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Saturday, April 6, 2024

अभिव्यक्ति की सुविधाजनक व्याख्या


फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के बीते शुक्रवार को दूरदर्शन पर दिखाने को लेकर केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन से लेकर कई अन्य नेताओं ने विरोध जताया। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर टिप्पणियों से लेकर मामला कोर्ट तक में पहुंचा। एक कवि ने केरल हाईकोर्ट से अनुरोध किया कि इस फिल्म को आमचुनाव के संपन्न होने तक दूरदर्शन पर दिखाए जाने पर रोक लगाई जानी चाहिए। तर्क ये दिया गया था कि ये फिल्म धार्मिक आतंकवाद दिखाती है। यह एक एजेंडा फिल्म है जो चुनाव के समय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढावा देगी। याचिका में आरोप लगाया गया था कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी दूरदर्शन का दुरुपयोग कर रही है और दूरदर्शन के माध्यम से अपनी विचारधारा को बढ़ावा दे रही है। केरल हाईकोर्ट ने इस फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाने के निर्णय पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। याचिकाकर्ता ने चुनाव आयोग से लेकर दूरदर्शन के अधिकारियों को भी इस फिल्म के प्रसारण को रोकने के लिए ईमेल भेजी थी। केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने लिखा कि राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता दूरदर्शन को बीजेपी-आरएसएस का प्रोपेगैंडा मशीन बनने से बचना चाहिए। उनके मुताबिक ये फिल्म सांप्रदायिकता को बढ़ावा देनेवाली है और चुनाव के समय इसका प्रसारण अनुचित है। केरल से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे शशि थरूर ने भी कुछ इसी तरह की बातें कीं। उनके मुताबिक ‘इस समय ‘द केरला स्टोरी’ को दिखाना शर्मनाक है। जब ये फिल्म आई थी तो सभी ने कहा था कि ये केरल की स्टोरी नहीं है। केरल तो सांप्रदायिक सद्भाव के लिए जाना जाता है।‘ इस मसले पर वामदलों और कांग्रेस के नेता एक सुर में बोल रहे हैं। दोनों का मानना है कि दूरदर्शन पर इस फिल्म को दिखाने का निर्णय चुनाव को प्रभावित करने की मंशा से किया जा रहा है। ये सभी वो लोग हैं जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चैंपियन बताते हैं। दिन रात संविधान को बचाने की कसमें खाते हैं। 

प्रश्न यही उठता है कि क्या संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वाधीनता कुछ चुनिंदा लोगों या विचारधारा को प्रदान की है। क्या ‘द केरला स्टोरी’ के निर्माताओं को संविधान अभिव्यक्ति की स्वाधीनता नहीं देता है। फिल्म का विरोध तब जबकि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको सार्वजनिक प्रदर्शन के उपयुक्त माना था। पिछले वर्ष इस फिल्म की रिलीज के समय भी इसी तरह का वैचारिक बवाल मचा था। जिन्होंने फिल्म देखी नहीं थी वो ट्रेलर को देखकर इसको एजेंडा फिल्म करार दे रहे थे। वाम दलों और कांग्रेस के नेताओं को अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की इतनी ही चिंता होती तो वो इसके दूरदर्शन पर दिखाए जाने का विरोध नहीं करते। इस फिल्म को देखते या अपने समर्थकों को इसको देखने के लिए प्रेरित करते। फिल्म को देखने के बाद इसकी कमजोरियों को समाज के सामने प्रस्तुत करते। फिल्म देखे बिना उसका विरोध करना और उसको एजेंडा और प्रोपगैंडा बताना कानून समम्त तो नहीं ही कहा जा सकता है। आपको याद दिला दें कि जब ये फिल्म रिलीज होने वाली थी तब भी केरल हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दाखिल कर प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की गई थी। उस समय भी हाईकोर्ट ने फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से मना कर दिया था। जब एकबार फिल्मों को प्रमाणपत्र देनेवाली संस्था केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको पास कर दिया था तो फिर से उसके प्रदर्शन को रोकने की मंशा सिर्फ और सिर्फ राजनीति प्रतीत होती है। क्या कोई विचारधारा इतनी कमजोर होती है कि वो एक फिल्म से हिल जाए या खतरे में आ जाए। विचार करना चाहिए। 

