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Sunday, May 17, 2009

बचपन पर हमला


कुछ दिनों पहले की बात है कि हमारे एक वरिष्ठ सहयोगी ने बताया कि एक दिन वो अपनी छह सात साल की बिटिया के साथ आईपीएल मैच देख रहे थे, इस बीच अचानक ब्रेक में गर्भ निरोधक गोली आई -पिल का विज्ञापन आया । उनकी बिटिया ने मासूमियत से ऐसे-ऐसे सवाल पूछे कि पिता को जबाव देते नहीं बन रहा था । बिटिया उस विज्ञापन में कहे गए शब्दों की जानकारी लेने पर उतारू थी और पिता के सामने गंभीर संकट । किसी तरह से मामला निबटा । लेकिन बच्चों की जिज्ञासा को आप बहला फुसला कर टाल नहीं सकते, क्योंकि वो फौरन इस बात को भांप लेते हैं कि उनको टरकाया जा रहा है । इसी तरह का एक और वाकया हमारी एक महिला सहयोगी ने बताया । यह वाकया बेहद दिलचस्प था- हुआ यूं कि एक दिन वो पूरे परिवार के साथ टीवी देख रही थी कि अचानक उसका साढ़े पांच का साल का बच्चा चिल्लाया- देखो मम्मियों का डायपर आया । दरअसल उसवक्त टीवी पर सैनेटरी नैपकिन का विज्ञापन आ रहा था, बच्चा बगैर कुछ सोचे समझे चिल्ला रहा था, और  ड्राइंग रूम में एक साथ बैठ कर टीवी देख रहा पूरा परिवार सन्न । सब एक दूसरे से नजरें छिपा रहे थे । ये तो उस वक्त हुआ जब बच्चे परिवार के साथ या फिर अपने मां-बाप के साथ टीवी देख रहे थे, और उनके मन में विज्ञापनों को देखकर जो भी सवाल उठते हैं उसे वो जानने की कोशिश कर रहे थे । उस वक्त की कल्पना करिए जब बच्चे घर में अकेले टीवी देखते हैं और ऐसे विज्ञापनों को देखकर उनके मन में जो सवाल उठते हैं, उस वक्त इसका जबाव देने वाला कोई होता नहीं है और बाल मन पर इसका क्या असर पड़ता होगा, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है । 
इस बात को ज्यादा अरसा नहीं बीता है । मैं अपने परिवार के साथ दिल्ली के पास के एक मॉल में घूम रहा था । अपनी बिटिया के लिए कपड़ों की तलाश में भटकते हुए बच्चों के कपड़ों के सेक्शन में चला गया । मेरी बेटी को स्कर्ट और लंहगा बेहद पसंद है इसलिए हमलोग उसकी तलाश में जुट गए । हम जहां  कपड़े देख रहे थे वहीं पर कुछ और युवा मां भी अपनी छोटी छोटी बेटियों के साथ खरीदारी कर रही थी । सबलोग अपने बच्चों की पसंद नापसंद का ध्यान रख रहे थे और बच्चे थे कि बड़ों की तरह कपड़ों को रिजेक्ट किए जा रहे थे । मां-बाप अपने-अपने बच्चों को मनाने में जुटे थे । अचानक तीन चार साल की एक लड़की ट्रायल रूम से अपनी मम्मी के साथ रोती हुई बाहर आई और अपने पापा की ओर मुखातिब होकर कहा कि पापा मुझे ये स्कर्ट पसंद नहीं है, मुझे ये नहीं लेना है । युवा पापा ने अपनी युवा पत्नी से पूछा कि क्या हो गया ये रो क्यों रही है । मम्मी ने रहस्यमयी मुस्कुराहट के साथ कहा कि अपनी बिटिया से ही पूछ लो । जब उसने अपनी छोटी और प्यारी सी बिटिया से पुचकार कर पूछा तो उसने सुबकते हुए कहा कि पापा इसमें नेवल नहीं दिखता, इसलिए मुझे ये नहीं लेना है । उसकी ये बात सुनते ही मेरे समेत वहां मौजूद कई लोग चौंके, लेकिन उस छोटी बच्ची की मां ने कहा कोई बात नहीं बेटा दूसरा ट्राई कर लेते हैं ।उस बच्ची ने इतनी बड़ी बात कह दी लेकिन उनके मां-बाप ने इसे बेहद सहजता से लिया ।  इतनी बड़ी बात उस छोटी सी लड़की ने कहा और उसके मां बाप ने जिस अंदाज में लिया वो मेरे लिए न  सिर्फ चौंकाने वाला था बल्कि चकित करनेवाला भी । मैं जब उस सुपर स्टोर से बाहर निकला तो मेरे जेहन में बार बार उस छोटी सी बच्ची की प्रतिक्रिया गूंज रही थी । मैं लगातार अपने आप से ये जानने की कोशिश कर रहा था कि क्या वजह थी जो उस छोटी सी बच्ची ने कहा कि मम्मा नेवल नहीं दिखता । उसके लिए इसके मायने क्या थे, कहां से ये सोच उसके अंदर आई, किससे प्रभावित होकर उसने ये कहा और उसके मां बाप ने इसे उतनी सहजता से कैसे लिया । ये बात मुझे इतना परेशान कर रही थी कि मैं वापस उस स्टोर में गया तो वो लोग बाहर निकलते हुए मिल गए । मैंने उस बच्ची के पिता को रोका और उनसे पूछा कि उस बच्ची ने नेवल नहीं दिखने जैसी बात क्या सोचकर कही और उसके लिए इसके मायने क्या हैं । उसके पिता ने छूटते ही कहा अरे भाई साहब आप किस चक्कर में पड़े हो ये बिल्कुल नई पीढ़ी है और इनकी सारी सोच  टेलीविजन के हिसाब से चलती है ,आजकल ये टीवी पर आनेवाले डांस शो के ड्रेसेस देखकर अपनी ड्रेस तय कर रही हैं । ये कहकर वो युवा दंपत्ति सहज भाव से आगे बढ़ गया ।  
