लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद से फेसबुक पर हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों ने ऐसा स्तरहीन विवाद छेड़ा हुआ है जिससे साहित्य जगत शर्मसार हो रहा है। सतही, व्यक्तिगत और अश्लील टिप्पणियों की भरमार है। लोग एक दूसरे से अपनी खुंदक में किसी भी हद तक जा रहे हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े युवा और नवोदित वृद्ध पीढ़ी के अनेक लेखक व्यक्तिगत कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए स्ततरहीन टिप्पणियां कर रहे हैं। इन टिप्पणियों से साहित्य जगत बजबजा रहा है। आभासी दुनिया के इस घटिया वातावरण में जनवादी लेखक संघ (जलेस) से जुड़े संजीव कुमार ने फेसबुक पर बहुत ही चतुराई से एक बहस को आरंभ करने का प्रयास किया। चतुराई इस कारण कि उन्होंने हिटलर और स्टालिन की तुलना करने के लिए एक पुस्तक के अनुदित अंश का हवाला दिया। हिटलर और स्टालिन को लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई बार बहस हो चुकी है और हर बार निष्कर्ष यही निकला था कि दोनों क्रूर तानाशाह थे। परंतु यह माना जाता है कि वैचारिक मुद्दे बीस साल बाद हर पीढ़ी के सामने अपने अपने तरीके से रखे जाने चाहिए। इससे युवाओं के विचारों को प्रभावित करने और उसको गढ़ने में मदद मिलती है। कम्युनिस्ट प्रचारक बहुधा इस प्रविधि का उपयोग करते रहते हैं। अब भी कर रहे हैं। परंतु संजीव की इस बात के लिए प्रशंसा करनी चाहिए कि फेसबुक पर साहित्य को लेकर जिस तरह की गंदगी हो रही है उसमें उन्होंने एक वैचारिक मुद्दा तो उठाया। संजीव कुमार की इस टिप्पणी पर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया आ रही है वो भी निराश ही करती है। वामपंथ से जुड़े छोटे और मंझोले लेखकों की उनकी पोस्ट पर टिप्पणियों को पढ़कर लगता है कि वो लहालोट हो रहे हैं
अब हिटलर और स्टालिन की तुलना पर आते हैं। संजीव ने अनुवाद का अंश लगाने के पहले एक टिप्पणी लिखी- एक ही सांस में हिटलर और स्टालिन दोनों का नाम लेना इन दिनों बहुत आम है। कई उदारपंथी बुद्धिजीवियों ने तो बीच में ठीक-ठाक कोशिश की कि नरेंद्र मोदी के प्रसंग में बार-बार याद किये जाने वाले हिटलर को स्टालिन से रिप्लेस कर दिया जाए। इसे देखते हुए आइजक डाटशर की किताब ‘स्टालिन: अ पोलिटिकल बायोग्राफी’ का एक हिस्सा बहुत दिनों से अनुवाद करके साझा करना चाहता था। टलते-टलते आज संयोग बना है। जो लोग आइजक डाटशर से परिचित न हों, उनके लिए इतना जानना काफी होगा कि वे एक पोलिश मार्क्सवादी थे जो 1932 में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित हुए। 1939 में इंगलैंड चले गए और फिर आजीवन आत्मारोपित निर्वासन में ही रहे। वे ट्रोट्स्की के मुरीद थे और तीन खण्डों में उन्होंने ट्रोट्स्की की जो जीवनी लिखी है, वह आधुनिक क्लासिक मानी जाती है उससे पहले, 1949 में उन्होंने स्टालिन की जीवनी लिखी जो, जाहिर है, काफ़ी आलोचनात्मक है। यह अंश उसी के आखिरी अध्याय से है। अनुवाद का अंश लंबा है लेकिन संजीव उसके बहाने ये साबित करना चाहते हैं कि हिटलर की क्रूरता विध्वंस के लिए थी जबकि स्टालिन की निर्माण के लिए। अनुवाद में कहा गया है कि हिटलर जिस जर्मनी को छोड़कर गया वो दरिद्र और वहशी था। वहीं स्टालिन के शासनकाल में रूस का विकास हुआ। अब जरा इसकी पड़ताल करनी चाहिए। आगे बढ़ने से पहले ये देख लेते हैं कि हिटलर का कालखंड क्या था और स्टालिन का क्या था। हिटलर 1933-1939 तक सत्ता में रहा। जबकि स्टालिन ने 1924 से 1953 तक सोवियत रूस पर राज किया। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संजीव स्टालिन के संबंध में एक मार्क्सवादी लेखक का ही उद्धरण दे रहे हैं।
