अभी कुछ दिनों पहले एक खबर पढ़कर चौंक गया । चित्तौड़गढ़ के वाणमाता में एक कुंवारी मां के दो साल के बच्चे के पिता का पता लगाने के लिए पंचायत बैठी । बगरिया समाज के इस पंचायत में युवती के मां बनने पर चली सुनवाई में ये सच सामने आई कि उसका जीजा ही उसके बच्चे का बाप है । युवक के इस सच को स्वीकारने के बाद पंचायत ने उसपर पंद्रह हजार का दंड लगाया और दो साल के बच्चे को उसे सौंप दिया । सवाल ये उठता है कि इस अपराध के लिए इतनी छोटी सी सजा माकूल है । लेकिन पंचायत का फैसला सर माथे पर लेते हुए लड़की ने अपने दो साल के बच्चे को उसके पिता को सौंप तो दिया लेकिन एक अनब्याही मां के दर्द को कौन समझेगा, जिसने ना केवल अपना कौमार्य गंवाया बल्कि जिंदगीभर समाज की जिल्लत झेलने को अभिशप्त हो गई । लेकिन पुरुष प्रधान समाज में महलाओं की फिक्र किसे हैं । ये सिर्फ चित्तौड़गढ़ की कहानी ही नहीं है बल्कि पंचायत का अलग कानून, राजस्था के अलावा, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बदस्तूर जारी है ।
कुछ दिनों पहले बिजनौर में हुई एक पंचायत के बाद हुई रंजिश में बाप बेटी ने दो लोगों को गोलियों से भून दिया था । दरअसल उस पंचायत के बीच खड़े सत्तर साल के बाप और उसकी बाइस साल की बेटी के बीच नाजायज रिश्तों का आरोप लगा था । इससे पहले कि वो दोनों अपनी सफाई में कुछ कह पाते पंचायत ने फरमान सुना दिया कि दोनों सुधर जाएं नहीं तो गांव से निकाल दिया जाएगा... इस मसले को लेकर तीन बार पंचायत हुई लेकिन चौथी पंचायत में भी जब इनकी सफाई नहीं सुनी गई तो आजिज आ कर बाप बेटी पंचों को गोली मार दी । लेकिन ये दुस्साहस कम ही लोग कर पाते हैं ।
हरियाणा में तो प्रेमी जोडों पर बहुधा पंचायत का कहर मौत बन कर बरपती है । लेकिन वोट बैक की राजनीति में उलझे नेताओं को ना तो कानून की फिक्र है और ना ही संविधान की । जाति के आधार पर बनी पंचायतें खुलेआम कानून की धज्जियां उड़ाती रहती हैं और संविधान को चुनौती देती रहती हैं लेकिन कानून के रखवाले उनके आगे बेबस और लाचार नजर आते हैं । आजादी के साठ साल बाद भी पंचायतों का ये रुख आरतीय लोकतंत्र पर एक ऐसा घाव है जिसकी सर्जरी अगर जल्द नहीं की गई तो वो नासूर बनकर हमारे समाज को लहलुहान करता रहेगा ।
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Thursday, October 29, 2009
Monday, October 26, 2009
सितारों पर लगाओ लगाम
देश के दक्षिणी राज्यों में फिल्मी सितारों का अच्छा खासा प्रभाव है । जनता चाहती है तो जाहिर है राजनेता और राजनीतिक दलों के बीच भी उनकी धाक है । पिछले दिनों जब तमिल दैनिक दिनामलार के न्यूज एडीटर बी लेनिन को अखबार में छपी एक रिपोर्ट के आधार पर बगैर किसी रंट के पुलिस ने उनके दफ्तर से गिरफ्तार किया और रात में ही जज के घर पर पेश कर रिमांड पर लिया तो पुलिस की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो गए । दरअसल दिनामलार में एक तमिल अभिनेत्री के सेक्स रैकेट में होने की खबर छापी गई थी । जिससे पूरा तमिल फिल्म उद्योग एकजुट होकर चेन्नई पुलिस कमिश्नर के दफ्तर के सामने धरने पर बैठे । तमिल फिल्म इंडस्ट्री ने उक्त अभिनेत्री पर लगाए गए आरोपों को फिल्म फैटरनिटी पर लगा आरोप मानकर एकजुटता दिखाई । तमिल फिल्मों के सुपर स्टार रजनीकांत भी धरने पर बैठे और मीडिया को जमकर नसीहत दी । लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन की इजाजत सबको है लेकिन जिस तरह से तमिल फिल्मी सितारों ने जहर उगला उसकी जितनी निंदा की जाए वो कम है । दिनामलार के संपादक पर तो अखबार में छपी रिपोर्ट के आदार पर हैरेसमेंट ऑफ वूमन एक्ट लगा दिया गया लेकिन सरेआम लेनिन के परिवारवालों के खिलाफ जहर उगलने वाले फिल्मी सितारों पर कोई कार्रवाई करने की हिम्मत चेन्नई पुलिस नहीं जुटा पाई ।