ये तीन घटनाएं ऐसी हैं जो हमें ये सोचने पर विवश करती हैं कि टेलीविजन ने हमारे समाज को, हमारे जीवन, हमारे रहन सहन को किस कदर प्रभावित कर दिया है कि तीन चार साल की बच्ची भी, जो देश का भविष्य है, इसके प्रभाव से अछूती नहीं रह सकी हैं । 
हमसे और हमारी पीढ़ी के पहले के लोग सिनेमा से जबरदस्त रूप से प्रभावित होते थे । अमिताभ बच्चन से लोग इतने प्रभावित हुए थे कि कई लोगों ने अपने बच्चों का नाम विजय रख दिया था जो आमतौर पर अमिताभ की हर फिल्मों में उसका नाम होता था । अमिताभ के बोलने के अंदाज भी लोगों को खूब भाया और उसकी भी जमकर नकल हुई । राजेश खन्ना के स्कार्फ का जादू भी उस जमाने के लड़कों के सर चढकर बोलता था । ऋषि कपूर की फिल्म बॉबी के बाद तो कपड़े के एक खास डिजाइन का नाम ही बॉबी प्रिंट हो गया । फिर सलमान की एक फिल्म आई थी- मैंने प्यार किया- जिसमें उसने एक टोपी पहनी थी जिपर फ्रेंड लिखा था और बाजार में हर दूसरा लड़का उसी तरह की फ्रेंड लिखी टोपी पहने नजर आने लगा था । लेकिन फिल्मों से आमतौर पर युवा वर्ग प्रभावित होता रहा है, बल्कि अच्छी बुरी चीजें अपनाता भी रहा है । लेकिन ये तो टेलीविजन का ही कमाल है कि उसने घर-घर में बच्चों को भी अपनी जद में ले लिया । बच्चे ना केवल टीवी पर आनेवाले सिरियल से प्रबावित होते हैं बल्कि विज्ञापन भी उन्हें बेहद पसंद आते हैं और नवो उनकी नकल भी करते हैं । रियल्टी शो की नकल करने में कई बच्चों की जान भी जा चुकी है । ये सबकुछ एक सोची समझी रणनीति के तहत हो रहा है और देश के   भविष्य पर भी टीवी के माध्यम से प्रभाव कायम करने की कोशिश की जा रही है। 
मुझे तरस आ रहा है समाज में नैतिकता के उन तथाकथित ठेकेदारों पर जो लड़कियों के पहनावे पर पहरा लगाने की कोशिश में गाहे बगाहे हंगामा बरपाते रहते हैं । लड़कियों के बीयर बार में मौजूदगी पर उनपर हमले करते हैं और उनके साथ मार पीट भी करते हैं । तरस उन स्कूल कॉलेज प्रशासन पर भी आता है जो ड्रेस कोड के नाम पर गाहे बगाहे जींस और स्कर्ट पर प्रतिबंध लगाने की नाकाम कोशिश कर हंगामा को आमंत्रण देते हैं । उनकी इन हरकतों से कुछ भी नहीं होनेवाला है क्योंकि उनको ये नहीं पता कि टीवी के मार्फत कब हमारी पूरी की पूरी संस्कृति खामोशी से बदल गई इसका  इल्म न तो भारतीयता के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों को है और न ही स्कूल कॉलेज में बैठे प्रशासकों को । भारतीय संस्कृति के नाम पर अपनी दुकान चलानेवाले भगवा ब्रिगेड की अज्ञानता पर तरस आता है । अब भी वो सतयुग में जी रहे हैं, दुनिया कहां से कहां चली गई और वो धोती कुर्ते और साड़ी में ही उलझे हुए हैं, समाज में हुई खामोश क्रांति का ना तो उन्हें इल्म है ना ही अंदाज । वो तो विश्वविद्यालय के उन आलोचकों की तरह हैं जो अब भी निराला और मुक्तिबोध में ही उलझे हुए हैं, कुछ तो मीरा और कबीर की रचनाओं में ही नया अर्थ ढूंढ रहे हैं । 
मुझे तो राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखी वो पंक्ति याद आ रही जहां दिनकर जी ने लिखा है -- "विद्रोह क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं जिसका विस्फोट अचानक होता है....घाव भी फूटने के पहले काफी दिनों तक पकता रहता है " तो हमारी संस्कृति में जो खामोश बदलाव या कहें खामोश क्रांति आई वो भी अचानक नहीं आई है । इस खामोश बदलाव के पीछे भी कई सालों तक फिल्मों या टीवी का प्रभाव रहा जो कि अपनी सभ्यता और संस्कृति को छोड़ पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में जुटे रहे और आधुनिकता के नाम पर अश्लीलता परोसते रहे । नतीजा ये हुआ कि जो उम्र बच्चों के खेलने और मासूमियत भरी शैतानी करने की होती है उसमें वो अपने ड्रेस के बारे में सोच रहे है । 
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Sunday, May 10, 2009

