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Saturday, February 8, 2025

सनातन से कांग्रेस की चिढ़ पुरानी


कुछ दिनों पूर्व कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रयागराज महाकुंभ को लेकर एक बयान दिया था। अपने बयान में खरगे ने गंगा में डुबकी लगाने को रोजगार और भूख से जोड़ा था। बयान की खूब चर्चा हुई थी। खरगे ने उसी तरह की बात की जैसे श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के दौरान कहा जाता था कि अयोध्या में श्रीराममंदिर बनाने से अच्छा हो कि वहां एक अस्पताल या शिक्षण संस्थान बना दिया जाए। इसी संदर्भ में ध्यान आया कि पिछले दिनों श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन डा अनिर्वाण गांगुली से राहुल सांकृत्यायन और भगवान बुद्ध को लेकर किए गए उनके कार्यों और लेखों पर चर्चा हो रही थी। चर्चा तो राहुल सांकृत्यायन के लेखों से आरंभ हुई थी लेकिन बात खरगे जी के कुंभ संबंधी बयान तक जा पहुंची। चर्चा के क्रम में डा गांगुली ने बताया कि नेहरू जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 1956 में साधुओं के पंजीकरण के लिए कांग्रेस पार्टी के सांसद राधा रमण ने एक बिल पेश किया था। उस बिल पर लोकसभा में चर्चा हुई थी। चर्चा खत्म हो गई। पर मन में जिज्ञासा बनी रही कि कांग्रेस के सांसद ने लोकसभा में जो बिल पेश किया था वो क्या था। जिज्ञासा के कारण उस बिल की प्रति की खोज शुरू हुई। इंटरनेट मीडिया पर उक्त बिल की प्रति मिल गई। छह पन्नों के इस बिल को देखकर इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी की साधुओं और संन्यासियों को लेकर सोच क्या रहा होगा। आज अगर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष कुंभ के दौरान पवित्र डुबकी को डुबकी का कंपटीशन कहते हैं तो इसपर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 1956 में संसद में पेश इस बिल संख्या 37 का नाम है, द साधुज एंड संन्यसीज रजिट्रेशन एंड लाइसेंसिंग बिल। नाम से ही स्पष्ट है कि इस बिल का उद्देश्य क्या रहा होगा। 

उक्त बिल में प्रस्तावित किया गया था कि साधु और संन्यासियों को अपने निवास या संन्यास स्थान के जिलाधिकारी के समक्ष अपना रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। कल्पना करिए कि अगर ये बिल पास हो गया होता तो आज योगी आदित्यनाथ का रजिस्ट्रेशन हुआ होता, स्वामी अवधेशानंद जी और चिदानंद जी को साधु होने का लाइसेंस लेना पड़ता। शंकराचार्यों का भी एक रजिस्ट्रेशन नंबर होता। सबसे बड़ी बात तो ये होती कि जबतक रजिस्ट्रेशन न हो जाए या जब तक साधु या संन्यासी होने का लाइसेंस न मिल जाए तबतक कोई भी व्यक्ति खुद को न तो साधु कह सकता था और ना ही किसी मठ का मंदिर का महंथ बता सकता था। इतना ही नहीं साधुओं को लाइसेंस जारी करनेवाले अधिकारी को प्रत्येक साधु के बारे में एक रजिस्टर बनाना होता। इस रजिस्टर में साधु का लाइसेंस जारी करने के पहले का उनका नाम, उनकी उम्र, लिंग और धर्म की जानकारी दर्ज करनी होती। साधु बनने के पहले उनका पेशा क्या था, वो अपना जीवनयापन किन साधनों से कर रहे थे और वो किस क्षेत्र के रहनेवाले थे ये सब जानकारी उस रजिस्टर में दर्ज करनी होती। साधु बनने के बाद वो किस मठ या आश्रम में रहनेवाले होते ये जानकारी देनी होती। जिनको भी साधु का लाइसेंस चाहिए उनको संबंधित जिलाधिकारी को लिखित में आवेदन करना होता। इस बिल में लाइसेंसिंग अधिकारी से ये अपेक्षा की गई थी कि वो आवेदन मिलने के बाद तथ्यों की जांच करे और संतुष्ट होने के बाद ही संन्यासी होने का लाइसेंस जारी करे। जिलाधिकारी या लाइसेंसिंग अधिकारी को ये अधिकार प्रस्तावित किया गया था कि वो चाहे तो आवेदक के जीवन या उसके क्रियाकलापों के धार पर लाइसेंस के आवेदन को रद कर सकता है। साधु या संन्यासी बनने के प्रत्यक आकांक्षी को दस वर्षों के लिए लाइसेंस दिया जाना प्रस्तावित था। दस वर्षों के बाद इस लाइसेंस का नवीकरण होने था। लाइसेंसिंग अधिकारी को अगर ये लगता कि साधु या संन्यासी अपेक्षित तरीके से जीवन नहीं जी रहे हैं तो वो लाइसेंस को बीच अवधि में भी निरस्त कर सकता था। बिल में लाइसेंस देने और उसको रद करने की प्रकिया बताई गई थी। 

