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Saturday, September 23, 2023

हिंदी पखवाड़ा और भाषाई चुनौतियों


इस समय देश भर के सरकारी कार्यालयों, सरकारी उपक्रमों, कई महाविद्यालयों आदि में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने पुणे में राजभाषा अधिकारियों और हिंदी प्रेमियों को आमंत्रित कर राजभाषा सम्मेलन का आयोजन किया। हिंदी पखवाड़ा मनाए जाने के बीच दो खबरों ने ध्यान आकृष्ट किया। पहली खबर कानपुर से दैनिक जागरण में विगत शुक्रवार को प्रकाशित हुई थी। ये समाचार अखिल भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी सोमेश तिवारी से जुड़ा है। तिवारी का दावा है कि अक्तूबर 2022 में उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी को विभाग में अधिकतर कामकाज अंग्रेजी में होने के बाबत पत्र लिखा था। अनुरोध ये भी किया था कि अधिकतर कामकाज राजभाषा हिंदी में किया जाना चाहिए।  उन्होंने विभाग की हिंदी पत्रिका के लिए समुचित राशि के आवंटन की मांग भी की। उनका आरोप है कि उनके वरिष्ठ अधिकारी को ये नागवार गुजरा। उन्होंने न केवल विभागीय हिंदी पत्रिका बंद कर दी बल्कि सोमेश तिवारी का तबादला आंध्र प्रदेश के गुंटूर कर दिया। इसके पहले भी हिंदी में कार्यालय का कामकाज करने को लेकर उनका तबादला गुवाहाटी कर दिया गया था। मामला अदालत तक गया था और निर्णय तिवारी के पक्ष में आया था। इस बार भी उन्होंने प्रधनामंत्री और गृहमंत्री आदि को पत्र लिखकर अपनी व्यथा बताई है। 

दूसरी खबर जम्मू से आई। इसमे बताया गया है कि जम्मू कश्मीर पुलिस ने जम्मू संभाग में अपने कार्यलयों में हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने के बीस सदस्यीय समिति का गठन किया है। 5 अगस्त 2019 को संसद ने जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाले संविधान के अनुचछेद 370 को खत्म कर दिया था। इसके पहले जम्मू कश्मीर के सरकारी कार्यालयों में उर्दू और अंग्रेजी में कामकाज होता था क्योंकि वहां की राजभाषा हिंदी नहीं थी। सितंबर 2022 में लोकसभा ने जम्मू कश्मीर की आधिकारिक भाषा अधिनियम पास किया। इसके बाद कश्मीरी, डोगरी और हिंदी को जम्मू कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला। इस अधिनियम के कानून बनने के बाद जम्मू संभाग के सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देन के प्रयास आरंभ हुए। जम्मू कश्मीर पुलिस का हिंदी को बढ़ावा देने के लिए समिति निर्माण का निर्णय इसका ही अंग है। स्वाधीनता के बाद पूरे देश में हिंदी राजभाषा के रूप में प्रयोग में लाई जा रही थी लेकिन अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को जो विशेष दर्जा प्राप्त होने के कारण वहां सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिंदी का प्रयोग नहीं हो रहा था। अब हिंदी के साथ साथ डोगरी और कश्मीरी को भी समान अधिकार मिला है। यह स्थानीय भाषाओं को महत्व देकर हिंदी को शक्ति प्रदान करने की कोशिशों का हिस्सा है। स्थानीय भाषाओं की समृद्धि के साथ हिंदी का भविष्य जुड़ा हुआ है। 

हिंदी पखवाड़े के दौरान केंद्रीय सेवा के एक अधिकारी के हिंदी प्रेम के चलते तबादले का समाचार आना, दूसरी तरफ स्वाधीनता के बाद हिंदी को मान देने के लिए प्रयास आरंभ होना, विरोधाभास जैसा प्रतीत होता है। दरअसल सरकारी कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग में सबसे बड़ी बाधा अधिकारियों की वो मानसिकता है जिसमें उनको लगता है कि अंग्रेजी श्रेष्ठ है। अफसरों में अंग्रेजी को लेकर जो श्रेष्ठता बोध है वो अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के बीच गहरे तक धंसा हुआ है। आज हालात ये है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अपने भाषणों में, अपने सरकारी कामकाज में हिंदी को प्राथमिकता देते हैं। जब अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से संवाद करते हैं तो वो हिंदी में होता है। इनको जो फाइलें भेजी जाती हैं,उनमें अधिकतर टिप्पणियां हिंदी में होती हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष लाल किले की प्राचीर से पांच प्रण की घोषणा की थी। उसमें एक प्रण पराधीनता की मानसिकता को खत्म करने का भी था। अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों में भाषा को लेकर गुलामी की मानसिकता सबसे अधिक है। इसी मानसिकता का परिणाम है कि हिंदी के प्रयोग करने का प्रयास करनेवाले अधिकारी को गैर हिंदी प्रदेश के ऐसे जिले में भेज दिया जाता है जहां हिंदी का उपयोग एक चुनौती है। अमृत काल में पराधीनता की इस मानसिकता से मुक्ति सबसे बड़ी चुनौती है। 