पत्रिकाओं के बहाने...

25 जून 1999 को समीक्षक और स्तंभकार भारत भारद्वाज ने मुझे एक भारी भरकम पत्रिका का प्रवेशांक भेंट किया जो आकार प्रकार और अपने सादे कवर की वजह से आकर्षक लग रहा था । उस पत्रिका का नाम था- बहुवचन, प्रकाशक था महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और पत्रिका के प्रधान संपादक थे विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति अशोक वाजपेय़ी, जिनके संपादक के रूप में नाम छपा था पीयूष दईया का । आज से लगभग दस वर्षों पूर्व जब ये पत्रिका छपी थी तब पीयूष दईया का नाम हिंदी में नया और अनजाना सा था । बहुवचन के साथ ही विश्विविद्यालय ने दो और पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ किया था- पुस्तक वार्ता जिसके भी प्रधान संपादक अशोक वाजपेयी थे और पत्रकार थे पत्रकार राकेश श्रीमाल । तीसरी पत्रिका थी अंग्रेजी में - हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग, इसके संपादक थे रुस्तम सिंह । 
जब इन पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ था तो तो हिंदी साहित्य में इसपर जमकर बहस चली थी । अशोक वाजपेयी के विरोधियों का आरोप था कि विश्विविद्यालय का काम पत्रिकाएं छापना नहीं है । लेकिन इन आरोप लगानेवालों को ये ज्ञान नहीं था कि देश-विदेश की लगभग सभी विश्विविद्यालयों से पत्रिकाएं निकलती हैं, चाहे वो कैंब्रिज हो , ऑक्सफोर्ड हो या फिर लखनऊ या भागलपुर विश्विविद्यालय । ये अवश्य है कि भारत में विश्वविद्यालयों की पत्रिकाएं सिर्फ रस्मी तौर पर निकलती हैं जिसे छपने के बाद गोदामों में ठूंस दिया जाता है, जिसे कालांतर में रद्दी के भाव बेच दिया जाता है। क्या मुझे यहां ये कहने की जरूरत है कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज से निकलने वाली पत्रिकाओं की विश्व में क्या प्रतिष्ठा है ? 
लंबे समय से विश्विद्यालय के हिंदी विभागों में कुंडली मारकर बैठे साहित्य के आचार्यों को ये बात हजम नहीं हो रही थी कि हिंदी के नाम पर खुले विश्विविद्यालय में उनकी कोई पूछ नहीं हो रही है । नए-नए 'लौंडे लफाड़ों' को पत्रिका का संपादक बना दिया गया है और वर्षों से साहित्य साधना में लीन आचार्यों की प्रतिष्ठा और निष्ठा को दरकिनार कर दिया गया है । अशोक वाजपेयी पर जमकर हमले हुए लेकिन पांच वर्षों 'बहुवचन' और 'पुस्तक वार्ता' नियमित रूप से निकलती रही । हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग का प्रकाशन अवश्य बाधित हुआ, वजह तो तत्कालीन कुलपति ही बता सकते हैं । अशोक वाजपेयी के बाद जी गोपीनाथन कुलपति बने, जिनके कार्यकाल में धीरे-धीरे इन पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया, साहित्य जगत को खबर भी नहीं लगी । 
अब नए कुलपति विभूति नाराय़ण राय के प्रभार संभालने के बाद फिर से इन तीनों पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरु हुआ है । बहुवचन (संपादक- राजेन्द्र कुमार), पुस्तक वार्ता(संपादक- भारत भारद्वाज), हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग(संपादक- ममता कालिया) । दस वर्षों में बहुवचन का टैग लाइन भी बदल गया है जो पत्रिका के बदले हुए मिजाज का संकेत है । प्रवेशांक में लिखा था- बहुवचन, साहित्य भाषा शोध विचार की पत्रिका । लेकिन अब बहुवचन- बहुसुमन, बहुरंग निर्मित एक सुंदर हार- हो चुका है । इन दोनों टैग लाइन पर ही अगर हम विचार करें तो पत्रिका के चरित्र में बदलाव को साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । पहले अंक में - यह प्रवेशांक- शीर्षक से एक टिप्पणी थी, जिसमें लिखा गया था कि 'यह प्रयत्न हिंदी में सक्रिय अनेक पीढ़ियों, अनेक दृष्टियों और शैलियों के लेखकों को एकत्र करने का है ।' जो उस अंक में दिखा भी था । बहुवचन के नए अंक में संपादकीय का शीर्षक देखिए - 'यह नवोन्मेषांक ।' ये हिंदी इतनी कठिन है कि आम पाठकों को भी समझ नहीं आएगी । संपादकीय में भी जिस शास्त्रीय शब्दावली का प्रयोग किया गया है जो इसको न सिर्फ जटिल बना देता है बल्कि बोझिल भी । महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का एक उद्देश्य पूरे विश्व में हिंदी को इंटरनेशनल भाषा के तौर पर मान्यता दिलवाना भी है । लेकिन अगर पत्रिका के संपादक ही इस तरह की जटिलतम भाषा का इस्तेमाल करेंगे तो हिंदी पढ़ने समझनेवाले ही इससे दूर हो जाएंगे, गैर हिंदी भाषी के तो पास आने का सवाल ही नहीं उठता । 