जो विरोध प्रदर्शन हुआ उसमें तमिल सितारों ने मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी । श्रीप्रिया तो जोश में होश खो बैठी और दिनामलार अखबार के मालिकों के परिवार की औरतों के बारे में जमकर बुराभला कहा । विवेख ने तो यहां तक कह डाला कि अगर लेनिन की परिवार की औरतों की तस्वीरें उन्हें मिल जाए तो कंम्प्यूटर ग्राफिक्स के जरिए वो अश्लील तस्वीरो के उपर उनका चेहरा लगाकर पूरे राज्य में दीवारों पर चिपकवा देंगे । वो यहीम रुके और मीडिया को बगैर फिल्मों के सीन इस्तेमाल किए पत्रकारिता करने की चुनौती दे डाली । अब इस कॉमेडियन को कौन समझाए कि सितारों की लोकप्रियता मीडिया की बदौलत ही है । किसी भी फिल्म के रिलीज होने के पहले उनके पब्लिक रिलेशन एजेंट किस कदर मीडिया का सामने गिड़गिड़ाते हैं ये बताने की जरूरत नहीं है ।
अभिनेता विजय कुमार ने तो सरेआम यहां तक कह डाला कि दिनामलार के उस रिपोर्ट को देखने के बाद उनका खून खौल उठा और वो अखबार के दफ्तर में घुसकर हंगामा करने की सोचने लगे थे । हो सकता है कि दिनामलार में छपी वो रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ियां हो और जनता के हित की कोई बात नहीं हो । इसके लिए पीड़ित पक्ष को अदालत की शरण लेनी चाहिए या फिर अखबार और पत्रकार के खिलाफ प्रेस काइंसिल जाना चाहिए था । लेकिन विरोध प्रदर्शन का ये कौन सा तरीका है जहां आप सरेआम गाली गलौच की भाषा इस्तामाल करते हैं । ये एक ऐसा तरीका है जिसको अपनाकर सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है और सरकार फिल्मी सितारों की लोकप्रियता का दबाव में बगैर सोचे समझे कानूनी कार्रवाई कर मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला कर रही है ।
पिछले कुछ सालों से मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले लगातार बढ़े हैं । अगर हम गौर करें तो मीडिया संस्थानों, चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमले के कई वारदात हुए हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक अनाम से संगठन- हिंदू राष्ट्र सेना - के तीस चालीस गुंडे सरिए और हथौड़े से लैस मुंबई के एक टीवी न्यूज चैनल के दफ्तर में घुस गए और जमकर न केवल उत्पात मचाया बल्कि पत्रकारों के साथ मारपीट भी की । इतने पर भी जब उन गुंडों का गुस्सा ठंढा नहीं हुआ तो दफ्तर के फर्नीचर और नीचे पार्किंग में खड़ी गाड़ियां तक तोड़ डाली । इन लोगों के गुस्से की वजह बना उक्त न्यूज चैनल पर दिखाई गई एक खबर जिसमें एक मुस्लिम लड़के ने एक हिंदू लड़के से शादी कर ली थी और समाज के ठेकेदारों के डर से वहां आकर आत्मसमर्पण किया था । इस हमले की जब राष्ट्रीय स्तर पर घोर निंदा हुई तब जाकर सरकार हरकत में आई और अठारह लोगों की गिरफ्तारी हुई । बाद में पता चला कि हमला करने वाले इस अनाम से गैंग का मुखिया धनंजय देसाई था जिसके खिलाफ पहले ही चोरी के तेरह मामले दर्ज थे ।
उस वारदात के ठीक अगले ही दिन राजधानी दिल्ली में एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के रिपोर्टर से मारपीट की गई । दरअसल राजधानी के रोहिणी इलाके में एक डाक्टर को महिला मरीज के साथ छेड़छाड़ के आरोप में पकड़ा गया और जब रिपोर्टर मौके पर पहुंचकर तस्वीर लेने लगा तो ड़ाक्टर के समर्थकों ने वहां मौजूद मीडियाकर्मियों पर हमला कर दिया और उनके साथ मारपीट की । इन वारदातों से सकते में आई मीडिया अभी उबर भी नहीं पाया था कि सुदूर दक्षिण के शहर मदुरै से खबर आई कि कुछ उत्पाती लोगों ने तमिल दैनिक दिनाकरण के दफ्तर को फूंक डाला है । इस घटना में तीन लोगों की मौत भी हुई । आरोप लगा था तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बड़े बेटे और अब केंद्रीय मंत्री अझागिरी के समर्थकों पर । गुस्से की वजह दिनाकरण में छपा एक सर्वे था, जिसमें जनता से ये सवाल पूछा गया था कि करुणानिधि के बाद डीएमके की बागडोर कौन संभालेगा । और अझागिरी के समर्थक इस बात से भड़क गए कि उनका नाम इस सर्वे में नीचे आया । उनका यही गुस्सा आगजनी और तीन लोगों की मौत की वजह बना । इस घृणित कृत्य के पीछे करुणानिधि के परिवार में चल रहा आपसी विवाद हो सकता है लेकिन खुलेआम तो एक मीडिया संस्थान को जला कर राख कर दिया गया, उसमें काम करने वाले तीन लोगों को जिंदा जला दिया गया था।
