संस्मरण हिन्दी में अपेक्षाकृत नई विधा है जिसका आरंभ द्विवेदी युग से माना जाता है । परंतु इस विधा का असली विकास छायावादी युग में हुआ । इस काल में सरस्वती, सुधा, माधुरी, विशाल भारत आदि पत्रिकाओं में कई उल्लेखनीय संस्मरण प्रकाशित हुए । आगे चलकर छायावादोत्तर काल में तो ये विधा पूरी तरह से एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हुई । संस्मरण साहित्य की सबसे अनमोल निधि वो पत्र पत्रिकाएं हैं, जिनमें संस्मरणात्मक लेख नियमित रूप से प्रकाशित हुए या होते रहे । न सिर्फ हिंदी के लेखकों ने बेहतरीन संस्मरण लिखकर इस विधा को स्थापित किया, बल्कि कुछ विदेशी विद्वानों ने भी हिंदी में अच्छे संस्मरण लिखे । प्रसिद्ध रूसी विद्वान ये. पे. चेलीशेव का संस्मरण – "निराला : जीवन और संघर्ष के मूर्तिमान" आज भी हिंदी पाठकों की स्मृति में है ।
पिछले कुछ वर्षों में राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित 'हंस' और अखिलेश के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'तद्भव' में कई बेहतरीन संस्मरण छपे । चाहे वो काशीनाथ सिंह के संस्मरण हों या रवीन्द्र कालिया के या फिर कांति कुमार जैन के । तदभव की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण इसके शुरुआती अंकों में छपे संस्मरण ही रहे । सारे के सारे संस्मरण खूब पढ़े और सराहे गए । संस्मरणों पर गाहे बगाहे खूब विवाद भी हुए । पर संस्मरणों में आमतौर पर लेखकीय ईमानदारी की जरूरत होती है जो न केवल लेखक की विश्वसीनयता को बढ़ाती है बल्कि लेख को भी एक उंचाई प्रदान करती है । लेकिन संस्मरण लेखन में हाल के दिनों में जिस स्तरहीनता का परिचय मिलता है वो चिंता का विषय है । हाल के दिनों में हुआ ये है कि संस्मरण लेखन को लेखकों ने व्यक्तिगत झगड़ों को निपटाने का औजार बनाकर इस्तेमाल करना प्रारंभ कर दिया । जिससे फौरी तौर पर तो लेखक चर्चा में आ गया लेकिन चंद महीनों बाद उसका और लेख का कोई नाम लेने वाला भी नहीं रहा ।
लेकिन पिछले दिनों उर्दू के मशहूर नगमानिगार कैफी आजमी साहब की बेगम और अपने जमाने की मशहूर अदाकारा शौकत कैफी ने अपनी आपबीती- यादों के रहगुजर- लिखी जो संस्मरण के अलावा शौकत और कैफी की एक खूबसूरत प्रेम कहानी भी है ।
'यादों की रहगुजर' लगभग डेढ सौ पन्नों में लिखा गया वो अफसाना है जिसे अगर कोई पाठक एक बार पढ़ना शुरु कर देगा तो फिर बीच में नहीं छोड़ सकेगा, ऐसा मेरा मानना है । शौकत कैफी की पैदाइश 1928 की है । वो हैदराबाद के एक ऐसे मुस्लिम परिवार में पैदा हुई जिसका माहौल उस दौर के आम मध्यवर्गीय मुसलमान परिवार जैसा ही था । ये वो दौर भी था जब लड़कों की पैदाइश पर लड्डू बांटे जाते थे तो लड़की की विलादत को अल्लाह की मर्जी मान लिया जाता था । लेकिन शौकत इस मामले में जरा भाग्यशाली थी क्योंकि उसके पिता अपने परिवार के विचारों के उलट बेहद तरक्कीपसंद इंसान थे और लड़कियों के तालीम और उनकी आजादी के हिमायती थे । बावजूद अपने परिवार के सख्त विरोध के उन्होंने अपनी तीनों बेटियों के तालीम का इंतजाम किया । नतीजा ये हुआ कि शौकत का बचपन बेहतर और तरक्की पसंद लोगों की सोहबत में बीता । आजादी के चंद महीनों पहले की बात है जब फरवरी में हैदराबाद में तरक्कीपसंद लोगों का एक सम्मेलन हुआ । जिसमें कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी , सरदार जाफरी आदि ने शिरकत की थी । उसी दिन रात में एक मुशायरे में शौकत खानम और कैफी ने एक दूसरे की आंखों में अपना भविष्य देख लिया । ये भी एक बेहद दिलचस्प वाकया है । जैसे ही मुशायरा खत्म हुआ तो लोगों का हुजूम कैफी, मजरूह और सरदार जाफरी की तरफ लपका । शौकत ने एक उड़ती नजर कैफी पर डाली और सरदार जाफरी से ऑटोग्राफ लेने चली गई । इतनी भीड़ में भी कैफी ने अपनी इस उपेक्षा को भांप लिया और जब शौकत ने कैफी की तरफ ऑटोग्राफ के लिए कॉपी बढाई तो शायर ने अपनी उपेक्षा कॉपी पर उतार दी-