संसद में हर बिल को पेश करने के लिए उसके उद्देश्यों को भी स्पष्ट करना होता है। 1956 के अप्रैल में पेश इस बिल में भी उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। उसके आधार पर ही संसद में बहस होनी थी। बिल में बताया गया था कि हमारे देश में साधु और संन्यासियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इनमें से बहुत सारे लोग साधुओं की वेशभूषा में दोषपूर्ण जीवन जीते हैं। भीख मांगते हैं। असमाजिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। इस प्रवृत्ति को समय रहते ठीक नहीं किया गया तो देश में अपराध में बढ़ोतरी होगी। इस बिल का दूसरा लाभ ये बताया गया था कि रजिस्टर्ड साधुओं के अखिल भारतीय रजिस्टर से सबको पता होगा कि देशभर में कितनी संख्या में साधु और संन्यासी हैं। सरकार के पास हर साधु के बारे में जानकारी होगी । अगर कोई साधु अपराध में लिप्त पाया जाता है तो रजिस्टर से उसके बारे में पूर्ण जानकारी निकाली जा सकेगी। इतने विस्तार से इस बिल के बारे में बताना इस कारण आवश्यक लगा क्योंकि इससे कांग्रेस पार्टी की सनातन के प्रति सोच प्रतिबिंबित होता है।

ये बिल 1956 में ना सिर्फ संसद में पेश हुआ बल्कि अगस्त महीने में इसपर चर्चा भी हुई। बिल पास नहीं हो सका लेकिन नेहरू के प्रधानमंत्री रहते एक ऐसे बिल पर संसद में चर्चा हुई जिसमें सनातन के ध्वजवाहकों को अपमानित करने का प्रयास किया गया। कांग्रेस पार्टी साधुओं और संन्यासियों के स्वधीनता संग्राम में योगदान को भुला बैठी थी। बिल को इस तरह से प्रस्तावित किया गया जिससे  प्रतीत होता है कि सारे साधु और संन्यासी अपराधी हैं। उनका नेशनल रजिस्टर बनाना आवश्यक है, जैसे अपराधियों की हिस्ट्री शीट बनती है। कुछ दिनों पूर्व जब उत्तर प्रदेश सरकार ने कोराबार करनेवालों को अपने प्रतिष्ठानों पर अपना नाम प्रदर्शित करने का आदेश दिया था तब इसी कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने आसमान सर पर उठा लिया था। कांग्रेस के सहयोगी दलों ने भी इसको मुद्दा बनाने का प्रयास किया था। तब किसी ने ये नहीं सोचा कि कांग्रेस पार्टी ने साधुओं के साथ कैसा व्यवहार किया था। 

स्वाधीनता के बाद कांग्रेस पार्टी ने नेहरू के नेतृत्व में इस देश को ऐसा बनाने का प्रयास किया जिसमें सनातन के चिन्ह सार्वजनिक रूप से कम से कम दिखें। दिखें भी तो अपने मूल स्वरूप में न हों। इसके कई उदाहरण इतिहास से पन्नों में दबे हुए हैं। अगर ठीक से नेहरू के शासनकाल के क्रियकलापों पर चर्चा हो जाए तो कांग्रेस पार्टी का मूल चरित्र जनता के सामने आ जाएगा। अकारण नहीं है कि कांग्रेस के नेता सनातन और धर्म को लेकर भ्रमित रहते हैं। उनको वोट लेने के लिए सनातन एक टूल की तरह तो नजर आता है, उसका उपयोग करना चाहते हैं। जब मूल में ही सनातन का विरोध होगा तो टूल का उपयोग सही तरीके से संभव नहीं। वर्तमान कांग्रेस, उसका नेतृत्व और उनकी टिप्पणियों को अगर समग्रता में देखेंगे तो ये भ्रम साफ तौर पर नजर आता है। 


