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Saturday, August 13, 2022

सलमान रश्दी पर हमले से उपजे प्रश्न


बुकर पुरस्कार से सम्मानित और करीब तीन दशक से भारी सुरक्षा में जीवन बसर कर रहे भारतीय मूल के लेखक सलमान रश्दी पर अमेरिका के न्यूयार्क में हमला हुआ। हमलावर हादी मतर ने उनकी गरदन, हाथ और पेट पर चाकू से वार किए। उनकी हालत गंभीर बनी हुई है। उनके लिटरेरी एजेंट के अनुसार उनकी एक आंख की रोशनी जा सकती है। हमले में उनके हाथ की नस कट गई है और लीवर भी जख्मी हुआ है। सलमान रश्दी पर हमले की आशंका काफी लंबे समय से बनी हुई थी। जब उनकी पुस्तक ‘द सेटेनिक वर्सेस’ प्रकाशित हुई थी तो उनपर ईशनिंदा का आरोप लगा था। उसके बाद 14 फरवरी 1989 को ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला खोमैनी ने सलमान रश्दी की मौत का फतवा जारी किया था। खोमैनी ने उस किताब को ईशनिंदा और इस्लाम का मजाक उड़ाने का दोषी करार दिया था । खोमैनी के फतवे के बाद सलमान रश्दी बहुत दिनों तक सार्वजनिक जीवन से दूर रहे थे। कभी ब्रिटेन में तो कभी नार्वे में रहे। अपने निर्वासन के दिनों को सलमान रश्दी ने अपनी पुस्तक ‘जोसेफ एंटन’ में विस्तार से लिखा है। साढे छह सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में सलमान रश्दी ने निर्वासन का दर्द तो लिखा ही है कई जगहों पर अपने जीवन पर मंडरा रहे आसन्न खतरे का भी उल्लेख किया है। सलमान रश्दी पर हमले के बाद कई बिंदुओं पर एक बार फिर से विचार करने की आवश्यकता है। सलमान पर जानलेवा हमला अमेरिका के शहर न्यूयार्क में हुआ। वो भी करीब ढाई हजार लोगों की उपस्थिति में। यहां ये प्रश्न उठता है कि जो अमेरिका पूरी दुनिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाता रहता है उसके यहां इस तरह के हमले क्यों हो जाते हैं। ब्रिटेन और नार्वे में तो सलमान रश्दी पर हमला नहीं हो पाया। अमेरिका में हमलावरों ने अपने नापाक मंसूबे को कैसे अंजाम तक पहुंचा दिया। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटनेवाला देश अपनी धरती पर एक लेखक को सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकता है? 

सलमान रश्दी पर हमले के बाद दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न ये उठता है कि कोई मजहबी नेता या मजहबी रहनुमा किसी की हत्या का फतवा कैसे जारी कर सकते हैं। इस्लाम में कई बार ये देखने को मिलता है कि ईशनिंदा के आरोप में मौत का फतवा जारी कर दिया जाता है। मौत का फतवा जारी करने के साथ ही इनाम की घो]षणा भी की जाती है। अयातुल्ला खोमैनी ने जब सलमान रश्दी की मौत का फतवा जारी किया था तब भी मारनेवाले को भारी भरकर रकम इनाम में देने की बात की गई थी। ये सब धर्म की आड़ में किया जाता है। अमेरिकी मीडिया में छप रही खबरों के मुताबिक सलमान रश्दी पर हमला करनेवाला हादी मतर इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स नामक संस्था का सदस्य है। इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध उसके परिचय में शिया उग्रवादी संगठनों से संबंध का शक भी है। अब किस तरह से हादी मतर को रैडिकलाइज किया गया कि वो भीड़ के बीच किसी की जान लेने चला गया। 

सलमान रश्दी अकेले नहीं हैं जिनपर ‘द सैटेनिक वर्सेस’ की वजह से हमला हुआ है। द सैटेनिक वर्सेस से जुड़े कई लोगों पर हमले हुए। एक व्यक्ति की तो जान भी गई। 1991 में सलमान की इस पुस्तक का इटालियन में अनुवाद करनेवाले एत्तोरे कैपरियोलो पर मिलान में हमला हुआ। उनके भी गले, हाथ और छाती पर चाकू से वार कर उनको बुरी तरह से घायल कर दिया गया था। 1991 में ही सैटेनिक वर्सेस का जापानी में अनुवाद करनेवाले  हितोशी इहारशी की चाकू मारकर हत्या कर दी गई। उनका शव जापान के एक विश्वविद्यालय के परिसर में मिला था। इसके दो साल बाद नार्वे में उस प्रकाशक पर हमला हुआ जिसने नार्वे में ‘द सैटेनिक वर्सेस’ का प्रकाशन किया था। उनको उनके घर के सामने गोली मारी गई थी जिसमें वो बुरी तरह से जख्मी हो गए थे। इन वारदातों के बाद सलमान रश्दी की सुरक्षा और बढ़ा दी गई थी। अगर नार्वे की घटना को छोड़ दिया जाए तो सभी हमले लगभग एक ही तरीके से किए गए हैं यानि गले पर वार। ऐसा प्रतीत होता है कि हर हमलावर सर को तन से जुदा करने की कोशिश में गले पर वार करता है। 