वही अब्रे-जाला चमकनुमा वही,ख़ाके –बुलबुले-सुर्ख़-रू जरा राज बन के महन में आओ
दिले घंटा तुन तो बिजली कड़के धुन तो फबन झपट के लगन में आओ
इस शे’र से नाराज होकर जब शौकत ने कैफी से इसकी वजह जाननी चाही तो कैफी ने मुस्कुराते हुए जबाव दिया कि – "आपने भी तो पहले जाफरी साहब से ऑटोग्राफ लिया ।" इसके बाद तो शौकत खानम, कैफी की पुरकशिश शख्सियत पर सिहरजदा हो गई और मुहब्बत और आशिकी का बेहद रूमानी सिलसिला चल निकला और लंबे-लंबे खतो-किताबत भी शुरु हो गई । कैफी मुंबई में रहते थे तो शौकत अपने पिता के साथ औरंगाबाद में । शौकत के हाल-ए-दिल का पता उनके पिता को चल चुका था और शौकत ने भी कैफी से शादी करने की अपनी मंशा पिता पर जाहिर कर दी थी । पिता ने बेटी को कहा कि मुंबई चलकर देख लेते हैं फिर कोई फैसला लेते हैं । दोनों चल पड़े मुंबई । वहीं घटनाचक्र कुछ इस कदर चला कि कैफी की हालात का पता लगाने गए पिता ने बेटी की मर्जी को देखते हुए दोनों का निकाह करवा दिया । शादी हुई सज्जाद जहीद के घर और उनकी बेगम रजिया ने शौकत की मां की भूमिका निभाई और बाराती बने जोश मलीहाबादी, मजाज, कृष्ण चंदर, साहिर लुधियानवी, इस्मत चुगताई और सरदार जाफरी जैसे तरक्कीपसंद लोग । इसके बाद शौकत और कैफी की नई जिंदगी शुरु होती है कम्यून में । लेकिन यहां एक बात गौर करने लायक है कि उस दौर में भी शौकत के अब्बाजान कितने तरक्कीपसंद और आजाद ख्याल थे कि बेटी के प्यार के लिए पूरे परिवार की नाराजगी मोल लेते हुए निकाह करवा दिया और बेटी को इसके शौहर के पास छोड़ अकेले घर लौट आए ।
जब शादी हुई थी तो उस वक्त कैफी कम्यून में रहते थे और त्रैमासिक 'नया अदब' के संपादक थे । शौकत ने कम्यून के कमरे को घर का रूप देना शुरु किया । ये पूरा किस्सा बेहद दिलचस्प है । कैफी की संगत और कम्यून के माहौल ने शौकत को भी इप्टा में सक्रिय होने के लिए प्रेरित कर दिया । शौकत ने सबसे पहले भीष्म साहनी के ड्रामे में काम किया। इस ड्रामे से शौकत को खूब सराहना मिली । सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था, घर में बेटे के रूप में एक चिराग भी रोशन हो चुका था कि अचानक साल भर का बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गया । इस विपदा से शौकत बुरी तरह से टूट गई । अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जब गमजदा शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । लेकिन जब शौकत की पार्टी ( तबतक शौकत वामपंथी पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी ) को इसका पता लगा तो पार्टी ने गर्भ गिरा देने का फरमान जारी कर दिया । ये वामपंथ का बेहद ही अमानवीय चेहरा है जो इस पार्टी के लोकप्रिय न होने के का एक बड़ा कारण है । लेकिन शौकत जब अड़ गई तो इस मसले पर पार्टी की बैठक बुलाई गई और तमाम बहसों और शौकत के कड़े रुख को भांपते हुए पार्टी को झुकना पड़ा । शौकत को बच्चा पैदा करने की अनुमति मिली । कम्युनिस्ट पार्टी के इस अमानवीय चेहरे पर से गाहे-बगाहे उसके सदस्य ही पर्दा उठाते रहते हैं ।
