कुछ दिनों पूर्व कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने प्रयागराज महाकुंभ को लेकर एक बयान दिया था। अपने बयान में खरगे ने गंगा में डुबकी लगाने को रोजगार और भूख से जोड़ा था। बयान की खूब चर्चा हुई थी। खरगे ने उसी तरह की बात की जैसे श्रीरामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के दौरान कहा जाता था कि अयोध्या में श्रीराममंदिर बनाने से अच्छा हो कि वहां एक अस्पताल या शिक्षण संस्थान बना दिया जाए। इसी संदर्भ में ध्यान आया कि पिछले दिनों श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन डा अनिर्वाण गांगुली से राहुल सांकृत्यायन और भगवान बुद्ध को लेकर किए गए उनके कार्यों और लेखों पर चर्चा हो रही थी। चर्चा तो राहुल सांकृत्यायन के लेखों से आरंभ हुई थी लेकिन बात खरगे जी के कुंभ संबंधी बयान तक जा पहुंची। चर्चा के क्रम में डा गांगुली ने बताया कि नेहरू जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 1956 में साधुओं के पंजीकरण के लिए कांग्रेस पार्टी के सांसद राधा रमण ने एक बिल पेश किया था। उस बिल पर लोकसभा में चर्चा हुई थी। चर्चा खत्म हो गई। पर मन में जिज्ञासा बनी रही कि कांग्रेस के सांसद ने लोकसभा में जो बिल पेश किया था वो क्या था। जिज्ञासा के कारण उस बिल की प्रति की खोज शुरू हुई। इंटरनेट मीडिया पर उक्त बिल की प्रति मिल गई। छह पन्नों के इस बिल को देखकर इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी की साधुओं और संन्यासियों को लेकर सोच क्या रहा होगा। आज अगर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष कुंभ के दौरान पवित्र डुबकी को डुबकी का कंपटीशन कहते हैं तो इसपर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 1956 में संसद में पेश इस बिल संख्या 37 का नाम है, द साधुज एंड संन्यसीज रजिट्रेशन एंड लाइसेंसिंग बिल। नाम से ही स्पष्ट है कि इस बिल का उद्देश्य क्या रहा होगा।
उक्त बिल में प्रस्तावित किया गया था कि साधु और संन्यासियों को अपने निवास या संन्यास स्थान के जिलाधिकारी के समक्ष अपना रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। कल्पना करिए कि अगर ये बिल पास हो गया होता तो आज योगी आदित्यनाथ का रजिस्ट्रेशन हुआ होता, स्वामी अवधेशानंद जी और चिदानंद जी को साधु होने का लाइसेंस लेना पड़ता। शंकराचार्यों का भी एक रजिस्ट्रेशन नंबर होता। सबसे बड़ी बात तो ये होती कि जबतक रजिस्ट्रेशन न हो जाए या जब तक साधु या संन्यासी होने का लाइसेंस न मिल जाए तबतक कोई भी व्यक्ति खुद को न तो साधु कह सकता था और ना ही किसी मठ का मंदिर का महंथ बता सकता था। इतना ही नहीं साधुओं को लाइसेंस जारी करनेवाले अधिकारी को प्रत्येक साधु के बारे में एक रजिस्टर बनाना होता। इस रजिस्टर में साधु का लाइसेंस जारी करने के पहले का उनका नाम, उनकी उम्र, लिंग और धर्म की जानकारी दर्ज करनी होती। साधु बनने के पहले उनका पेशा क्या था, वो अपना जीवनयापन किन साधनों से कर रहे थे और वो किस क्षेत्र के रहनेवाले थे ये सब जानकारी उस रजिस्टर में दर्ज करनी होती। साधु बनने के बाद वो किस मठ या आश्रम में रहनेवाले होते ये जानकारी देनी होती। जिनको भी साधु का लाइसेंस चाहिए उनको संबंधित जिलाधिकारी को लिखित में आवेदन करना होता। इस बिल में लाइसेंसिंग अधिकारी से ये अपेक्षा की गई थी कि वो आवेदन मिलने के बाद तथ्यों की जांच करे और संतुष्ट होने के बाद ही संन्यासी होने का लाइसेंस जारी करे। जिलाधिकारी या लाइसेंसिंग अधिकारी को ये अधिकार प्रस्तावित किया गया था कि वो चाहे तो आवेदक के जीवन या उसके क्रियाकलापों के धार पर लाइसेंस के आवेदन को रद कर सकता है। साधु या संन्यासी बनने के प्रत्यक आकांक्षी को दस वर्षों के लिए लाइसेंस दिया जाना प्रस्तावित था। दस वर्षों के बाद इस लाइसेंस का नवीकरण होने था। लाइसेंसिंग अधिकारी को अगर ये लगता कि साधु या संन्यासी अपेक्षित तरीके से जीवन नहीं जी रहे हैं तो वो लाइसेंस को बीच अवधि में भी निरस्त कर सकता था। बिल में लाइसेंस देने और उसको रद करने की प्रकिया बताई गई थी।
