पिछले महीने स्वाधीनता दिवस के आसपास झारखंड से कवि चेतन कश्यप ने अमृलाल नागर का एक आलोचक को लिखे पत्र, जो पुस्तकाकार भी प्रकाशित है, का स्क्रीनन शाट भेजा। पुस्तक का नाम है मैं पढ़ा जा चुका पत्र। अमृतलाल नागर उस पत्र में लिखते हैं, तुम सौ फीसदी मार्क्सिस्टों को राम-राम कहने से मुझे बहुत आनंद लाभ होता है। प्रियवर रामविलास जी से तो जै बजरंगबली तक हो जाती है इसलिए तुम सबको सस्नेह राम-राम। तब इस पत्र पर चेतन से चर्चा हुई और कुछ अन्य साहित्यिक विषयों पर भी। बात आई गई हो गई। अभी अचानक एक मित्र ने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘सर्जक मन का पाठ’ के कुछ अंश भेजे। ये पुस्तक वरिष्ठ साहित्यकार गोविन्द मिश्र को साहित्यकारों ने के लिखे पत्रों का संकलन है। इसका जो अंश मुझे मिला वो अमृतलाल नागर के पत्र की तरह ही दिलचस्प है। शैलेश मटियानी ने गोविन्द मिश्र को लिखा, आपने साहित्य द्वारा आत्मिक से साक्षात्कार का प्रश्न भी कुछ विस्तार से लिया है, क्योंकि यही साहित्य का कर्म रहा है। जैसे भौतिक विज्ञान वाह्य जगत, वैसे ही अन्त:विज्ञान भीतरी संसार को प्रतिस्थापित करता है। हम सब जानते हैं कि मनुष्य के भीतर का विस्तार बाह्य जगत के विस्तार से तिल भर भी कम नहीं है। क्योंकि शून्य मनुष्य का भी उतना ही अपरिचित है जितना कि पृथ्वी का। यहीं प्रश्न वह उठाया है कि चूंकि विचारधाराएं सिर्फ राज्य का माडल बनाती हैं लेकिन साहित्य समाज का माडल, इसलिए ही दृष्टि का अंतर पड़ जाता है।‘ अपनी इस टिप्पणी में शैलेश मटियानी ने विचारधारा की सीमाओं को स्पष्ट किया है।
शैलेश मटियानी की आगे की टिप्पणी से स्पष्ट होता है कि वो मार्क्सवाद से झुब्ध थे। आलोचकों और लेखक संगठनों द्वारा मार्क्सवाद को हिंदी साहित्य पर लादे जाने को लेकर भी कठोर टिप्पणी करते हैं। वो लिखते हैं कि मार्क्सवाद को जिस तरह से हिंदी साहित्य पर लादा जा रहा है, इससे ही कोफ्त हुई और थोड़ी सी छेड़खानी इसी निमित्त की है, क्योंकि मार्क्सवाद को साहित्य पर लादना घोड़े की पीठ पर मेढ़क को लादना है। मैं साहित्य के सामने मार्क्सवाद की कोई हैसियत नहीं समझता। मनुष्य के लिए जितनी जगह और जितना विस्तार साहित्य में है, अन्यत्र कहीं नहीं है। आपसे बहुत ईमानदारी से कहना चाहता हूं कि लेखक होने का अहसास ध्वस्त हो चुका है और इसलिए अब लात-जूता खाने का डर नहीं रहा। खोपड़ी-भंजन अब इसलिए भी सुहाने लगा है कि शायद इसके बाद कुछ लेखक हो सकने की गुंजाइश निकल आए, क्योंकि वो जड़ता को कुछ तोड़ने की कोशिश में ही है। खुद पर हंसना आना चाहिए, इस कथन का मर्म आज समझ में आ रहा है और खुद की लकड़बुद्धि पर कई बार मुझे ठहाका लगाने का मन होता है।‘ उन्होंने जिस तरह से लेखकों पर मार्क्सवाद लादने की तुलना घोड़े पर मेढ़क लादने की कोशिश से की है उससे ये स्पष्ट होता है कि वो मानते हैं कि लेखकों पर मार्क्सवाद थोपना कितना कठिन कार्य था। बावजूद इसके मार्कसवादी आलोचकों और लेखक संगठनों ने ये प्रयास तो किया ही। लेखकों पर भले ही मार्क्सवाद नही लाद पाए हों पर हिंदी साहित्य और अकादमिक जगत में उनको सफलता मिली। मार्क्सवाद रूपी मेढ़क को अकादमिक जगत रूपी घोड़े पर लादने में कम्युनिस्ट सफल रहे। उन्होंने वैचारिक रूप से कुछ ऐसे मेढ़क तैयार कर दिए जो घोडे की पीठ पर बैठकर भी यात्रा कर पा रहा है। ये कोई हुनर नहीं है बल्कि मेढ़क को निष्क्रिय करके घोड़े की पीठ पर लाद दिया गया। उसको उसी अवस्था में सबकुछ मिलता रहा और वो सर्वाइव करता रहा।