इस आपबीती के बाद की दास्तान कैफी और शौकत के संघर्ष की कहानी है। कैफी के लगातार हौसला आफजाई के बाद शौकत नाटकों में और सक्रिय हो गई और लगातार सफलता की सीढियां चढती चली गई । एक अदाकारा के रूप में शौकत की और शायर के रूप में कैफी की शोहरत बढ़ने लगी । शौकत को नाटकों के अलावा फिल्मों में काम मिला तो कैफी ने भी कई बेहतरीन नगमे लिखे । शोहरत और उससे आए पैसे को कैफी और शौकत एन्जॉय कर रहे थे कि एक दिन इस हंसते खेलते परिवार को किसी की नजर लग गई और कैफी साहब बुरी तरह बीमार हो गए । फिर शौकत ने अपने बच्चों के साथ मिलकर अचानक आए इस विपदा को भी मित्रों के सहयोग से झेला । इसके अलावा इस आपबीती में कैफी के उत्तर प्रदेश के अपने गांव मिजवां के लिए किए गए कामों का और अपने गांव और इलाके की बेहतरी के लिए कैफी की बेचैनी का भी विस्तार से विवरण है । साथ ही शौकत के पृथ्वी थिएटर के दिनों के भी दिलचस्प और रोचक किस्से हैं । कुल मिलाकर अगर हम इस आपबीती पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि ये एक अद्भुत प्रेम कहानी है । अफसाना है दो दिलों का जो तमाम दिक्कतों और संघर्षों के बवजूद एक दूसरे को दिलो जान से फिदा कर देते हैं ।
संस्मरण की ही तरह हिंदी साहित्य की एक और विधा है – यात्रा वृतांत । हिंदी साहित्य से ये विधा लगभग खत्म होती जा रही है । गाहे बगाहे ही कोई लेखक यात्रा वृतांत लिखता है । हाल के दिनो में मृदुला गर्ग की उनकी यात्रा पर लिखे वृतांत – कुछ अटके कुछ भटके – नाम से पेंग्विन बुक्स, दिल्ली से छपा है । मृदुला गर्ग की छवि हिंदी साहित्य में एक गंभीर कथा लेखिका की है, जिनके उपन्यासों में शहरी आधुनिक नारी की जटिल मानसिकता और द्वंद केंद्रीय विषय होते हैं । मृदुला गर्ग को हिंदी में बोल्ड भाषा का इस्तेमाल करनेवाली लेखिका के रूप में भी जाना जाता है । उनके उपन्यास 'चितकोबरा' और 'कठगुलाब' और उसके हिस्से की धूप जब छपकर आए तो हिंदी साहित्य में इन उपन्यासों की भाषा को लेकर खासी चर्चा हुई ।
'कुछ अटके कुछ भटके' मृदुला गर्ग की दर्जन भर यात्राओं का विवरण है जो पहले भी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपकर पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींच चुके हैं । इन दर्जन भर यात्रा विवरणों में सूरीनाम में वर्ष दो हजार तीन में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान वर्षावन की यात्रा का बेहद रोचक और दिलचस्प वर्णन है । लगभग सत्तर साल में जवानों जैसे जज्बे के साथ सूरीनाम के जंगलों में भटकते हुए प्रकृति का आनंद उठाना बड़ी बात है । लेकिन अपने इस संस्मरण में उन्होंने हिंदी के साहित्यकारों की एक कमजोरी की तरफ जाने अनजाने इशारा कर दिया । वो है कंजूसी और वादाखिलाफी । नाम तो मृदुला गर्ग ने किसी का भी नहीं लिया लेकिन साहित्यकारों को करीब से जानने वाले और साहित्यिक हलचलों पर नजर रखनेवालों को उन्हें पहचानने में दिक्कत नहीं होगी । मृदुला गर्ग ने अपने साथ चलने के लिए पांच लोगों को तैयार कर लिया था लेकिन हामी भरने के बावजूद वो लोग नियत समय और जगह पर नहीं आए । चूंकि मृदुला गर्ग ने सात लोगों की बुकिंग की हुई थी, इसलिए उनको विदेशी मुद्रा में अपने सहयोगियों के वादाखिलाफी का दंड भुगतना पड़ा । अगर हम इस पूरी किताब को ध्यान से पढ़े तो ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं जो "बिटविन द लाइन्स" ही पढ़े और समझे जा सकते हैं । इशारों इशारों में लेखिका कई अहम बातें कह जाती हैं । जैसे जब वो तमाम दिक्कतों के बावजूद असम की यात्रा पर जा सकी और डिब्रूगढ़ में भाषण देने के लिएखड़ी हुई तो वहां मौजूद बागी छात्र नेताओं ने उनसे हिंदी भाषण देने का अनुरोध किया । इस संसमरण में एक वाक्य है जो देश के हुक्मरानों को एक चेतावनी भी है – "देश के इतने बड़े भाग ने हिंदी बोलनी-पढ़नी-लिखनी सीखी तो हमने उसका इस्तेमाल देश के एकीकरण के लिए क्यों नहीं किया ? बार बार असम के युवा छात्रों को ये क्यों कहना पड़ रहा था कि हमारी औकात कम इसलिए आंकी जाती है क्योंकि हम "मेनलैंड" के लोगों की तरह फर्राटे से अंग्रेजी नहीं बोल सकते । मेनलैंड । यानि पूर्वोत्तर को छोड़कर बाकी का हिंदुस्तान , जिसकी राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी है । एक तरफ हम उन्हें दोष देते हैं कि वो देश से जुदा होना चाहते हैं , दूसरी तरफ साथ लेने के इस नायाब औजार का तिरस्कार करके हम लगातार उन्हें हाशिए में धकेलते जाते हैं । (पृ. 120-121) । ये कहकर लेखिका ने असम की समस्या सुलझाने में सरकार की विफलता और जमीनी हकीकत दोनों को एक झटके में सामने ला देती हैं ।