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले और भी जगहों और और तरीकों से भी हो रहे हैं । अभी कुछ महीने पहले शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने सामना में लिखे अपने संपादकीय में शिवसैनिकों को हुक्म दिया था कि जेम्स लेन की किताब - शिवाजी, हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया- की प्रति जहां कहीं भी मिले इसे जला दिया जाए और शिवसैनिकों के लिए तो बाला साहब का हुक्म पत्थर की लकीर होता है । गौरतलब है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस किताब पर लगाए प्रतिबंध को हटा दिया था । इसक पहले संभाजी ब्रिगेड के लोगों ने जनवरी दो हजार चार में पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में घुसकर ऐतिहासिक महत्व के कई दस्तावेजों को नष्ट करने के अलावा संस्थान में तोड़ फोड़ भी किया था । संभाजी ब्रिगेड का गुस्सा इस बात को लेकर था कि जेम्स लेन की शिवाजी पर लिखी किताब में शोध में सहयोग देने के लिए लेखक ने इस संस्थान का आभार प्रकट किया था । संभाजी ब्रिगेड और हिंदू राष्ट्र सेना जैसे अनाम संगठनों को बाल ठाकरे के इस तरह के उकसाने वाले संपादकीय से बल मिलता है और वो मीडिया पर हमला करने का दुस्साहस कर पाते हैं ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद उन्नीस में अन्य बातों के अलावा संघ के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता( राइट टू फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन एंड स्पीच) का अधिकार प्रदान करता है । लेकिन साथ ही संविधान अभिव्यक्ति की इस हद तक स्वतंत्रता प्रदान करता है जबतक कि वो दूसरों की आजादी का हनन न करे । लोग, यहां तक कि सरकारें भी इसी की आड़ में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का यत्न करती है । जिसे बाद में अदालत बहुधा गैरजरूरी करार देती है । लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना गया है और वर्षों के अपने लंबे संघर्ष के बाद मीडिया ने अपना एक मुकाम हासिल किया है और लोकतंत्र के सजह प्रहरी के रूप में अपने को स्थापित भी किया है । लेकिन अपनी आलोचनाओं से नाराज होकर लोग कानून खुद हाथ में लेने लगे हैं या अपने समर्थों को उकसाने लगे हैं और मीडिया संगठनों को डराने धमकाने की कोशिश शुरु हो जाती है ।
अब वक्त आ गया है कि मीडिया को खुद पर हो रहे हमलों के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए और संगठित होकर अपनी आवाज उठानी चाहिए । दिनामलार के न्यूज एडिटर पर हुए पुलिसिया जुर्म के खिलाफ सिर्फ कुछ पत्रकार संगठनों ने बयीन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली लेकिन पत्रकारों को तमिलनाडु के फिल्मी सितारों से एक जुटता का सबक लेना चाहिए और सरकार पर सख्त कानून बनाने के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए ।
जो विरोध प्रदर्शन हुआ उसमें तमिल सितारों ने मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी । श्रीप्रिया तो जोश में होश खो बैठी और दिनामलार अखबार के मालिकों के परिवार की औरतों के बारे में जमकर बुराभला कहा । विवेख ने तो यहां तक कह डाला कि अगर लेनिन की परिवार की औरतों की तस्वीरें उन्हें मिल जाए तो कंम्प्यूटर ग्राफिक्स के जरिए वो अश्लील तस्वीरो के उपर उनका चेहरा लगाकर पूरे राज्य में दीवारों पर चिपकवा देंगे । वो यहीम रुके और मीडिया को बगैर फिल्मों के सीन इस्तेमाल किए पत्रकारिता करने की चुनौती दे डाली । अब इस कॉमेडियन को कौन समझाए कि सितारों की लोकप्रियता मीडिया की बदौलत ही है । किसी भी फिल्म के रिलीज होने के पहले उनके पब्लिक रिलेशन एजेंट किस कदर मीडिया का सामने गिड़गिड़ाते हैं ये बताने की जरूरत नहीं है ।
अभिनेता विजय कुमार ने तो सरेआम यहां तक कह डाला कि दिनामलार के उस रिपोर्ट को देखने के बाद उनका खून खौल उठा और वो अखबार के दफ्तर में घुसकर हंगामा करने की सोचने लगे थे । हो सकता है कि दिनामलार में छपी वो रिपोर्ट में कुछ गड़बड़ियां हो और जनता के हित की कोई बात नहीं हो । इसके लिए पीड़ित पक्ष को अदालत की शरण लेनी चाहिए या फिर अखबार और पत्रकार के खिलाफ प्रेस काइंसिल जाना चाहिए था । लेकिन विरोध प्रदर्शन का ये कौन सा तरीका है जहां आप सरेआम गाली गलौच की भाषा इस्तामाल करते हैं । ये एक ऐसा तरीका है जिसको अपनाकर सरकार पर दबाव बनाया जा रहा है और सरकार फिल्मी सितारों की लोकप्रियता का दबाव में बगैर सोचे समझे कानूनी कार्रवाई कर मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला कर रही है ।
