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Saturday, September 9, 2023

भाषा में नहीं हो राजनीति का घालमेल


नई दिल्ली में आयोजित जी 20 शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब अपना वक्तव्य दे रहे थे तो उनकी सीट के सामने भारत लिखा था। इसके पहले राष्ट्रपति ने राष्ट्र प्रमुखों के लिए जो भोज का आयोजन किया है उसके निमंत्रण पत्र में भी प्रेसिडेंट आफ भारत लिखा गया था। जी 20 सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संबोधन हिंदी में हुआ। इसको कुछ लोग राजनीति के चश्मे से देख रहे हैं जबकि ये भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने का उपक्रम मात्र है। यह प्रधानमंत्री के स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में प्रधानमंत्री के पंच प्रण के अनुसार उठाया जा रहा कदम है। भारत शब्द में जो अपनत्व का बोध है या इस शब्द से लोगों का जो जुड़ाव है वो अपेक्षाकृत इंडिया से काफी अधिक है। नरेन्द्र मोदी संसद में भी और वैश्विक मंचों पर भी हिंदी में ही भाषण देते हैं। लोगों को वो क्षण भी याद है जब प्रधानमंत्री ने अपने पिछले अमेरिकी दौरे में व्हाइट हाउस में अपने स्वागत के समय हिंदी में वक्तव्य दिया और अमेरिका के राष्ट्रपति और उनकी पत्नी खड़े होकर मोदी के हिंदी में दिए गए वक्तव्य को  सुन रही थीं। संभव है उन्होंने इसको समझने के लिए अनुवाद यंत्र का उपयोग किया होगा। इस सरकार के मंत्री भी यथासंभव भारतीय भाषाओं में ही संवाद करते हैं। इससे भी भारतीय भाषाओं के बीच सामंजस्य बनता है।  

जी 20 सम्मेलन के पहले गृह मंत्री अमित शाह ने संसदीय राजभाषा समिति की बैठक की अध्यक्षता करते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में देश के सामने पांच प्रण रखे थे। जिनमें से दो प्रण हैं- विरासत का सम्मान और गुलामी के चिन्हों को मिटाना। अमित शाह ने उस बैठक में बताया था कि इन दोनों प्रण के शत-प्रतिशत क्रियान्वयन के लिए सभी भारतीय भाषाओं और राजभाषा को अपनी शक्ति दिखानी होगी। विरासत का सम्मान भाषा के सम्मान के बिना अधूरा है। राजभाषा की स्वीकृति तभी आएगी जब स्थानीय भाषाओं को सम्मान देंगे। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी कि हिन्दी की स्पर्धा स्थानीय भाषाओं से नहीं है। सभी भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने से ही राष्ट्र सशक्त होगा। इसके पहले भी गृह मंत्री राजभाषा हिंदी को लेकर इस तरह की बातें करते रहे हैं। अगर मोदी सरकार के पिछले 9 वर्षों के कार्यकाल को देखें तो हिंदी को भारतीय भाषाओं के साथ लेकर चलने का जो प्रयास दिखाई देता है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। बिना किसी पर हिंदी थोपे अपने व्यवहार से और भारतीय भाषाओं के उन्नयन की योजना के क्रियान्वयन से हिंदी को शक्ति देने का प्रयास हो रहा है। अमित शाह ने संसदीय समिति की बैठक में स्पष्ट भी किया था कि राजभाषा की स्वीकृति कानून या सर्कुलर से नहीं बल्कि सद्भावना, प्रेरणा और प्रयास से आती है।

जब इंजीनियरिंग और मेडिकल के पाठ्यक्रम और पुस्तकों को भारतीय भाषाओं में तैयार करने की बारी आई तो इसको 10 भारतीय भाषाओं में तैयार किया गया। इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई भी 10 भारतीय भाषाओं में आरंभ हुई। अगर सिर्फ हिंदी में शुरुआत की जाती तो अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों को ये लग सकता था कि उनपर हिंदी थोपी जा रही है। हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं पर वरीयता दी जा रही है। सरकार की तरफ से ये कहा जा रहा है कि जब ये पाठ्यक्रम सभी भारतीय भाषाओं में आरंभ हो जाएंगे तो वो क्षण स्थानीय भाषा और राजभाषा के उदय का क्षण होगा। स्वाधीनता के अमृत काल में ये एक बेहद सुखद संकेत है कि वर्तमान सरकार ये मानती है कि विरासत का सम्मान भाषा के सम्मान के बिना अधूरा है और राजभाषा की स्वीकृति या व्याप्ति तभी बढ़ेगी जब सभी भारतीय भाषाओं को एक प्रकार का सम्मान दिया जाएगा। यह अकारण नहीं है कि भाषा को लेकर अगर इक्का दुक्का राजनीतिक दल या नेताओं को छोड़ दें तो कहीं से भी इसके विरोध के स्वर सुनने को नहीं मिलते हैं। अब उनसे क्या अपेक्षा की जाए जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए सनातन की भी आलोचना करने से नहीं चूकते हैं। भाषा को लेकर राजनीति को जनता ना केवल समझ चुकी है बल्कि इससे ऊब भी चुकी है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी जिस तरह से भारतीय भाषाओं पर जोर है उसने भी हिंदी विरोध को कम किया है। इस नीति में सभी भारतीय भाषाओं को एक समान महत्व दिया गया है। सरकार इसको लेकर इतनी सतर्क है कि पूरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहीं भी हिंदी शब्द का उल्लेख नहीं है। 