असली कहानी तो इसी कालखंड में है। स्टालिन और हिटलर में कोई दुश्मनी नहीं थी। बल्कि कहा तो ये जाता है कि हिटलर ने बर्बरता के बहुत से तरीके जोसेफ स्टालिन से सीखे। जब हिटलर जर्मनी का चासंलर बना तबतक स्टालिन ने रूस में अपनी सत्ता की जड़ें काफी मजबूत कर ली थीं। दोनों एक दूसरे से बर्बरता और अधिकनायकवाद सीख रहे थे। अगर होलोकास्ट ब्रिटानिका को देखें तो पता चलता है कि 23 अगस्त 1939 में हिटलर और स्टालिन ने एक समझौता किया। इस समझौते पर जर्मनी और सोवियत रूस के विदेश मंत्रियों ने हस्ताक्षर किए। इस समझौते को हिटलर-स्टालिन समझौता कहा जाता है। हिटलर और स्टालिन के बीच हुए इस समझौते के दो भाग थे। एक भाग जो सार्वजनिक किया गया और दूसरे को गोपनीय रखा गया। जो भाग सार्वजनिक किया गया उसमें समझौता ये था कि दोनों देश एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे। पर खतरनाक वो हिस्सा था जिसको उस समय गोपनीय रखा गया था। गोपनीय हिस्सा था पूर्वी यूरोप में दोनों देशों का दबदबा बनाना और पोलेंड का आपस में बंटवारा करना। ये समझौता दस वर्षों के लिए किया गया था और अगर दोनों में से किसी देश से आपत्ति नहीं आती तो अगले पांच वर्षों तक ये स्वत: बढ़ जाता । समझौते के एक ही सप्ताह बाद जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया। युद्ध चल ही रहा था कि सोवियत रूस ने पूर्वी दिशा से पोलैंड पर हमला कर दिया। फिर दोनों ने गोपनीय समझौते के अनुसार पोलैंड को आपस में बांट लिया। कई इतिहासकार हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए जिम्मेदार मानते हैं लेकिन कुछ लोग हिटलर-स्टालिन समझौते को विश्वयुद्ध की जमीन तैयार करनेवाला बताते हैं क्योंकि इस समझौते के बाद ही सोवियत रूस ने फिनलैंड, लातिविया आदि पर कब्जा किया। इससे ये साबित होता है कि स्टालिन और हिटलर में सहमति थी। दोनों ने पूर्वी यूरोप को आपस में बांट लेने पर सहमति जताई थी और उसके लिए समझौता भी किया था।
अब रही बात देश के निर्माण और विध्वंस की। जर्मनी के विश्वविद्यालयों और विज्ञानियों को खत्म करने की बात होती है और हिटलर को जिम्मेदार बताया जाता है। ये बताते हुए वामपंथी लेखक इस बात को सुविधानुसार तरीके से भुला देते हैं कि हिटलर यहूदियों को समाप्त कर रहा था। उस समय के जर्मनी में शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, मनोरंजन के क्षेत्र में यहूदियों का बोलबाला था। हिटलर को यहूदियों को मारना था तो जो उसके सामने आया मारा गया। इससे भी खतरनाक और बर्बर कार्रवाई तो स्टालिन ने की। 1937 में स्टालिन ने द ग्रेट पर्ज की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधियों, किसानों का जो नरसंहार किया उसको नहीं भूलना चाहिए। स्टालिन इतने पर ही नहीं रुका था उसने तो जातीय नरसंहार किया जिसमें एक अनुमान के मुताबिक दस लाख से अधिक लोगों का कत्ल किया गया। देश के बाहर निर्वासित जीवन जी रहे लोगों को मरवाया गया। जब भी किसी दो व्यक्ति में तुलना होती है तो उसका पैमाना तय किया जाता है। किसी भी पैमाने पर स्टालिन जर्मन तानाशाह हिटलर से अधिक बर्बर, क्रूर, शातिर और वैश्विक समाज के लिए खतरनाक दिखाई देता है। स्टालिनवादी राजनीति मार्क्सवादियों से अधिक हिंसक है। बार बार इस बात का प्रयास किया जाता है कि हिटलर की तुलना में स्टालिन रचनात्मक दिखे। 25 जून को केंद्र सरकार ने संविधान हत्या दिवस घोषित किया है। उसके बाद से ही ये प्रयास दिखाई देने लगा है कि कैसे आपातकाल को उचित ठहराया जाए। ऐसे तर्क गढ़े जाएं जिससे ये लगे कि इंदिरा गांधी ने परिस्थियों से मजबूर होकर देश पर इमरजेंसी थोपी।
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