बहुवचन के संपादक राजेन्द्र कुमार ने अपने संपादकीय में लिखा है- 'यह शिकायत प्राय सुनने को मिलती है कि हमारे विश्वविद्यालय अकादमिक जड़ता के 'भव्य ठिकाने' होते जा रहे हैं । खासतौर से हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन 
में लगे लोगों के बारे में आम धारणा यह है कि भाषा और साहित्य उनके लिए वहीं तक महत्वपूर्ण जहां तक वह उनकी आजीविका का विषय बनता हो । जिज्ञासा का विषय वो बने, इसका क्या लाभ । अपने ज्ञान के स्तर को अद्यतन बनाने में उनकी अधिक रुचि नहीं, जितनी अपनी सुख सुविधाओं को अद्यतन बनाने में ।' और बहुवचन का ये पूरा अंक इस आम धारणा को पूरी तरह से नहीं तो आंशिक तौर पर अवश्य ही मजबूत करता है । इसके अलावा अगर हम बहुवचन के जनवरी-मार्च 2009 के अंक के लेखकों की सूची पर नजर डालें तो ये पत्रिका महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की कम जन संस्कृति मंच की पत्रिका ज्यादा लगती है । 
दूसरी पत्रिका- पुस्तक वार्ता- के संपादक भारत भारद्वाज हैं जो पिछले दो दशकों से हंस में के अपने लोकप्रिय स्तंभ और अन्य पत्र पत्रिकाओं में लेखकों की खबर लेते रहे हैं । इस पत्रिका के चरित्र में कोई ज्यादा बदलाव नहीं किया गया है । लेकिन संपदकीय में भविष्य में इसकी प्रकृति में बदलाव के संकेत साफ हैं- 'यह मुख्यत समीक्षा (रिव्यू) की पत्रिका है । कुछ कुछ अंग्रेजी की 'बिब्लियो' और 'द वीक रिव्यू' की तरह । लेकिन भविष्य़ में इसकी प्रकृति में  बदलाव करते हुए सृजनात्मकता और समकालीन वैचारिक विमर्श का उन्मुक्त मंच बनाने की मेरी आकांक्षा है ।' लोकार्पण समारोह में विश्वविद्यालय के कुलाधिपति नामवर सिंह ने भारत भारद्वाज को बहुपठित और अद्यतन सूचनाओं से लैस लेखक बताते हुए अपनी अपेक्षाएं भी जाहिर की थी । पुस्तक वार्ता के ताजे अंक में कुंवर नारायण पर पठनीय सामग्री है । बजुर्ग आलोचक नंदकिशोर नवल ने अपनी याददाश्त के आधार पर पुस्तकों की एक लंबी सूची गिना दी है, कुछ रोचक प्रसंगों के साथ । इस अंक की एक विशेषता साहित्य कोलाहल है, जिसे प्रज्ञाचक्षु के छद्म नाम से कोई लिख रहा/रही है । ये स्तंभ काफी रोचक और दिलचस्प जानकारियों से भरा है । लेकिन पुस्तक वार्ता की आत्मा भी बिहार की ओर झुकी नजर आती है, बावजूद इसके आनेवाले दिनों में ये पत्रिका हिंदी में सार्थक हस्तक्षेप की आहट तो दे ही रही है । 
वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया ने  हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग का संपादन किया है । इस पत्रिका पर हिंदी में जो कुछ महत्वपूर्ण लिखा जा रहा है या लिखा जा चुका है उसे अंग्रेजी में अनूदित करवा कर विश्व पटल पर पेश करना है । ममता कालिया जब इस पत्रिका की संपादक बनी थीं तब विश्वविद्यालय से जुड़ी गगन गिल ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया था, जिसे जनसत्ता संपादक ओम थानवी ने भी हवा दी थी । लेकिन अब जब पत्रिका छपकर आई तो तमाम विवादों पर विराम लगा गया । इस पूरी पत्रिका में रचनाओं और रचनाकारों के चयन में बेहतरीन संपादकीय दृष्टि को साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । रचनाकारों के चयन में ममता कालिया पर ये आरोप है कि उन्होंने अपनी पत्रिका में अपने पति रवीन्द्र कालिया की रचना का अनुवाद छापा । लेकिन आलोचना करनेवाले ये भूल जाते हैं कि रवीन्द्र कालिया हिंदी के एक महत्वपूर्ण लेखक हैं और कोई भी संपादक उनकी रचनाएं छापने को उत्सुक रहता है । लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या रिश्तेदार होने की वजह से ही सिर्फ लेखक को दरकिनार करने का हक संपादको को है । कतई नहीं । हिंदी- लैंग्वेज, डिस्कोर्स एन्ड रायटिंग की सबसे बड़ी कमजोरी अनुवाद है । ज्यादातर अनुवाद में वो प्रवाह और रवानगी नहीं है जो मूल रचनाओं में है । इसके अलावा इस पत्रिका में अगर तीन महीनों में हिंदी की महत्वपूर्ण गतिविधियों को शामिल किया जा सके तो गैंर हिंदी भाषियों की जानकारी समृद्ध होगी और विश्विविद्यालय के उद्देश्य की पूर्ति भी ।  

