हिंदी दिवस के पूर्व दिल्ली के प्रतिष्ठित मिरांडा हाउस महाविद्यालय में जागरण संवादी का आयोजन हुआ। दैनिक जागरण के अपनी भाषा हिंदी को समृद्ध करने के उपक्रम ‘हिंदी हैं हम’ के अंतर्गत कई शहरों में संवादी का आयोजन होता है। इस आयोजन में हिंदी भाषा को लेकर भी विचार विनिमय होता है। दिल्ली संवादी में भी भाषा को लेकर सत्रों में चर्चा हुई। आज हिंदी दिवस के अवसर उन चर्चाओं को याद कर रहा था तो अपनी भाषा हिंदी की व्याप्ति को लेकर गर्व का अनुभव हो रहा है। हिंदी हर तरफ बढ़ रही है। देश के प्रधानमंत्री विभिन्न अंतराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में बोलते हैं। गृह मंत्री अमित शाह हिंदी को लेकर उत्साहित रहते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के उपर हिंदी में नाम लिखा जाने लगा है। इनके बारे में विचार करते समय एक बात ध्यान में आई कि हिंदी आज पूरे राष्ट्र में समादृत और स्वीकृत हो रही है तो इसका आaधार कहां से तैयार हुआ। हिंदी के किन पुरोधाओं ने इस भाषा को स्वरूप दिया और उसके लिए किस प्रकार का श्रम किया या उनका क्या योगदान था। सबसे पहले नाम याद आता है है भारतेन्दु का। भारतेन्दु ने हिंदी के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान किया। उनके अलावा भी कई लोग थे जिन्होंने हिंदी के लिए अपनी जिंदगी खपा दी। आज अगर हिंदी की धमक वैश्विक स्तर पर महसूस की जा रही है तो उनको याद करना आवश्यक है। कुछ दिनों पहले मैंने किसी पुस्तक में बाबू श्यामसुंदर दास की आत्मकथा की चर्चा पढ़ी थी। जिज्ञासा हुई इस पुस्तक के बारे में जानने की। दैनिक जागरण के प्रयागराज के संपादकीय प्रभारी राकेश पांडे से मैंने इस पुस्तक की चर्चा की। उनसे आग्रह किया कि 1941 में इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग से प्रकाशित श्यामसुदंर दास की आत्मकथा उपलब्द करवाएं। ये पुस्तक तो उपलब्ध नहीं थी लेकिन प्रयासपूर्वक उनहोंने उसकी फोटो प्रति उपलब्ध करवा दी। उस पुस्तक को पढ़ते ये महसू, हुआ कि व्यक्तियों के अलावा हिंदी को वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिए कई संस्थाओं ने भी उल्लेखनीय कार्य किया। इन संस्थाओं में से एक काशी की नागरी प्रचारिणी सभा भी है।
बाबू श्यामसुंदर दास की पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि 1893 में काशी में स्कूलों में डिबेटिंग क्लब होते थे। बाद में कुछ बच्चों ने अपनी डिबेटिंग सोसाइटी बनाई। गर्मी की छुट्टियों में सोसाइटी का काम बंद हो गया था। 9 जुलाई 1893 को इस सोसाइटी का एक अधिवेशन बाबू हरिदास बुआसाव के अस्तबल के ऊपरी कमरे में हुआ। इसमें आर्यसमाज के उपदेशक शंकर लाल जी आए थे।उनका बेहद जोशीला भाषण हुआ। उसके बाद ये निर्णय हुआ कि अगले सप्ताह 16 जुलाई को फिर सभा हो। इसी दिन ये तय किया गया कि नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की जाए। बाबू श्यामसुंदर दास सभा के मंत्री चुने गए। उनके साथ पंडित रामनारायण मिश्र, ठाकुर शिवकुमार सिंह थे। ये वो समय था जब भारतेन्दु का निधन हो चुका था। हिंदी का नाम लेना भी उस समय पाप समझा जाता था। कचहरियों में इसकी बिल्कुल पूछ नहीं थी। पढ़ाई में केवल मिडिल क्लास तक इसको स्थान मिला था। अधिक संख्या में विद्यार्थी उर्दू लेते थे। वो कहते हैं कि इस अपमान के वातावरण में लड़कों के खिलवाड़ की तरह नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। वो इसको ईश्वर कृपा मानते हैं। जब सभा की स्थापना हुई तो भारतजीवन पत्र के संपादक बाबू कार्तिकप्रसाद ने इसको आश्रय दिया। धीरे धीरे सभा ने हिंदी के लिए ठोस