संसद में हर बिल को पेश करने के लिए उसके उद्देश्यों को भी स्पष्ट करना होता है। 1956 के अप्रैल में पेश इस बिल में भी उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। उसके आधार पर ही संसद में बहस होनी थी। बिल में बताया गया था कि हमारे देश में साधु और संन्यासियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इनमें से बहुत सारे लोग साधुओं की वेशभूषा में दोषपूर्ण जीवन जीते हैं। भीख मांगते हैं। असमाजिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। इस प्रवृत्ति को समय रहते ठीक नहीं किया गया तो देश में अपराध में बढ़ोतरी होगी। इस बिल का दूसरा लाभ ये बताया गया था कि रजिस्टर्ड साधुओं के अखिल भारतीय रजिस्टर से सबको पता होगा कि देशभर में कितनी संख्या में साधु और संन्यासी हैं। सरकार के पास हर साधु के बारे में जानकारी होगी । अगर कोई साधु अपराध में लिप्त पाया जाता है तो रजिस्टर से उसके बारे में पूर्ण जानकारी निकाली जा सकेगी। इतने विस्तार से इस बिल के बारे में बताना इस कारण आवश्यक लगा क्योंकि इससे कांग्रेस पार्टी की सनातन के प्रति सोच प्रतिबिंबित होता है।
ये बिल 1956 में ना सिर्फ संसद में पेश हुआ बल्कि अगस्त महीने में इसपर चर्चा भी हुई। बिल पास नहीं हो सका लेकिन नेहरू के प्रधानमंत्री रहते एक ऐसे बिल पर संसद में चर्चा हुई जिसमें सनातन के ध्वजवाहकों को अपमानित करने का प्रयास किया गया। कांग्रेस पार्टी साधुओं और संन्यासियों के स्वधीनता संग्राम में योगदान को भुला बैठी थी। बिल को इस तरह से प्रस्तावित किया गया जिससे प्रतीत होता है कि सारे साधु और संन्यासी अपराधी हैं। उनका नेशनल रजिस्टर बनाना आवश्यक है, जैसे अपराधियों की हिस्ट्री शीट बनती है। कुछ दिनों पूर्व जब उत्तर प्रदेश सरकार ने कोराबार करनेवालों को अपने प्रतिष्ठानों पर अपना नाम प्रदर्शित करने का आदेश दिया था तब इसी कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने आसमान सर पर उठा लिया था। कांग्रेस के सहयोगी दलों ने भी इसको मुद्दा बनाने का प्रयास किया था। तब किसी ने ये नहीं सोचा कि कांग्रेस पार्टी ने साधुओं के साथ कैसा व्यवहार किया था।
स्वाधीनता के बाद कांग्रेस पार्टी ने नेहरू के नेतृत्व में इस देश को ऐसा बनाने का प्रयास किया जिसमें सनातन के चिन्ह सार्वजनिक रूप से कम से कम दिखें। दिखें भी तो अपने मूल स्वरूप में न हों। इसके कई उदाहरण इतिहास से पन्नों में दबे हुए हैं। अगर ठीक से नेहरू के शासनकाल के क्रियकलापों पर चर्चा हो जाए तो कांग्रेस पार्टी का मूल चरित्र जनता के सामने आ जाएगा। अकारण नहीं है कि कांग्रेस के नेता सनातन और धर्म को लेकर भ्रमित रहते हैं। उनको वोट लेने के लिए सनातन एक टूल की तरह तो नजर आता है, उसका उपयोग करना चाहते हैं। जब मूल में ही सनातन का विरोध होगा तो टूल का उपयोग सही तरीके से संभव नहीं। वर्तमान कांग्रेस, उसका नेतृत्व और उनकी टिप्पणियों को अगर समग्रता में देखेंगे तो ये भ्रम साफ तौर पर नजर आता है।
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