Thursday, May 7, 2009

एक खामोश मौत

भोजपुरी फिल्मों के शेक्सपियर कहे जानेवाले मोती ने गुमनामी में दम तोड़ दिया । मीडिया में कम ही लोग इस नाम से परिचित हैं । मोती बीए की खामोश मौत पर इकबाल रिजवी ने हाहाकार के लिए खासतौर पर ये लेख लिखा है ।

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आज़ादी से पहले उन्होंने एमए कर लिया था लेकिन कविता के मंच पर अपनी क्रांतिकारी रचनाओं की वजह से वे तब देश भर में चर्चित हो गए जब उन्होंने बीए किया था और तभी से उनके नाम के आगे बीए ऐसा जुड़ा कि वे हमेशा मोती बीए के नाम से ही जाने गए। वे मोती बीए ही थे जिन्होंने हिंदी सिनेमा में भोजपूरी की सर्वप्रथम जय जयकार करायी। हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और भोजपुरी पर समान अधिकार रखने वाला और भोजपुरी के शेक्सपियर के नाम से याद किया जाने वाला वह गीतकार लंबी गुमनामी के बाद चुपके से सबको छोड़ कर चला गया।  

        मोती लाल बीए का पूरा नाम मोती लाल उपाध्याय था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले के बरेजी नाम के गांव में 1 अगस्त 1919 को हुआ। बचपन से ही कविता में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। वे मनपसंद कविताओं को ज़बानी याद कर लेते थे। फिर उन्होंने खुद कविताएं लिखनी शुरू कर दीं। उनकी पढ़ाई वाराणसी में हुई। 16 साल की उम्र में पहली बार उनकी कविता दैनिक आज में प्रकाशित हुई। जिसके बोल थे " बिखरा दो ना अनमोल - अरि सखि घूंघट के पट खोल "  जब उन्होंने बीए करा तब तक वे कवि सम्मेलनो में एक गीतकार के रूप में पहचान बना चुके थे। उन्होंने अपने नाम के आगे बीए लगाना शुरू कर दिया। उस समय आज़ादी की जंग जोरो पर थी। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ पूरे देश में माहौल बहुत गर्म था। मोती जी भोजपुरी भाषा में क्रांतिकारी गीत लिख लिख कर लोगों को सुनाया करते थे। उसी दौर का उनका एक गीत था

"भोजपुरियन के हे भइया का समझेला

खुलि के आवा अखाड़ा लड़ा दिहे सा

तोहरी चरखा पढ़वले में का धईल बा

तोहके सगरी पहाड़ा पढ़ा दिये सा "

      धीरे धीरे मोती की सक्रियता कलम के सहारे क्रांतिकारी विचारों को गति देने में बढ़ने लगी। सन् 1939 से 1943 तक "अग्रगामी संसार" तथा "आर्यावर्त" जैसे प्रमुख समाचार पत्रों में कार्य के दौरान राष्ट्रीय विचारों एवं उससे जुडे़ लेखन के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा। 1943 में वे दो महीने की सज़ा काट कर जेल से रिहा किये गए फिर उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग कालेज वाराणसी में दाखिला ले लिया। इसी दौरान जनवरी 1944 में वाराणसी में हुए एक कवि सम्मेलन में पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था के निर्देशक रवि दवे ने उन्हें सुना। मोती का गीत "रूप भार से लदी तू चली" उन्हें बहुत पसंद आए और उन्होंने मोती को फ़िल्मों में गीत लिखने के लिये निमंत्रण दिया। लेकिन मोती जी अचानक मिले इस निमंत्रण को फ़ौरन स्वीकार नहीं पाए और साहित्य रचना में ही जुटे रहे। 945 में वे फिर गिरफ़्तार कर लिये गए। उन्हें वाराणसी सेंट्रल जेल में भारत रक्षा क़ानून के तहत नज़र बंद कर दिया गया लेकिन पहले की ही तरह कुछ हफ़्तों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।