पुणे में भले ही राजभाषा सम्मेलन का आयोजन हो गया। फिल्मी सितारों और चमकते चेहरों से हिंदी में संवाद भी हुआ,शब्दकोश आदि की घोषणा की गई। उसके बाद देशभर में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। कई कार्यलयों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए शपथ आदि भी दिलवाया जा रहा है। लेकिन अंग्रेजी के श्रेष्ठता बोध को खत्म करने के लिए किसी प्रकार का कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं पर जोर दिया गया है लेकिन इसके क्रियान्वयन की गति थोड़ी धीमी है। गांधी जी को इस बात की आशंका थी और वो बार बार हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग को लेकर आग्रह करते रहते थे। 1921 में ही उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी से प्रेरणा लेने की गलत भावना से छुटकारा होना स्वराज्य के लिए अति आवश्यक है। फिर उन्होंने 1947 में हरिजन पत्रिका में एक लेख लिखकर कहा था कि जिस प्रकार भारत के लोगों ने सत्ता हड़पनेवाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक उखाड़ फेंका उसी प्रकार सांस्कृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को भी हटा देना चाहिए। यह आवश्यक परिवर्तन करने में जितनी देरी होगी उतनी ही अधिक राष्ट्र की सांस्कृतिक हानि होती जाएगी। जब संविधान लागू हुआ तो तय ये हुआ कि अंग्रेजी चलती रहेगी। हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो मिला लेकिन अंग्रेजी के साथ साथ चलते रहने के निर्णय के कारण राजकाज की प्राथमिक भाषा अंग्रेजी बनी रही। स्वाधीनता के बाद सत्ता में आए नेता गांधी की बातों को राजनीतिक कारणों से नजरअंदाज करते रहे।

संविधान लागू होने के 15 वर्ष बाद हिंदी और अंग्रेजी के प्रयोग को लेकर पुनर्विचार आरंभ हुआ। उस वक्त के गृह मंत्री लालबहादुर शास्त्री ने संसद में कहा कि ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ तब कवि लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने गृहमंत्री के उक्त वाक्य को उद्धृत करते हुए कहा था कि ‘जिस प्रकार सरकार भाषा को लेकर में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ वही हुआ। 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में एक ऐसा वाक्य कह दिया जिसकी वजह से अंग्रेजी आज भी सरकारी कामकाज में प्राथमिकता पर है। तब नेहरू ने कहा था कि ‘जबतक अहिंदी भाषी राज्य अंग्रेजी को चलाना चाहेंगे तब तक हिंदी के साथ-साथ केंद्र में अंग्रेजी भी चलती रहेगी।‘ यह ठीक बात है कि ये अंग्रेजी के श्रेष्ठता बोध की जो औपनिवेशिक मानसिकता है उसको खत्म करना या कम करना बेहद चुनौतीपूर्ण है। यह चुनौती आज की है भी नहीं। नेहरू जी स्वयं हिंदी से अधिक अंग्रेजी में सहज थे इस कारण भी अधिकारी सरकारी कामकाज में अंग्रेजी को प्राथमिकता देते थे। अब आवश्यकता इस बात की है कि भाषा को लेकर देशव्यापी चर्चा हो। भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के मुकाबले प्राथमिकता देने को लेकर राज्य सरकारों को विश्वास में लिया जाए। गैर हिंदी प्रदेशों में हिंदी को लेकर जो एक भय का छद्म वातावरण तैयार किया गया है उसका निषेध किया जाए। भाषा को राजनीति से दूर रखा जाए। अगर ऐसा हो पाता है तो हिंदी समेत तमाम भारतीय भारतीय भाषाओं को ताकत मिलेगी और किसी सोमेश तिवारी को हिंदी में कामकाज करने के लिए गुंटूर भेजने का साहस कोई अधिकारी नहीं कर पाएगा।   


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