कार्य करने की पहल की। अर्थ का संकट आया। दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह से सभा ने हिंदी का शब्दकोश तैयार करने के लिए आर्थिक सहायता मांगी। उन्होने तत्काल 125 रु की सहायता भेजी। साथ में लिखा कि सभा कार्य आरंभ करे भविष्य में और सहायता पर विचार करेंगे। कांकरौली के महाराज ने भी 100 रु की मदद की। इससे ही नागरी प्रचारिणी सभा ने कार्य आरंभ किया। हिंदी के प्राचीन ग्रंथों की खोज आरंभ हुई। लोग सभा से जुड़ते गए और हिंदी की समृद्धि का कार्य चलता रहा।
इनके अलावा हिंदी को विस्तार देने में सरस्वती पत्रिका और उसके संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। 1903-04 में द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका का संपादन झांसी से किया। द्विवेदी जी बहुत तीखा लिखा करते थे इस कारण जब वो सरस्वती के संपादक हुए तो वरिष्ठ लेखकों ने उनसे असहयोग शुरू कर दिया। कई बार तो उनको सरस्वती के लिए कई लेख स्वयं लिखने पड़ते थे। 1905 में द्विवेदी जी ने झांसी छोड़ दिया और कानपुर के पास जुहीकलां गांव में रहकर सरस्वती का संपादन करने लगे। अब जुही कानपुर शहर का हिस्सा है। जुही में उनके मित्र बाबू सीताराम ने उनकी खूब मदद की। उन्होंने अपने मित्र गिरधर शर्मा नवरत्न को लिखा कि ‘ऊपर भी हमारे सीताराम हैं और नीचे भी सीताराम’। सरस्वती के माध्यम से हिंदी सेवा में द्विवेदी जी इतने तल्लीन हो गए कि वो गंभीर रूप से बीमार हो गए। वर्ष 1910 में सरस्वती के अंकों के संपादन उनके मित्र पं देवीप्रसाद शुक्ल ने किया। जब सालभऱ बाद काम पर लौटे तो दिन रात हिंदी को आकार देने के कार्य में जुटे रहे। कुछ सालों बाद फिर उनका स्वास्थ्य बिगड़ा और 1918 में सरस्वती के संपादन कार्य से दो वर्ष का अवकाश लेना पड़ा। इस बार भी संपादन का दायित्व शुक्ल जी के पास आया। फिर वो वापस लौटे लेकिन ज्यादा दिनों तक कार्य नहीं कर सके। 1921 में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सरस्वती के संपादक बने। द्विवेदी जी अपने गांव दौलतपुर जाकर रहने लगे। 1938 में बीमारियों ने उको जकड़ लिया और दिसंबर में देह त्याग दिया। तब तक द्विवेदी जी हिंदी को ऐसा स्वरूप प्रदान कर चुके थे कि वो युग निर्माता कहलाए।
द्विवेदी जी की सरस्वती में ही सहायक संपादक और फिर संपादक हुए देवीदत्त शुक्ल। सरस्वती के संपादन कार्य के दौरान उन्होंने भाषा और वर्तनी को सुधारने में बहुत श्रम किया। इस दौरान उनकी आंख में भयंकर तकलीफ हुई और उनके आंखों की रोशनी समाप्त हो गई। देवीदत्त शुक्ल ने हिंदी भाषा को और समावेशी बनाया। सरस्वती में साहित्येत्तर विषयों को प्रकाशित किया। यहां सरस्वती पत्रिका के मालिक चिंतामणि घोष को भी याद करना चाहिए। उन्होंने द्विवेदी जी से लेकर सभी संपादकों को खुली छूट दी, सम्मान भी। मदन मोहन मालवीय ने हिंदी को राष्ट्र निर्माण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से जोड़कर कार्य किया। हिंदी के इन महापुरुषों के अलावा भी अन्य कई विद्वानों ने, राजाओं ने और कुछ अफसरों ने भी हिंदी को विकसित करने में अपनी भूमिका दर्ज करवाई। सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसा समपर्ण और हिंदी को स्वरूप देने की जिद कम ही लोगों में दिखती है। आज हिंदी दिवस के अवसर पर द्विवेदी जी जैसे लोगों को याद करना बहुत आवश्यक है। स्मरण तो हिंदी की उस परंपरा को भी करना होगा जिसने भाषा को समृद्ध करने के लिए हस्तलिखित ग्रंथों की खोज की, शब्दकोश तैयार करवाए। पत्रिकाएं निकालीं और हिंदी को फलने फूलने का अवसर उपलब्ध करवाया।
No comments:
Post a Comment