      मोती जी पत्रकारिता ओर साहित्य से ही जुड़े रहना चाहते थे। फ़िल्मों में जाना उनकी प्राथमिकता कभी नहीं रही फिर भी जेल से रिहाई के बाद रोज़गार के अवसर की तलाश में उन्हें रवि दवे का फ़िल्मों में गीत लिखने का निमंत्रण फिर याद आया। मोती जी ने लाहौर का रूख किया जहां पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था थी। उनकी मुलाक़ात संस्ता के मालिक दलसुख पंचोली से हुई और पंचोली ने उन्हें 300 रूपए महीना वेतन पर गीतकार के रूप में रख  लिया। मोती को गीत लिखने के लिये पहली फ़िल्म मिली "कैसे कहूं"। इसके संगीतकार थे पंडित अमरनाथ। इस फ़िल्म में मोती ने पांच गीत लिखे शेष गीत डी एन मधोक ने लिखे। इसके बाद आयी किशोर साहू निर्देशित और दिलीप कुमार अभीनीत फ़िल्म " नदिया के पार(1948)" जिसमें सात गीत मोती बीए ने लिखे। इस फ़िल्म के गीतों की सारे देश में धूम मच गयी। खास कर इसका एक गीत "मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार " मोती बीए  की पहचान बन गया। पहली बार किसी गीतकार ने हिंदी फ़िल्मों में भोजपुरी को प्रमुखता से स्थान दिया था।

      नदिया के पार के बाद मोती जी की व्यस्तताएं बढ़ गयीं उन्होंने कई फ़िल्मों में गीत लिखे। उनकी चर्चित फ़िल्में रहीं "सुभद्रा (1946)", भक्त ध्रुव (1947)", "सुरेखा हरण(1947)", "सिंदूर(1947)",  "साजन(1947)", "रामबान(1948)","राम विवाह(1949)", और "ममता(1952)",। साजन में लिखा उनका एक गीत "हमको तुम्हारा है आसरा तुम हमारे हो न हो" अपने समय में काफ़ी लोकप्रिय रहा।  

      मोती बीए को फ़िल्मों में काम की कमी नहीं थी। उनके लिखे गीतों को शांता आप्टे, शमशाद बेगम, गीता दत्त, लता मंगेशक, मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, और ललिता देवलकर जैसे गायकों ने स्वर दिये। लेकिन उन्हें एहसास होने लगा था कि  मुम्बई की फ़िल्मी दुनिया में सम्मान की रक्षा के साथ वहां अधिक समय तक टिक पाना संभव नहीं होगा। और एक दिन अचानक उन्होंने फ़ैसला किया वे अपने घर लौट जाएंगे। फिर यही हुआ। 1952 में मुम्बई से लौटकर वे देवरिया के श्रीकृष्ण इंटरमीडियेट कालेज में इतिहास के प्रवक्ता के रूप में पढ़ाने लगे। मुम्बई में रहने के दौरान उनकी अंतिम फ़िल्म ममता थी। कुछ सालों बाद जब चरित्र अभिनेता नज़ीर हुसैन, सुजीत कुमार और कुछ दूसरे कलाकारों ने भोजपूरी फ़िल्मों के निर्माण की गति को तेज़ किया तो मोती बीए फिर याद किये गए। मोती जी ने कई भोजपूरी फ़िल्मों "ई हमार जनाना" (1968), ठकुराइन (1984), गजब भइले रामा (1984),  चंपा चमेली (1985), ममता आदि में गीत लिखे।  1984 में प्रदर्शित गजब भइले रामा में उन्होंने अभिनय भी किया। यह आखरी फ़िल्म थी जिससे मोती जी किसी रूप में जुड़े।

      देवरिया में अध्यापन के दौरान मोती जी साहित्य सृजन में लगे रहे। उन्होंने शेक्सपियर के सानेट्स का हिंदी में सानेट्स की शैली में ही अनुवाद किया। कालीदास के संस्कृत में लिखे मेघदूत का भोजपूरी में अनिवाद किया इसेक अलावा हिंदी में 20 पुस्तकें और उर्दू में शायरी के तीन संग्रह "रश्के गुहर", "दर्दे गुहर" और "एक शायर" की रचना की। उन्होंने भोजपूरी में भी काव्य रचना की और पांच संग्रह सृजित किये। उनकी करीब चार कृतियां अभी अप्रकाशित हैं। अध्यापन से सेवा निवृत्त होने के बाद मोती बीए जैसा गीतकार गुमनामी के अंधेरों में खोता चला गया। मोती बीए को कई सम्मान मिले लेकिन भोजपूरी के विद्वान के रूप में उनका मूल्यांकन कभी नहीं हुआ। उनके पुत्र भाल चंद्र उपाध्याय उनकी कृतियों को सहेज कर रखने का काम तो करते रहे लेकिन वे अपने पिता को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिलाने में नाकाम रहे। 