वैश्विक षडयंत्र पर अस्थायी ब्रेक


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद के बजट सत्र आरंभ होने के पहले अपने पारंपरिक वक्तव्य में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही जिसको रेखांकित किया जाना आवश्यक है। उसकी चर्चा आगे करते हैं, उसके पहले ये बताना आवश्यक है कि अपने पारपंरिक भाषण का आरंभ मोदी ने समृद्धि की देवी मां लक्ष्मी की प्रार्थना के साथ किया। बजट सत्र के पहले प्रधानमंत्री का मां लक्ष्मी को याद करना भारतीय परंपरा का पालन और छद्म पंथ निरपेक्षता का निषेध है। बजट सत्र के पहले मां लक्ष्मी को याद करना प्रधानमंत्री का लालकिला की प्राचीर से लिए गए पंच प्रण के अनुरूप भी है। विकसित भारत के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने 2022 में लाल किला की प्राचीर से पंच प्रण लिए थे। उसमें से एक प्रण था गुलामी की सोच से आजादी। बजट सत्र के पहले शायद ही पहले किसी प्रधानमंत्री ने देवी लक्ष्मी का स्मरण किया हो। मोदी ने भारतीयता और धर्म को स्थापित करने के कई छोटे छोटे उपक्रम किए जिसने जनता के मन को छुआ। संसद की सीढ़ियों के सामने खड़े होकर मां लक्ष्मी का स्मरण करना, तीसरी पारी के पहले पूर्ण बजट को विकसित भारत का आधारो बजट बताना महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री ने देश के सर्वांगीण विकास के संकल्प को लेकर मिशन मोड में आगे बढ़ने की बात की। 

अब प्रधानमंत्री के संक्षिप्त भाषण में कही गई उस बात की चर्चा कर लेते हैं जिसका संकेत ऊपर दिया गया है। उन्होंने कहा कि 2014 से लेकर अबतक शायद ये संसद का पहला सत्र है जिसके एक दो दिन पहले कोई विदेशी चिंगारी नहीं भड़की। विदेश से आग लगाने की कोशिश नहीं हुई है। 2014 से मैं देख रहा हूं कि शरारत करने के लिए लोग बैठे हुए हैं और यहां उन शरारतों को हवा देनेवालों की कोई कमी नहीं है। ये पहला सत्र जिसमें किसी भी विदेशी कोने से कोई चिंगारी नहीं उठी। प्रधानमंत्री जब ये बात कह रहे थे तो उनके चेहरे पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान भी थी। बजट सत्र के पहले ना तो किसी हिंडनबर्ग की कोई रिपोर्ट आई ना ही विदेशी मीडिया में भारत को लेकर कोई निगेटिव रिपोर्ट आई। ना ही विपक्षी दलों के नेताओं विदेश की धरती पर कोई सरकार विरोधी बयान दिया। हिंडनबर्ग, जिसने उद्योगपति अदाणी के खिलाफ सनसनीखेज रिपोर्ट प्रकाशित की थी, अपनी दुकान समेटेने की घोषणा कर चुका है। डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद उस देश में सक्रिय भारत विरोधी शक्तियों को झटका लगा है। अमेरिका के जो संगठन भारत में अथिरता फैलाने के लिए धन मुहैया करवाते थे वो भी ट्रंप के गद्दी संभालने के बाद से सशंकित हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने प्रयासों को रोक दिया होगा। वो अलग तरह की रणनीति बनाने में जुटे होंगे ताकि भारत को अस्थिर किया जा सके। अमेरिका से भारत की संस्थाओं को धन भेजने के नए तरीकों की खोज जारी होगी। गृह मंत्रालय ने भी समाजसेवी संगठनों को विदेश से चंदा लेने पर कानून सम्मत होने की ना सिर्फ बात की है बल्कि उसको कानून सम्मत बनाया। इसके अलावा ना तो किसी कोने से मानवाधिकार की बात आई ना ही किसी संस्था ने संसद के बजट सत्र के पहले धार्मिक असिष्णुता की बात की।