पिछले कुछ सालों से मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले लगातार बढ़े हैं । अगर हम गौर करें तो मीडिया संस्थानों, चाहे वो प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमले के कई वारदात हुए हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं जब एक अनाम से संगठन- हिंदू राष्ट्र सेना - के तीस चालीस गुंडे सरिए और हथौड़े से लैस मुंबई के एक टीवी न्यूज चैनल के दफ्तर में घुस गए और जमकर न केवल उत्पात मचाया बल्कि पत्रकारों के साथ मारपीट भी की । इतने पर भी जब उन गुंडों का गुस्सा ठंढा नहीं हुआ तो दफ्तर के फर्नीचर और नीचे पार्किंग में खड़ी गाड़ियां तक तोड़ डाली । इन लोगों के गुस्से की वजह बना उक्त न्यूज चैनल पर दिखाई गई एक खबर जिसमें एक मुस्लिम लड़के ने एक हिंदू लड़के से शादी कर ली थी और समाज के ठेकेदारों के डर से वहां आकर आत्मसमर्पण किया था । इस हमले की जब राष्ट्रीय स्तर पर घोर निंदा हुई तब जाकर सरकार हरकत में आई और अठारह लोगों की गिरफ्तारी हुई । बाद में पता चला कि हमला करने वाले इस अनाम से गैंग का मुखिया धनंजय देसाई था जिसके खिलाफ पहले ही चोरी के तेरह मामले दर्ज थे ।
उस वारदात के ठीक अगले ही दिन राजधानी दिल्ली में एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल के रिपोर्टर से मारपीट की गई । दरअसल राजधानी के रोहिणी इलाके में एक डाक्टर को महिला मरीज के साथ छेड़छाड़ के आरोप में पकड़ा गया और जब रिपोर्टर मौके पर पहुंचकर तस्वीर लेने लगा तो ड़ाक्टर के समर्थकों ने वहां मौजूद मीडियाकर्मियों पर हमला कर दिया और उनके साथ मारपीट की । इन वारदातों से सकते में आई मीडिया अभी उबर भी नहीं पाया था कि सुदूर दक्षिण के शहर मदुरै से खबर आई कि कुछ उत्पाती लोगों ने तमिल दैनिक दिनाकरण के दफ्तर को फूंक डाला है । इस घटना में तीन लोगों की मौत भी हुई । आरोप लगा था तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बड़े बेटे और अब केंद्रीय मंत्री अझागिरी के समर्थकों पर । गुस्से की वजह दिनाकरण में छपा एक सर्वे था, जिसमें जनता से ये सवाल पूछा गया था कि करुणानिधि के बाद डीएमके की बागडोर कौन संभालेगा । और अझागिरी के समर्थक इस बात से भड़क गए कि उनका नाम इस सर्वे में नीचे आया । उनका यही गुस्सा आगजनी और तीन लोगों की मौत की वजह बना । इस घृणित कृत्य के पीछे करुणानिधि के परिवार में चल रहा आपसी विवाद हो सकता है लेकिन खुलेआम तो एक मीडिया संस्थान को जला कर राख कर दिया गया, उसमें काम करने वाले तीन लोगों को जिंदा जला दिया गया था।
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले और भी जगहों और और तरीकों से भी हो रहे हैं । अभी कुछ महीने पहले शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने सामना में लिखे अपने संपादकीय में शिवसैनिकों को हुक्म दिया था कि जेम्स लेन की किताब - शिवाजी, हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया- की प्रति जहां कहीं भी मिले इसे जला दिया जाए और शिवसैनिकों के लिए तो बाला साहब का हुक्म पत्थर की लकीर होता है । गौरतलब है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस किताब पर लगाए प्रतिबंध को हटा दिया था । इसक पहले संभाजी ब्रिगेड के लोगों ने जनवरी दो हजार चार में पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट में घुसकर ऐतिहासिक महत्व के कई दस्तावेजों को नष्ट करने के अलावा संस्थान में तोड़ फोड़ भी किया था । संभाजी ब्रिगेड का गुस्सा इस बात को लेकर था कि जेम्स लेन की शिवाजी पर लिखी किताब में शोध में सहयोग देने के लिए लेखक ने इस संस्थान का आभार प्रकट किया था । संभाजी ब्रिगेड और हिंदू राष्ट्र सेना जैसे अनाम संगठनों को बाल ठाकरे के इस तरह के उकसाने वाले संपादकीय से बल मिलता है और वो मीडिया पर हमला करने का दुस्साहस कर पाते हैं ।