और भीम एक दूसरे की मदद करते हैं। सीता-राम और भीम की ये कहानी कहीं न कहीं रामराज्य में भीम की महत्ता को स्थापित करने का परोक्ष संदेश देती है। दर्शकों को ये अच्छा लगता है। इसके अलावा फिल्म की भव्यता भी दर्शकों को बांधती है। इसी तरह से फिल्म केजीएफ चैप्टर 2 में का नायक अपने संवाद में राजनीति में वंशवाद की विषबेल पर टिप्पणी करता है। फिल्म में नायक जब वंशवाद पर टिप्पणी करता है तो सिनेमाहाल में तालियां गूंजती हैं। इसका अर्थ ये है कि दर्शक फिल्मकार की सोच से खुद को एकाकार करता है। इन दो फिल्मों से उदाहरण से ये संकेत तो मिलता ही है कि आज का दर्शक मनोरंजन के साथ साथ अपनी परंपरा और विरासत से खुद को एकाकार करना चाहता है। साथ ही उसको मनोरंजक तरीके से समकालीन राजनीति की विसंगतियों पर की गई टिप्पणियां भी पसंद आती हैं। फिल्मों में इस तरह मनोरंजन की चाशनी में लिपटी राजनीतिक टिप्पणियों को देखने पर एक शिफ्ट का संकेत भी है। इसके पहले तो हिंदी फिल्मों में इस तरह के संवाद सुनने को मिलते थे कि वो आएंगे भारत माता की जय के नारे लगाएंगे और तुम्हारी हत्या कर देंगे। इस संबंध में हिंदी फिल्मों के कई उदाहरण हमारे सामने हैं।   

इस वर्ष जनवरी से अप्रैल के बीच रिलीज फिल्मों से जो सकारात्मक संकेत मिले हैं वो उसके बाद रिलीज फिल्मों में भी दिखाई देता है। मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन यही फिल्मों की सफलता का आधार है। इस वर्ष मई में दो फिल्में रिलीज हुई जिसके कारोबारी परिणाम इस अवधारणा को मजबूती प्रदान करते हैं। एक फिल्म है भूल भुलैया-2 और दूसरी फिल्म है अनेक। भूल भुलैया 2 को दर्शकों ने खूब पसंद किया। चार सप्ताह में इसका कलेक्शन करीब पौने दो सौ करोड़ रुपए तक पहुंच गया है जबकि फिल्म अनेक बाक्स आफिस पर बुरी तरह से पिट गई। पहले भूल भुलैया 2 पर विचार करते हैं कि क्यों दर्शकों ने इसको पसंद किया जबकि ये 2007 में आई फिल्म भूल भुलैया का सीक्वल है।इसमें कर्तिक आर्यन, तब्बू और कियारा आडवाणी लीड रोल में हैं। ये हारर मूवी है बावजूद इसके इसमें जबरदस्त हास्य है। पिछले दिनों एक निजी बातचीत में गीतकार और कवि प्रसून जोशी ने फिल्मों के बारे में बेहद महत्वपूर्ण बात कही थी। कोरोना महामारी के बाद के दौर में जिस तरह की फिल्में सफल हो रही हैं, उनको देखकर प्रसून जोशी की बात सहसा याद आ गई। प्रसून ने कहा था कि ‘ऐसा लगता है कि हमारा ये युग मनोरंजन का युग है। अब लोग रिश्तों में भी मनोरंजन तलाशने लगे हैं। आज लोग अपने परिवार में भी इंटरटेनिंग पर्सनैलिटी की तलाश करने लगे हैं। पुत्र भी पिता से अपेक्षा करता है कि वो इंरटेनिंग हों।‘ अगर आज हमारा समाज परिवार में भी इंटरटेनमेंट खोज रहा है तो उसके पीछे के मनोविज्ञान को समझना होगा। इंटरटेनमेंट को खुशहाली के व्यापक अर्थ में देखा जाना चाहिए। समाज के इन बदलते मनोभावों को जो फिल्मकार अपनी फिल्मों में दिखा पा रहे हैं उनको दर्शक मिल रहे हैं और वो अच्छा मुनाफा भी कमा रहे हैं। जो फिल्मकार इसमें असफल हो जा रहे हैं उनको दर्शकों का प्यार नहीं मिल पाता है। आज जब फिल्म उद्योग पटरी पर लौटता दिख रहा है तो फिल्मकारों को बेहद सावधानी के साथ व्यापक अर्थ और संदर्भ में दर्शकों के मनोरंजन का ध्यान रखना होगा। फिल्मों के पुराने घिसे पिटे फार्मूले को छोड़कर मनोरंजन के नए रास्ते तलाशने होंगे। सितारों की छवि के सहारे फिल्म हिट हो जाए ये आवश्यक नहीं है. छवि के साथ साथ कहानी में दर्शकों को बांधे रखने की क्षमता भी होनी चाहिए। पौराणिक कथा को भी अगर फिल्मकार नए संदर्भ और समकालीन विमर्श से परोक्ष रूप से नहीं जोड़ पाएंगे तो फिल्मों की सफलता में संदेह है। ऐसा लगता है कि दक्षिण भारत के फिल्मकार इस ट्रेंड को समझ गए हैं। 


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