प्रधानमंत्री जब ऐसा कह रहे हैं तो ये अकारण नहीं है। भारत विरोधी वातावरण बनाने में विदेश से सक्रिय संगठनों और इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स की भी बड़ी भूमिका रहती है। भारत विरोधी ताकतें इनका उपयोग करके देश में अस्थिरता फैलाने का कार्य करती रही हैं। 2015 में जब कुछ लेखकों ने सरकार के खिलाफ असहिणुता का आरोप लगाकर पुरस्कार वापसी अभियान चलाया था तब उस तरह का संगठित विरोध को देश ने पहली बार देखा था। एक एक करके खास विचारधारा के लेखक और कलाकार पुरस्कार वापसी करते और पहले इंटरनेट मीडिया पर ये बात तेजी से फैलाई जाती। न्यूज चैनलों पर घंटों चर्चा होती। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म सरकार के खिलाफ अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती। होता ये है कि ये संस्थाएं अपना अलगोरिदम बदल देती हैं। सरकार के विरोध वाली पोस्ट अधिक दिखती हैं और समर्थन वाली पोस्ट को बाधित कर देते हैं। पुरस्कार वापसी के समय पूरे देश ने इसको देखा था, नागरिकता संशोधन कानून के समय भी और उसके बाद भी कई अवसरों पर इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म का उपयोग सरकार के विरोध में माहौल बनाने के लिए किया गया था। छोटी घटना को इतना बड़ा कर दिया जाता है कि लगने लगता है कि जनमत सरकार के विरोध में है। सिर्फ अलगोरिदम बदलने से माहौल नहीं बनता है इसके लिए पूरी योजना बनाई जाती है। इंटरनेट मीडिया के माध्यम से देश में सत्ता विरोधी माहौल बनाया जाता है। छोटी सी घटना को इतना बड़ा करवाया दिया जाता है कि लगता है कि देश के सामने सबसे बड़ा मुद्दा वही है। याद करना चाहिए कि 2015 के बाद के कुछ वर्षों में देश में सबसे बड़ा मुद्दा लिंचिंग को बना दिया गया था। फिर मांसाहारियों के खिलाफ वातावरण बनाकर सरकार को घेरने की कोशिश की गई। छिटपुट घटनाओं के आधार पर ऐसा माहौल बनाया गया कि भारतत में अल्पसंख्यकों या मुसलमानों को जानबूझकर टार्गेट किया जा रहा है। समय के साथ ये बात सामने आई कि संगठित तौर पर मुसलमानों के खिलाफ कोई अभियान जैसा नहीं चलाया गया। कुछ आपराधिक घटनाएं घटित हुई थीं जिसको उसी हिसाब से निबटाया भी गया।

इन सबके के अलावा एक और खेल जाता रहा है, वो है लोकतंत्र को बचाने का। लोकतंत्र के नाम पर इस तरह का खेल खेला जाता रहा है जिससे प्रत्यक्ष रूप से तो ये लगता है कि लोगों की आकांक्षाओं को व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं को बचाने कके लिए अभियान चलाया जा रहा है लेकिन होता उसके उलट है। लोकतंत्र कमजोर होता है। अरब स्प्रिंग के नाम से हुए आंदोलन को याद करना चाहिए। 2010 के आसपास मध्यपूर्व और उत्तरी अफ्रीका के कुछ देशों के शासकों को तानाशाह बताकर डिजीटल के माध्यम से उनको गिराने की व्यूह रचना कि गई। 17 दिसंबर 2010 में ट्यूनीशिया में एक ठेलेवाले के साथ दुर्व्यवहार को आधार बनाकर पूरे देश में सत्ता विरोध की ऐसी हवा बनाई गई कि वहां के राष्ट्रपति को 14 जनवरी 2011 को देश छोड़कर भागना पड़ा। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता को राष्ट्रपति बनाया गया। वहां इस्लामिक कट्टरपंथियों, कथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों और अरब स्प्रिंग के पहले के राष्ट्रपति के समर्थकों में संघर्ष आरंभ हुआ जो लंबा चला। सिर्फ ट्यूनीशिया ही क्यों दुनिया के कई देशों में इस तरह से सत्ता परिवर्तन की स्क्रिप्ट लिखी गई और उसपर अमल भी हुआ। बंगलादेश में भी लगभग यही प्रविधि अपनाई गई। 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स ने अपना अलगोरिथम बदला था। मोदी विरोधियों को प्रमुखता दी गई थी। इस बदलाव और उसके प्रभाव पर शोध होना चाहिए। 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी मोदी को तानाशाह बताया गया था। ये भ्रम फैलाया गया था कि उनकी पार्टी संविधान बदलने जा रही है। क्या ऐसा कुछ हुआ। नहीं। विदेश में बैठे कुछ लोग और संस्थाएं भले ही थोड़े समय के लिए चुप हैं लेकिन ये स्थायी होगा इसमें संदेह है। 

(नईदुनिया में रविवार और दैनिक जागरण में सोमवार को प्रकाशित)