      शोहरत, सम्मान और अपनी शर्तों पर काम, सब कुछ मोती बीए को मिला लेकिन नौकरशाही ने अंत तक उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं दिया। हांलाकि इस बात का उल्लेख अनेक संवतंत्रता सेनानी और साहित्यकार समय समय पर करते रहे कि मोती बीए को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से कई बार अंग्रेज़ी शासन ने गिरफ़्तार कर जेल भेजा फिर भी उन्हें जेल भेजे जाने का रिकार्ड आज़ाद हिंदुस्तान की नौकरशाही को नहीं मिल पाया।

      पिछले कुछ सालों से मोती जी की बोलने की ताकत खत्म हो गयी थी। उन्होंने 23 जनवरी 2009 को दुनिया से विदा लेली। उत्तर प्रदेश के एक दैनिक को छोड़ उनकी मौत किसी के लिये ख़बर तक नहीं बन सकी।

Sunday, May 3, 2009

लेखकों का शोषण करते संपादक

चंद दिनों पहले की बात है , सुबह सुबह फोन की घंटी बजी । फोन उठाने पर आवाज आई कि मैं पुष्प बोल रहा हूं । चूंकि सोते- सोते फोन उठाया था इसलिए अनायास मुंह से निकला कौन पुष्प ? उलाहने भरे स्वर में पुष्प जी ने बताया कि वो ‘साहित्य केसरी’ के संपादक विनोद पुष्प बोल रहे हैं । तबतक मैं कुछ व्यवस्थित हो चुका था और उनके उलाहना भरे स्वर के बाद सचेत भी । इधर-उधर की बातचीत के बाद पुष्प जी कहा कि उनकी पत्रिका साहित्य केसरी के लिए मुझसे एक लेख चाहिए । मैंने छूटते ही पूछा कि लेख लिखने के कितने पैसे मिलेंगे । इतना सुनते ही पुष्प जी हत्थे से उखड़ गए और कहने लगे कि – “मेरी पत्रिका साहित्य केसरी एक आंदोलन है और मैं आपसे एक आंदोलन में भागीदारी चाहता हूं और आप हैं कि आंदोलन में भागीदारी के एवज में पैसे मांग रहे हैं । मैं पिछले पच्चीस वर्षों से अनियतकालीन पत्रिका निकाल रहा हूं और आजतक किसी ने आप जैसी बेशर्मी से लेख लिखने के पैसे नहीं मांगे । चूंकि पुष्प जी मेरे पैतृक शहर से हैं और वरिष्ठ साहित्यकार भी इसलिए मैं उनकी सुनता रहा और वो मुझे तमाम सिद्धांतों की घुट्टी पिलाने में जुटे रहे, मेरे जमीर, मेरी प्रतिबद्धता आदि आदि को झकझोरने की नाकाम कोशिश करते रहे । जब वो थोड़ा रुके तो मैंने उनसे पूछा कि आप पत्रिका निकालने के लिए जो कागज खरीदते हैं उसका भुगतान करते हैं ? क्या छपाई के लिए प्रेस वाले को पैसे देते हैं ? क्या पैकिंग और पोस्टिंग पर खर्च करते हैं ? जब इन सवालों के जबाव मुझे सकारात्मक मिले, तो फिर मैंने उनसे पूछा कि लेखकों को पैसा क्यों नहीं देते ? मेरे इस सवाल का उनके पास कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था, जाहिर था उन्होंने फोन काट दिया । इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया और मैं काफी देर तक इसपर विचार करता रहा कि कि क्या लेख लिखने के लिए पैसे मांगकर मैंने गलत किया । इस घटना ने मेरे सामने एक और बड़ा सवाल खड़ा कर दिया था वो सवाल जो हिंदी लेखकों की अस्मिता से जुड़ा था । मैं काफी देर तक हिंदी में निकल रहे सैकड़ों साहित्यिक पत्रिका के बारे में सोचता रहा और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि लेखकों को मानदेय तो सिर्फ दो तीन पत्रिकाएं ही देती हैं ।
आज जब कि साहित्य में कोई भी व्यावसायिक पत्रिका नहीं बची है, लेकिन लघु पत्रिकाएं धड़ाधड़ निकल रही हैं, तो इसके पीछे के गणित पर विचार करना बी जरूरी है । साहित्यिक रुझानवाला और एक लेखक के रूप में स्थापित ना होने की कुंठा मन में संजोए लोगों के बीच संपादक बनने की होड़ सी लगी है । संपादक बनने का गणित है भी बेहद आसान । व्यक्तिगत संपर्कों और मित्रों की मदद से किसी तरह एक अंक निकालिए और बन जाइए संपादक । चूंकि साहित्यिक पत्रिकाएं अनियतकालीन होती है इसलिए यहां भूतपूर्व होने का खतरा भी नहीं है ।