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद उन्नीस में अन्य बातों के अलावा संघ के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता( राइट टू फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन एंड स्पीच) का अधिकार प्रदान करता है । लेकिन साथ ही संविधान अभिव्यक्ति की इस हद तक स्वतंत्रता प्रदान करता है जबतक कि वो दूसरों की आजादी का हनन न करे । लोग, यहां तक कि सरकारें भी इसी की आड़ में अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने का यत्न करती है । जिसे बाद में अदालत बहुधा गैरजरूरी करार देती है । लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना गया है और वर्षों के अपने लंबे संघर्ष के बाद मीडिया ने अपना एक मुकाम हासिल किया है और लोकतंत्र के सजह प्रहरी के रूप में अपने को स्थापित भी किया है । लेकिन अपनी आलोचनाओं से नाराज होकर लोग कानून खुद हाथ में लेने लगे हैं या अपने समर्थों को उकसाने लगे हैं और मीडिया संगठनों को डराने धमकाने की कोशिश शुरु हो जाती है ।
अब वक्त आ गया है कि मीडिया को खुद पर हो रहे हमलों के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए और संगठित होकर अपनी आवाज उठानी चाहिए । दिनामलार के न्यूज एडिटर पर हुए पुलिसिया जुर्म के खिलाफ सिर्फ कुछ पत्रकार संगठनों ने बयीन जारी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली लेकिन पत्रकारों को तमिलनाडु के फिल्मी सितारों से एक जुटता का सबक लेना चाहिए और सरकार पर सख्त कानून बनाने के लिए दबाव बनाया जाना चाहिए ।
Friday, October 16, 2009
बंद करो किताबों की सरकारी खरीद
इस वर्ष के साहित्य के नोबेल पुरस्कार का ऐलान हुआ और रोमानिया में पैदा हुई जर्मन लेखिका हेर्ता म्यूलर को ये सम्मान मिला तो उनके लेखन के बारे में जानने की इच्छा हुई । काम से वक्त निकालकर दिल्ली और आसपास के पुस्तकों की दुकानों की खाक छानी लेकिन हेर्ता म्यूलर की कोई किताब कहीं नहीं मिल पाई । तकरीबन हर जगह पुस्तक विक्रेताओं ने कहा कि कुछ दिनों में पुस्तक उपलब्ध हो पाएगी । निराश होकर वापस लौट आया लेकिन कुछ सवाल बेहद परेशान करनेवाले रहे और लगातार मुंह बाए मेरे सामने खड़े हैं । पहला तो ये कि हमारे समाज में किताबों को लेकर ये उपेक्षा भाव क्यों है । उपेक्षा भाव मैं इसलिए कह रहा हूं कि राजधानी दिल्ली, जिसे दूर दराज के साहित्यप्रेमी और लेखक साहित्य की भी राजधानी कहते हैं, में भी किताबों की दुकान ढूंढने में आपको श्रम करना पड़ेगा । ढूंढे से किताब नहीं मिल पाएगी । कोई भी ऐसी दुकान नहीं जहां आप इस विश्वास के साथ जा सकें कि आपकी मनपसंद किताब आपको मिल जाएगी । अगर हम पुस्तकों की उपलब्धता की बात करें तो दिल्ली और आसपास के शहरों के हालात बेहद निराशाजनक हैं । पूरी दिल्ली में किताबों की दुकानें उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं और आपको उनतक पहुंचने के लिए कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ेगी । अगर आप तमाम संघर्षों के बाद किताबों की दुकान तक पहुंच भी जाते हैं तो आपको अंग्रेजी कि किताबें तो मिल जाएंगी लेकिन हिंदी की किताबें नहीं मिल पाएंगी । हिंदी की किताबों के लिए आपको प्रकाशकों से संपर्क करना पड़ेगा या फिर दिल्ली के दरियागंज इलाके की खाक छाननी होगी । दरियागंज का आलम ये है कि आप अगर वहां अपनी कार से चले गए तो कार अक्षत वापस नहीं आ सकती, उसपर खरोंच लगना तय है । साथ ही गाड़ी पार्क करने में आपको इतनी मशक्कत करनी पड़ेगी कि आपके किताब पढ़ने का भूत सर से उतर जाएगा । ये हाल सिर्फ पुस्तकों को लेकर ही नहीं है , पत्र- पत्रिकाएं भी सहज सुलभ उपलब्ध नहीं हैं ।
सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है । क्या पूरा हिंदी समाज इसके लिए जिम्मेदार है या फिर प्रकाशकों को पाठकों की फिक्र ही ही नहीं है । दरअसल मुझे लगता है कि इसके लिए प्रकाशकों के साथ- साथ वामपंथी विचारधारा के लेखकों और प्रकाशकों पर उनका प्रभाव जिम्मेदार है । ना तो लेखक और ना ही प्रकाशक किताबों को प्रोडक्ट की तरह समझकर व्यवहार करते हैं । प्रोडक्ट नाम सुनते ही वामपंथी लेखक ऐसे भड़कते हैं जैसे लगता है कि किसी सांढ को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो । प्रोडक्ट शब्द से उनको बाजारवाद और पूंजीवाद की बू आने लगती है और वो इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि अगर पुस्तकों को प्रोडक्ट की श्रेणी में रख दिया जाएगा तो उनका श्रम व्यर्थ चला जाएगा, उनकी मेहनत पर पूंजीवाद और बाजारवाद पानी