अब अगर हम अपने देश में सलमान रश्दी पर हुए हमले पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रगतिशील पैरोकारों की प्रतिक्रिया को देखते हैं। लगभग हर जगह इसके लिए धर्मांधता को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, बिना उस धर्म का नाम लिए। जावेद अख्तर ने सलमान पर हमला करनेवाला को ‘किसी कट्टरपंथी’ कहा। उन्होंने हमलावर का नाम और पहचान सामने आने के बाद से चुप्पी साध ली है। हमलावर को इस्लामी कट्टरपंथी कहने में इनके हाथ कांपने लगते हैं, उंगलियां सुन्न हो जाती हैं। अगर कोई अपराधी हिंदू होता है तो उसको हिंदू धर्मांध या हिंदू फैनेटिक कहने में देर नहीं करते हैं। सलमान रश्दी पर हमले के ठीक पहले उन्होंने एक रिट्वीट किया है जिसमें अक्षय कुमार को कनाडा कुमार बताकर उनका मजाक उड़ाया गया है और आमिर खान की इस बात के लिए प्रशंसा की गई है कि उसने अपनी फिल्म पाकिस्तान में रिलीज करने के मना कर दिया था। जावेद अख्तर भी बहुधा नैतिकता की मीनार पर खडे होकर अपनी निष्पक्षता का ढिंढोरा पीटते रहते हैं लेकिन समय आने पर उनकी निष्पक्षता का ढोंग उजागर हो जाता है। कई वामपंथी बुद्धिजीवी सलमान पर हुए हमले को लेकर बहुत हल्की प्रतिक्रिया दे रहे हैं। हमलावर को धर्मांध कहने से इस समस्या का समाधान नहीं निकलनेवाला है। धर्मांध कहकर तो अपराध कम करते हैं। अपराधी के कुकर्मों पर धर्म का परदा डालने की कोशिश करते हैं। 

किसी भी अपराधी को धर्मांध बनाता कौन है इसपर विचार करना होगा, उन कारकों को चिन्हित करना होगा, उन स्थितियों की पहचान करनी होगी जिसमें कोई किसी की जान लेने की हद तक चला जाता है। प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को इन कारणों पर विचार करके मुखर होना पड़ेगा अन्यथा उनकी प्रतिक्रिया रस्म अदायगी बनकर रह जाएगी। वैसे इस जमात से इस प्रकार की अपेक्षा रखना व्यर्थ है क्योंकि निर्वासित बंगालादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन के मसले पर इन्होंने कभी कुछ नहीं बोला। जब बंगाल की वामपंथी सरकार ने उनको पर्याप्त सुरक्षा नहीं दी या जब ममता सरकार ने उनको अपने राज्य में रखने से मना कर दिया, तब भी इन प्रगतिशीलों ने अपने मुंह सिल लिए थे। मेरे जानते दुनिया में इस्लाम अकेला ऐसा मजहब है जिसके माननेवालों के बीच मौत के फतवे की अवधारणा है। धर्म की आड़ में जिस तरह से हत्या होती है उसके बारे में मुस्लिम समाज के रहनुमाओं को भी विचार करना होगा। साहस के साथ इसके विरोध में अपनी आवाज बुलंद करनी होगी। ईशनिंदा की सजा मौत की लगातार मजबूत होती जा रही अवधारणा पर न केवल विचार करने की आवश्यकता है बल्कि इसका निषेध भी समय की मांग है। इसके लिए मुस्लिम समाज को अपने मजहब में व्यापक स्तर पर धार्मिक सुधार की आवश्यकता है। वैज्ञानिक तरीके से अपने मजहबी विचारों की व्याख्या करने की जरूरत है। आधुनिक और सभ्य समाज में कानून और संविधान से बाहर जाकर मौत की सजा देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस बात को प्रचारित प्रसारित करना होगा। यह काम आसान प्रतीत नहीं होता है। लेकिन आज नहीं तो कल इसपर काम करना ही पड़ेगा। बेहतर है कि इस कार्य को शीघ्र आरंभ कर दिया जाए, ताकि कम से कम लोगों की जान जाए और जो दहशत में जी रहे हैं उनको खुली हवा में सांस लेने का अवसर मिल सके। 

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