लघु पत्रिकाओं के ज्यादातर संपादक आज आर्थिक तंगी का रोना रोकर लेखकों को पैसे नहीं देते लेकिन पत्रिकाओं के संपादकों के ठाठ में कोई कमी नहीं दिखाई देती है । इन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के सरोकार भी बेहद संकुचित और व्यक्ति केंद्रित हो गए हैं । लेखकीय गरिमा या फिर साथी लेखकों की प्रतिष्ठा का उन्हें कोई ख्याल नहीं है । साथी लेखकों को ये साहित्यिक संपादक ‘टेकन फॉर ग्रांटेड’ समझते हैं । न तो उनकी मेहनत का ध्यान रखते हैं और ना ही उनके लेख लिखने के दौरान हुए खर्चे, मसलन- कागज, स्याही, कंप्यूटर, प्रिंटर- आदि का । संपादक नामक ये जीव अपने सहयोगी लेखकों को पहले तो इमोशनल ब्लैकमेल करते हैं और जब उससे उनका स्वार्थ नहीं सधता तो फिर विचारधारा की धौंस देकर अपना काम निकालने की तिकड़म करते हैं ।
पत्रिका निकालने के साथ ये साहित्यिक संपादक एक और खेल खलते हैं । अब उनपर भी एक नजर डाल लेते हैं । आजकल आपको साहित्यिक पत्रिकाओं के मोटे-मोटे विशेषांक दिख जाएंगें – कोई समकालीन कविता पर, कोई उपन्यास पर , कोई कहानियों पर, कोई आलोचना की वर्तमान दशा-दिशा पर, तो कोई फिल्म पर तो कोई किसी लेखक विशेष पर केंद्रित होता है ।
दरअसल इन विशेषांको के पीछे भी धन कमाने की जुगत होती है । विशेषांक की योजना बनाते समय ही किसी प्रकाशक को इसका सहभागी बना लिया जाता है और उनसे तय हो जाता है कि पत्रिका प्रकाशन के कुछ दिनों बाद उसे पुस्तकाकार छाप दिया जाए । प्रकाशक तय होते ही किसी विषय विशेष पर पत्रिका का अंक प्रकाशित होता है । मोटी पत्रिका के प्रकाशन में आने वाला खर्च प्रकाशक वहन करते हैं । पत्रिका का मूल्य इतना अधिक होता है या रखा जाता है कि पाठक उसको कम से कम खरीदें । बची हुई पत्रिका को पहले से तय सौदे के आधार पर प्रकाशक हार्ड कवर में डालकर पुस्तक का रूप दे देते हैं । जिसे उंचे दामों पर थोक सरकारी खरीद में खपा दिया जाता है । बिक्री से जो रॉयल्टी मिलती है उसे संपादक खुद डकार जाता है और अगर लेखक किस्मतवाला हुआ तो उसे पुस्तक की एक प्रति मिल जाती है । इस प्रवृति के लाभ भी हैं लेकिन लेखकों को ईमानदारी से रायल्टी में हिस्सा तो मिलना ही चाहिए ।
इस खेल में छोटे मोटे संपादकों के अलावा कई नामचीन लेखक/ संपादक भी सक्रिय हैं और साथी लेखकों का जमकर शोषण कर रहे हैं । खुद तो पत्रिका के नाम पर ऐश करते हैं और साथी लेखकों को उनका वाजिब हक भी देना गंवारा नहीं । मेरे जानते ऐसी साहित्यिक पत्रिकाओं की एक लंबी फेहरिस्त है जो अपने लेखकों को एकन्नी भी नहीं देते उल्टे उनसे ये अपेक्षा रखते हैं कि कुछ विज्ञापन का जुगाड़ कर दें या फिर कुछ प्रतियां बेचने का इंतजाम करें ।
ये एक ऐसा सवाल है जिसपर पूरी लेखक बिरादरी को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । आज हिंदी के प्रकाशकों पर गाहे बगाहे लेखकों की रॉयल्टी हड़पने का आरोप लगता है । कुछ लेखक तो बकायदा लिखकर भी इसके खिलाफ अपनी आवाज उठा चुके हैं, कुछ विवाद मित्रों के बीचबचाव की वजह से सामने आने से रह जाते हैं । लेकिन मेरे जानते किसी ने भी साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के संपादकों द्वारा लेखकों के शोषण को विषय बनाकर इसे किसी भी मंच पर उठाने की कोशिश नहीं की है । संपादकों के इस छलात्कार का जोरदार विरोध लेखकों को हर उपलब्ध मंच पर करना चाहिए ताकि शोषण के खिलाफ अपनी रचनाओं में आवाज उठानेवाले खुद के शोषण को बेनकाब कर सके । अंत में मुझे वरिष्ठ साहित्यकार उपेन्द्र नाथ अश्क से जुड़ा एक दिलचस्प प्रसंग याद आ रहा है । अश्क जी को एक बार एक प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक ने समीक्षा के लिए एक पुस्तक भिजवाई । पत्रिका के साथ लिखे पत्र में संपादक ने आग्रह किया कि पुस्तक प्राप्ति की सूचना दें । अश्क जी ने पुस्तक प्राप्ति की सूचना का जो पत्र लिखा वो कुछ यों था – प्रिय भाई समीक्षा के लिए आप द्वारा प्रेषित पुस्तक प्राप्त हुई, आभार । लेकिन पुस्तक के साथ यदि आप समीक्षा लेखन के मानदेय का चेक भी संलग्न कर देते तो मैं हुलसकर समीक्षा लिखता और उत्साह के साथ उसे आपको प्रेषित करता, सादर आपका, अश्क ।