इस किताब को पढ़ते हुए 1980 में छपे मृदुला गर्ग के उपन्यास "अनित्य" की बरबस याद आ जाती है। वो इसलिए कि उक्त उपन्यास में मृदुला गर्ग स्त्री पुरुष संबंधों के अपने प्रिय विषय को छोड़कर राजनीति को अपने उपन्यास का विषय बनाया था, जिसमें तीस के दशक से लेकर आजादी मिलने के बाद तक के कालखंड को उठाया गया था । उस उपन्यास में मृदुला गर्ग कमोबेश हिंसात्मक क्रांति के पक्ष में दिखाई देती हैं, लेकिन कुछ अटके कुछ भटके के अपने असम वाले लेख में भाषा को औजार बनाकर देश को जोड़ने की बात करती हैं । इसे हम लेखिका के विचारों की परिपक्वता या विकास के तौर पर रेखांकित कर सकते हैं ।
इसके अलावा मृदुला गर्ग ने अपने इन यात्रा वृतांतों में शब्दों और बिंबों को जो प्रयोग किया है उससे न केवल उनकी भाषा चमक उठती है बल्कि दिलचस्प और रोचक भी हो जाती है । मसलन – "बारिश के हाथों अचानक पकड़े जाने के रोमांच से हम अब भी अछूते रहे" या "उन्हीं लिपटती चिपटती कांटेदार आइवी और झाड़ियों के आगोश से बच बच कर निकलते हुए" या फिर "अहसास की जमीन पर पहली बार समझ में आया कि सुनसान सांय सांय क्यों करता है" । पहले वाक्य में "बारिश के हाथों पकड़े जाने" या दूसरे में "झाड़ियों के आगोश में" या "सुनसान सांय सांय", ये सब ऐसे प्रतीक है, जिससे भाषा तो चमकती ही है पढ़ते वक्त पाठकों के मन में जहां की बात हो रही होती है वहां का पूरा का पूरा दृश्य भी उपस्थित हो जाता है ।
आकार में भले ही ये किताब छोटी हो लेकिन इसका फलक बहुत ही व्यापक है । असम से लेकर हिरोशिमा, गंगटोक से लेकर पारामारिबो, फिर दिल्ली से लेकर अमेरिका और झुमरी तिलैया तक के व्यक्तिगत अनुभवों को एक व्यापक दृष्टि देते हुए पेश किया गया है । जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि इसके लेखों में 'विटविन द लाइन' बहुत कुछ है । इसके एक लेख "रंग-रंग कांजीरंगा" में हजारीबाग के जंगल में घूमने का और वहां के कड़क फॉरेस्ट अफसर के चित्र के बहाने जंगलों और जंगली पशुओं के गायब होने या कम होने के कारणों की तरफ संकेत किया गया है । मृदुला गर्ग की इस किताब के केंद्र में "मैं" है, जो हर लेख में प्रमुखता से मौजूद है। हो सकता है ये विधागत मजबूरी हो, लेकिन इस पूरी किताब पढ़ने के बाद मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि जितना इसमें लिखा है उससे कहीं ज्यादा संकेतों और इशारों में कही गई बातें हैं । एक तरफ ये किताब अगर अपनी रोचकता और सधी हुई भाषा के कारण पाठकों को आनंद से भर देती है तो दूसरी तरफ विटविन द लाइंस से पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देती है .
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1. याद की रहगुजर, लेखिका- शौकत कैफी, प्रकाशक -राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली -110002, मूल्य – 150 रुपये
2. कुछ अटके-कुछ भटके , लेखिका- मृदुला गर्ग, प्रकाशक- पेंगुइन बुक्स,11कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली -110017, मूल्य 100 रुपये
2 comments:
वाह अनंत साहब, पसंद आयीं आपकी पुस्तक समीक्षायें और आपका अंदाजे बयां भी
बहुत बहुत पसंद आया
अत्यधिक परिश्रम और यत्नपूर्वक लिखी गई पोस्ट ने 'रंग-ए-इश्क' में सराबोर कर दिया ।
इन दिनों, संस्मरणों कर श्रृंखला में कान्तीकुमार जैन (सागर) के संस्मरणों ने, ठहरे पानी में खूब तूफान उठाए हैं ।
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