फेर देगा । लेकिन प्रोडक्ट वही तो होता है जिसपर मेहनत की जाती है, जिसके उत्पादन पर पैसा खर्च किया जाता है और उससे कुछ लाभ की अपेक्षा की जाए । लेखक भी कई महीनों तक किसी कृति पर मेहनत करते हैं और फिर प्रकाशक उसे किताब की शक्ल देने में उसपर पैसे खर्च करता है और लाभ की अपेक्षा लेखक और प्रकाशक दोनों को होती है। तो मानव श्रम, पैसा और लाभ की आंकाक्षा तीनों चीजें हैं तो फिर प्रोडक्ट मानने में हर्ज क्या है । अगर प्रोडक्ट को बाजार नहीं मिलेगा तो ना केवल मानव श्रम व्यर्थ जाएगा बल्कि जिस लक्ष्य और उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी खास विषय पर लिखा गया है वो जाया चला जाएगा । लेखकों की रचनाओं से ये अपेक्षा होती है कि वो समाज में बदलाव लाएगी लेकिन अगर रचनाएं टार्गेट ग्रुप तक पहुंच ही नहीं पाएंगी तो ना तो समाज में बदलाव आ पाएगा और ना ही किसी विचार का प्रसार हो पाएगा ।
दूसी बात ये कि अगर हम पुस्तकों को एक उत्पाद मानने लगेंगे तो प्रकाशकों के साथ साथ लेखकों का भी भला होगा । अभी हालात ये है कि रॉयल्टी को लेकर हर लेखक के मन में मलाल होता है । हिंदी के लेखकों के इस मलाल से ये तो साबित हो ही जाता है कि उनको अपनी किताब से लाभ की अपेक्षा है । आपने श्रम किया, आपको लाभ की आकांक्षा है और प्रकाशक का पैसा लगा तो फिर किताब को उत्पाद मानने में दिक्कत क्या है ।
दूसरी अहम बात है कि प्रकाशकों की रुचि भी सरकारी थोक खरीद में ज्यादा होती है और पाठकों तक पहुंचाने में होनेवाले मेहनत और खर्चे से वह बचना चाहता है । प्रकाशकों के लिए प्रकाशन व्यवसाय किसी भी दूसरे अन्य कारोबार की तरह ही है जहां उसका उद्देश्य कम खर्चे में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना है । और अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वो प्रयास भी करता रहता है, करना भी चाहिए । प्रकाशकों को लगता है कि सरकारी खरीद में अफसरों को रिश्वत देकर अगरी अपनी किताबें बेच दी तो बल्ले –बल्ले । हर्रे लगे ना फिटकरी रंग चोखा होए । कई प्रकाशक मेरे मित्र हैं, उनसे जब भी बात होती है तो उनकी चिंता सिर्फ सरकारी थोक खरीद को लेकर रहती है । फुटकर बिक्री में उनकी रुचि बेहद कम होती है , जब भी उनसे बात करो तो पाठकों की कमी का रोना रोकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं । लेकिन ये बात बार-बार उठती रही है और हर बार गलत भी साबित होती रही है कि हिंदी में पाछक नहीं हैं । आज हिंदी का विसाल पाठकों का बड़ा बाजार है जिसपर कब्जे की होड़ दिखाई दे रही है । लेकिन हिंदी के प्रकाशक इसको या तो समझ नहीं पा रहे हैं या फिर जानबूझकर समझना नहीं चाहते ।
तीसरी अहम बात है कि लेखक भी प्रकाशक पर ये दबाव बना पाने की स्थिति में नहीं हैं कि उनके किताबों के प्रचार प्रसार के लिए काम किया जाए । ये किसी व्यक्तिगत प्रयास से संभव नहीं है । क्योंकि आज हिंदी के लेखक इस हैसियत में नहीं हैं कि वो प्रकाशकों पर दबाव बना सकें । जो दो तीन लेखक इस हैसियत में हैं उनपर प्रकाशक इतने मेहरबान होते हैं कि वो अपने साथी लेखकों के हितों के लिए उठनेवाली आवाज का समर्थन नहीं कर सकते । उल्टे प्रयासपूर्वक मामले को सुलझाने के नाम पर प्रकाशकों की तरफदारी करने लग जाते हैं । लेखक संगठन लगभग मृतप्राय है जिनकी भूमिका कुछ रह नहीं गई है । लेखकों की शोकसभा और एकाध रचाना पाठ आयोजित करने के अलावा संगठन कुछ कर नहीं पाते हैं ।
तो ऐसे में सावल ये उठता है कि हम जैसे पाठकों का क्या होगा, क्या किसी खास किताब को पढ़ने की हमारी लालसा मन में दबी रह जाएगी । या फिर इस समस्या का हल भी सरकार को ही करना पड़ेगा । मुझे तो लगता है कि पुस्तकों की सरकारी थोक खरीद बंद कर देनी चाहिए और प्रकाशकों और लेखकों को पाठकों के रहमोकरम पर छोड़ देना चाहिए तभी प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने की कोशिश करेंगे और हिंदी समाज में पुस्तक संस्कृति बन पाएगी ।
सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है । क्या पूरा हिंदी समाज इसके लिए जिम्मेदार है या फिर प्रकाशकों को पाठकों की फिक्र ही ही नहीं है । दरअसल मुझे लगता है कि इसके लिए प्रकाशकों के साथ- साथ वामपंथी विचारधारा के लेखकों और प्रकाशकों पर उनका प्रभाव जिम्मेदार है । ना तो लेखक और ना ही प्रकाशक किताबों को प्रोडक्ट की तरह समझकर व्यवहार करते हैं । प्रोडक्ट नाम सुनते ही वामपंथी लेखक ऐसे भड़कते हैं जैसे लगता है कि किसी सांढ को लाल कपड़ा दिखा दिया गया हो । प्रोडक्ट शब्द से उनको बाजारवाद और पूंजीवाद की बू आने लगती है और वो इसके खिलाफ खड़े हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि अगर पुस्तकों को प्रोडक्ट की श्रेणी में रख दिया जाएगा तो उनका श्रम व्यर्थ चला जाएगा, उनकी मेहनत पर पूंजीवाद और बाजारवाद पानी फेर देगा । लेकिन प्रोडक्ट वही तो होता है जिसपर मेहनत की जाती है, जिसके उत्पादन पर पैसा खर्च किया जाता है और उससे कुछ लाभ की अपेक्षा की जाए । लेखक भी कई महीनों तक किसी कृति पर मेहनत करते हैं और फिर प्रकाशक उसे किताब की शक्ल देने में उसपर पैसे खर्च करता है और लाभ की अपेक्षा लेखक और प्रकाशक दोनों को होती है। तो मानव श्रम, पैसा और लाभ की आंकाक्षा तीनों चीजें हैं तो फिर प्रोडक्ट मानने में हर्ज क्या है । अगर प्रोडक्ट को बाजार नहीं मिलेगा तो ना केवल मानव श्रम व्यर्थ जाएगा बल्कि जिस लक्ष्य और उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी खास विषय पर लिखा गया है वो जाया चला जाएगा । लेखकों की रचनाओं से ये अपेक्षा होती है कि वो समाज में बदलाव लाएगी लेकिन अगर रचनाएं टार्गेट ग्रुप तक पहुंच ही नहीं पाएंगी तो ना तो समाज में बदलाव आ पाएगा और ना ही किसी विचार का प्रसार हो पाएगा ।
दूसी बात ये कि अगर हम पुस्तकों को एक उत्पाद मानने लगेंगे तो प्रकाशकों के साथ साथ लेखकों का भी भला होगा । अभी हालात ये है कि रॉयल्टी को लेकर हर लेखक के मन में मलाल होता है । हिंदी के लेखकों के इस मलाल से ये तो साबित हो ही जाता है कि उनको अपनी किताब से लाभ की अपेक्षा है । आपने श्रम किया, आपको लाभ की आकांक्षा है और प्रकाशक का पैसा लगा तो फिर किताब को उत्पाद मानने में दिक्कत क्या है ।
दूसरी अहम बात है कि प्रकाशकों की रुचि भी सरकारी थोक खरीद में ज्यादा होती है और पाठकों तक पहुंचाने में होनेवाले मेहनत और खर्चे से वह बचना चाहता है । प्रकाशकों के लिए प्रकाशन व्यवसाय किसी भी दूसरे अन्य कारोबार की तरह ही है जहां उसका उद्देश्य कम खर्चे में ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना है । और अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वो प्रयास भी करता रहता है, करना भी चाहिए । प्रकाशकों को लगता है कि सरकारी खरीद में अफसरों को रिश्वत देकर अगरी अपनी किताबें बेच दी तो बल्ले –बल्ले । हर्रे लगे ना फिटकरी रंग चोखा होए । कई प्रकाशक मेरे मित्र हैं, उनसे जब भी बात होती है तो उनकी चिंता सिर्फ सरकारी थोक खरीद को लेकर रहती है । फुटकर बिक्री में उनकी रुचि बेहद कम होती है , जब भी उनसे बात करो तो पाठकों की कमी का रोना रोकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं । लेकिन ये बात बार-बार उठती रही है और हर बार गलत भी साबित होती रही है कि हिंदी में पाछक नहीं हैं । आज हिंदी का विसाल पाठकों का बड़ा बाजार है जिसपर कब्जे की होड़ दिखाई दे रही है । लेकिन हिंदी के प्रकाशक इसको या तो समझ नहीं पा रहे हैं या फिर जानबूझकर समझना नहीं चाहते ।
तीसरी अहम बात है कि लेखक भी प्रकाशक पर ये दबाव बना पाने की स्थिति में नहीं हैं कि उनके किताबों के प्रचार प्रसार के लिए काम किया जाए । ये किसी व्यक्तिगत प्रयास से संभव नहीं है । क्योंकि आज हिंदी के लेखक इस हैसियत में नहीं हैं कि वो प्रकाशकों पर दबाव बना सकें । जो दो तीन लेखक इस हैसियत में हैं उनपर प्रकाशक इतने मेहरबान होते हैं कि वो अपने साथी लेखकों के हितों के लिए उठनेवाली आवाज का समर्थन नहीं कर सकते । उल्टे प्रयासपूर्वक मामले को सुलझाने के नाम पर प्रकाशकों की तरफदारी करने लग जाते हैं । लेखक संगठन लगभग मृतप्राय है जिनकी भूमिका कुछ रह नहीं गई है । लेखकों की शोकसभा और एकाध रचाना पाठ आयोजित करने के अलावा संगठन कुछ कर नहीं पाते हैं ।