अब एक तीसरा उदाहरण आपसे समक्ष रखता हूं। ये उदाहरण भी एक पुस्तक से है जिसको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद अनुपम ने फेसबुक पर पोस्ट किया है। ये पुस्तक है देसी पल्प फिक्शन पर केंद्रित बेगमपुल से दरियागंज। उसके उस अंश को देख लेते हैं जो अनुपम जी ने साझा किया, कांबोज के दोस्त सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों का सिलसिला तबतक चल निकला था। पाठक जी याद करते हैं, 1970 तक शर्मा जी के प्रकाशन ‘जनप्रिय’ के यहां से लोकप्रिय सीरीज ते तहत उनके उपन्यासों का स्कोर ग्यारह तक पहुंच गया था जिनमें से तीन- अरब में हंगामा, आपरेशन जारहाजा पोर्ट और आपरेशन पीकिंग- जेम्स बांड सीरीज के थे जो कि शर्मा जी के बेटे महेन्द्र के अनुरोध पर लिखे गए थे। आरती पाकेट बुकस के लेटरहेड पर उसी साल अगस्त में उन्हें शर्मा जी के तीसरे पुत्र सुरेन्द्र के दस्तखत से एक चिट्ठी मिली, पिताजी के आदेशानुसार हम निकट भविष्य में आपके उन उपन्यासों को प्रकाशित करने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं जो रूस विरोध एवं कम्युनिस्ट विरोधी हों। यानि के चार जेम्स बांड उपन्यास के बाद वहां चेतना जागृत हुई कि ये उपन्यास रूस विरोधी होते हैं। शायद रूस और कम्युनिज्म से प्रेम का ट्रेड यूनियन काल वहां दस्तक दे रहा था।‘ इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि किस तरह से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक और प्रकाशक रूस और कम्युनिस्ट विरोध के नाम पर रचनात्मकता को बाधित करते थे, करते रहे और अब भी कर रहे हैं। अब भी प्रकाशन जगत में खुलापन नहीं आया। एक बडा प्रकाशक अब भी कम्युनिस्टों को प्रश्रय देता है। कमीशन करके कम्युनिस्टों से पुस्तकें लिखवाता है। ये सब वही लोग हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर दिन रात छाती कूटते रहते हैं। लेकिन जब अवसर मिलता है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।
उपरोक्त तीन उदाहरणों से स्पष्ट है कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म को लेकर बहुत संगठित और योजनाबद्ध तरीके से साहित्य जगत में कार्य हुआ। लेखन हो, आलोचना हो, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो, पुस्तकों का प्रकाशन हो, पुस्तकों की सरकारी खरीद हो, अकादमिक जगत हो, अकादमियां हों हर जगह अपनी विचारधारा के लोग फिट किए गए। नामवर जी जब राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में थे तो उनपर एक प्रकाशक विशेष को लाभ पहुंचाने के आरोप लगे थे। संसद में भी सवाल उठे थे। एक तरफ तो ये हो रहा था और दूसरी तरफ इन जगहों पर जिन्होंने उस विचारधारा को स्वीकार नहीं किया उनको हाशिए पर डालने में पूरी शक्ति लगा दी गई थी। विश्वविद्यालयों में नौकरी नहीं मिल जाए इसपर नजर रखने के लिए एक टीम रहती थी। जो उम्मीदावारों की वैचारिक पृष्ठभूमि जांचती थी।संस्कृति को भी प्रभावित करने या एक नई संस्कृति बनाने का प्रयास हुआ। सनातन संस्कृति को गंगा-जमुनी तहजीब जैसे भ्रामक पर रोमांटिक शब्दावली से विस्थापित करने का प्रयास हुआ जो आंशिक सफल भी रहा। मार्सवादी विचार और विचारधारा की इस जकड़न में लंबे समय तक रहने से हिंदी साहित्य एकांगी सा होने लगा था। परिणाम ये हुआ कि पाठक साहित्य से दूर होने लगे। अब पाठकों को विचारधारा मुक्त साहित्य का विकल्प मिलने लगा है तो वो फिर से पुस्तकों की ओर लौट रहा है। दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला से लेकर पटना पुस्तक मेला और रांची पुतक मेला में पाठकों की भीड़ हिंदी प्रकाशकों के स्टाल पर आने लगी है। यह आश्वस्ति प्रदान करने वाला है।
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