पिछले साल इस फिल्म को लेकर केरल हाईकोर्ट ने जो टिप्पणी की थी उसको एक बार फिर से याद दिलाने की आवश्यकता है। केरल हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के साथ फिल्म के ट्रेलर को कोर्ट में ही देखा था। देखने के बाद कहा था कि ये काल्पनिक है। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस फिक्शनल फिल्म का उद्देश्य मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश करना है। कोर्ट ने इससे भी असहमति जताते हुए कहा था कि फिल्मों में कई तरह की चीजें दिखाई जाती हैं। भूत और पिशाच भी नहीं होते हैं लेकिन फिल्मों में काल्पनिक रूप से उनको दिखाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति नागरेश ने की थी और कहा था कि कई फिल्मों में हिंदू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी दिखाया गया है लेकिन कभी भी किसी ने उसपर आपत्ति नहीं जताई। हिंदी और मलयालम में इस तरह की कई फिल्में देखी होगी। मलयालम में तो एक फिल्म में पुजारी को मूर्ति पर थूकते दिखाया गया था लेकिन उससे भी किसी प्रकार की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि वो फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी। न्यायमूर्ति की इस टिप्पणी ने भारतीय फिल्म जगत के उस एजेंडे को बेनकाब कर दिया था जो अबतक फिल्मों में चल रहा है। कोर्ट की ये टिप्पणी भी उल्लेखनीय रही कि ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ नहीं है, इस्लाम पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया गया है। इस फिल्म में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के करतूतों को दिखाया गया है। बावजूद इसके फिल्म का विरोध तब भी हुआ था और अब भी हुआ। आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ना बिल्कुल गलत है। ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। ऐसा अदालत ने भी माना था।

दरअसल वाम दल और कांग्रेस पार्टी के नेता इस फिल्म के जरिए अपनी राजनीति चमकाने की फिराक में दिखाई देते हैं। फिल्म आतंकवादी संगठन के विरोध में है और वो इसको सांप्रदायिक सद्भाव भड़कानेवाली फिल्म बता रहे हैं। यह तो युवा पीढ़ी को आतंकवाद के खतरे से आगाह करती हुई फिल्म है। इसमें उन खतरों को दिखाया गया है जिसके कारण युवक और युवतियों की जिंदगियां तबाह हो रही हैं। दरअसल द केरला स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स या वैक्सीन वार ऐसी फिल्में हैं जो वाम दलों के विचार का पोषण नहीं करती हैं। ये फिल्में भारतीय विचार को आगे बढ़ाती हैं जिसके कारण कुछ लोगों को आपत्ति होती है। उनको लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जिस तरह से मिशन कश्मीर और फना के माध्यम से आतंक और आतंकवादियों को लेकर एक रोमांटिसिज्म दिखाया जाता रहा है उसको चुनौती कैसे दी जा सकती है। जो लोग द केरला स्टोरी या द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों का विरोध करते हैं वो सच से मुंह मोड़ते नजर आते हैं। हमारे समाज में इस तरह का जो कुछ भी घटित हो रहा है, जो युवा पीढ़ी को बरगलाती है, इतिहास के क्रूर पन्ने को छिपाती है, उसको दिखाने का अधिकार संविधान भारत के हर नागरिक को देता है। दिखाने की क्या सीमा हो उसको केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड तय करता है। संसद से पारित चलचित्र अधिनियम में सबकुछ स्पष्ट लिखा है कि किस तरह की फिल्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा सकता है और किसका नहीं। संविधान बचाने की बात करनेवाले दल और नेता जब संविधान के अंतर्गत निर्मित संस्था के निर्णयों के विरुद्ध जाकर राजनीति करते हैं तो ऐसा लगता है कि संविधान बचाने की बात सिर्फ राजनीति है। उनकी आस्था संवैधानिक संस्थाओं में नहीं है। संविधान सभी नागरिकों को विरोध करने का अधिकार देता है लेकिन यह भी बताता है कि विरोध किसी की अभिव्यक्ति की स्वाधीनता को बाधित न करे। फिल्मों पर राजनीति बंद होने चाहिए। फिल्मों के कंटेंट पर बात होनी चाहिए, उनके ट्रीटमेंट के तरीके पर बात होनी चाहिए। उसके पक्ष-विपक्ष में लिखा जाना चाहिए लेकिन सिरे से किसी भी प्रमाणित फिल्म के प्रसारण को रोकने की मांग अनुचित है। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का चुनिंदा होना खतरनाक है।  


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