दरअसल अगर हम भारतीय भाषाओं के बीच कटुता के कारणों की ओर नजर डालते हैं तो इसके बीज हमें औपनिवेशिक काल में दिखाई देते हैं। जब अंग्रेज भारत आए और मुगलों को परास्त करके सत्ता पर काबिज हुए तो उनके पास भाषा को लेकर कोई नीति नहीं थी। भारतीय भाषाओं को लेकर अंग्रेजों का दृष्टिकोण और नीति उनके हितों के आधार पर तय होती थी। उन्नीसवीं शताब्दी के समाप्त होते होते अंग्रेजों ने भाषा को लेकर ठोस नीति बनाने पर विमर्श आरंभ किया। भाषा के वर्गीकरण, उसकी भौगोलिक सीमा और भाषाई परिवार को तय करने का कार्य भी आरंभ किया। इसके पहले तो भाषा और उसके वर्गीकरण का काम ईसाई मिशनरियों के जिम्मे था। अंग्रेज अधिकारी भारतीय भाषा को सीखने में रुचि नहीं दिखाते थे वो तो बस इतना सीखना चाहते थे ताकि उनका राज काज चल सके। सबसे पहले उन्होंने फारसी सीखी ताकि मुगलों और उनके कारिदों के साथ संवाद हो सके। पलासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों को लगा कि भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं के धर्म और उनकी भाषा को जाने बिना उनपर शासन करने में कठिनाई होगी। इसको ध्यान में रखते हुए उन्होंने भारतीय भाषाओं और धर्म के विभिन्न पहलुओं के बारे में जानने का प्रयास आरंभ किया। 1792 में वारेन हेस्टिंग्स की योजना में भी ये तय किया गया कि भारत पर लंबे समय तक शासन भारतीय संवेदनाओं को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। बाद में भाषा को लेकर अंग्रेजों ने ग्रियर्सन की अगुवाई में लिंग्विस्टिक सर्वे करवाया। 

स्वाधीनता आंदोलन ने जब जोर पकड़ा तो भाषा को सामाजिक और राजनीतिक लामबंदी के लिए उपयोग किया गया। गांधी ने हिंदी की महत्ता को समझते हुए अपने आरंभिक दिनों में इसको वरीयता दी और राजनीतिक औजार के तौर पर उपयोग किया। गांधी के इस कदम के पहले भी और बाद में भी गैर हिंदी भाषी स्वाधीनता सेनानियों ने हिंदी को शक्ति प्रदान करने पर बल दिया था चाहे वो बंगाल के भूदेव मुखर्जी हों या महाराष्ट्र के वीर सावरकर। उस समय अंग्रेजों ने हिंदी के सामने उर्दू को खड़ा कर दिया और हिंदी उर्दू विवाद को हवा दी। अलीगढ़ के कुछ विद्वानों ने हिंदी उर्दू विवाद को हवा भी दी। यह अकारण नहीं है कि बाद के दिनों में जब स्वाधीनता संग्राम की चर्चा होती तो हिंदी उर्दू और हिंदी राष्ट्रवाद के आधार पर आकलन होता। उसमें अन्य भारतीय भाषाओं के योगदान की चर्चा लगभग गौण रह जाती। स्वाधीनता के बाद भी ये क्रम चलता रहा। परिणाम ये हुआ कि अन्य भारतीय भाषा के लोगों के बीच हिंदी को लेकर एक उपेक्षा या शत्रुता भाव दिखने लगा। कालांतर में जब भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्यता और बढ़ी। इस पृष्ठभूमि में अगर विचार करें तो आज हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच जो समन्वय दिखता है वो शुभ संकेत है। आज देश की जनता भी समझ गई है कि राष्ट्र की संपर्क भाषा को न सिर्फ समझ रही है बल्कि स्वीकार भी कर रही है। समय आ गया है कि भाषा में बंटवारे के औपवनिवेशिक बीज को समाप्त किया जाए। 

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