तो ऐसे में सावल ये उठता है कि हम जैसे पाठकों का क्या होगा, क्या किसी खास किताब को पढ़ने की हमारी लालसा मन में दबी रह जाएगी । या फिर इस समस्या का हल भी सरकार को ही करना पड़ेगा । मुझे तो लगता है कि पुस्तकों की सरकारी थोक खरीद बंद कर देनी चाहिए और प्रकाशकों और लेखकों को पाठकों के रहमोकरम पर छोड़ देना चाहिए तभी प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने की कोशिश करेंगे और हिंदी समाज में पुस्तक संस्कृति बन पाएगी ।
Friday, October 9, 2009
धुंधली छवि का विशेषांक
साहित्य संस्कृति और कला का समग्र मासिक होने का दावा करनेवाली मासिक पत्रिका कथादेश ने अगस्त में मीडिया पर केंद्रित भारी भरकम विशेषांक निकाला । इस अंक का संपादन पूर्व पत्रकार और अब शिक्षक अनिल चमड़िया ने किया है । अनिल चमड़िया पिछले कई सालों से कथादेश में इलेक्ट्रानिक मीडिया पर स्तंभ लिखते रहे हैं और यदा कदा उसके संपादकों के नाम खुला पत्र लिककर इस माध्यम को लेकर अपनी चिंता प्रकट करते रहे हैं । कथादेश के मीडिया विशेषांक में भी अनिल ने मीडिया के पतन पर अपनी गहरी चिंता जताई है । मीडिया के अधोपतन पर अतिथि संपादक इतने विचलित हो गए कि आखिरकार उनकी भी चिंता की सुई टीआरपी पर आकर टिक गई । टीवी पत्रकारों पर लिखते हुए चमड़िया ने लिखा- “पूंजीवाद ने उनके बीच कई हिस्से तैयार कर दिए. एक हिस्सा वह है जो चांदी काट रहा है . मीडिया मालिकों की तरह राजसभा (संभवत : वो राज्यसभा लिखना चाह रहे हों ) में रंगरेलियां मना रहा है । इनकी रंगरेलियों का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि ये चंद वर्षों में सैकड़ों करोड़ों डालर के मालिक बन गए । चैनल चला रहे हैं और उसी तरह से चला रहे हैं जैसे रुपर्ट मर्डोक और दूसरे साम्राज्यवाद समर्थक चैनल चलते हैं । जो चैनल मालिक नहीं बन पाया वह जिस तरह चैनल चल रहे हैं उनके उसी तरह चलने की बेशर्मी से वकालत करता है । टीआरपी वो कह अपने कुकर्मों का सुरक्षा कवच बनाता है और ये नहीं बताता है कि टीआरपी क्या है । टीआरपी खास तरह की विचारों को थोपने और अपनी मौलिकता को भुला देने वाला सांगठिक हथियार है । यह सांस्कृतिक वर्चस्व को बढावा देने के उद्देश्य से तैयार हुआ है । इसमें पूंजी किसी संस्थान की नहीं बल्कि पूंजीवादी विचारधारा की लगी हुई है । इसके वर्चस्ववादी सांस्कृतिक हथियार होने का प्रमाण तब मिलेगा जब टीआरपी के ढांचे के रहस्य को खाला जाए ।“
यहां अनिल चमडिया ने टीआरपी की बेहद मनोरंजक और मौलिक व्याख्या की है - टीआरपी खास तरह की विचारों को थोपने और अपनी मौलिकता को भुला देने वाला सांगठिक हथियार है- लेकिन अपने इस फतवा के समर्थन में उन्होंने कोई उदाहरण या तर्क प्रस्तुत नहीं किया है । अपनी इस प्रस्थापना को पूंजीवाद, बाजारवाद. संकट का समय, संगठन जैसे शब्दों की चाशनी में डुबोकर पाठकों पर अपनी विद्वता का परचम लहरा दिया है । टीआरपी को बगैर जाने समझे उसे गाली देने का फैशन बन गया है और अनिल उस फैशन के शिकार हो गए हैं । ऐसा नहीं है कि अनिल चमड़िया ने सिर्फ न्यूज चैनलों की आलोचना की है । इन्होंने समानभाव से अखबारों के गिरते स्तर पर भी अपनी चिंता जताते हुए पत्रकारों को कोसा है । अनिल इस बात का खतरा भी उठाते हुए चलते हैं कि उनके आलोचक उनपर एक ऐसे संत का ठप्पा लगा सकते हैं कि जो गांधी आश्रम में बैठकर पत्रकारिता में व्याप्त भ्रष्टाचार और गंदगी को अपनी लेखनी से साफ करना चाहता है । लेकिन मैं उनके आलोचकों को ये कहना चाहता हूं कि संत तो संत होता है जो सिर्फ प्रेरित कर सकता है पहल नहीं ।
अनिल चूंकि इस अंक के संपादक हैं इसलिए रचनाओं पर भी उनके विचारों की छाप साफ दिखाई देती है । कई लेखक टीआरपी को लेकर रंडी रोना करते हुए दिखाई दे रहे हैं । सिर्फ उमेश चतुर्वेदी ने अपने लेख में टीआरपी को समझने और समझाने की कोशिश की है । उमेश ने टीआरपी की तथाकथित गुत्थी को खोला है । श्रमपूर्वक लिखे गए इस लेख से टीआरपी की कई भ्रांतियां दूर होती है ।
इस अंक में लेखों की भरमार है । यहां वहां जहां तहां से लेखों को इकट्ठा कर, अनुवाद कर प्रकाशित कर दिया गया है । वरिष्ठ टीवी पत्रकार अजीत अंजुम का पिछले साल पत्रकारिता संस्थान में दिए गए एक भाषण को छाप दिया गया है । भाषण देने की शैली और लिखने की शैली बिल्कुल अलग होती है । अजीत अंजुम के भाषण को लगता है, जस का तस छाप दिया गया है । यहीं पर संपादक का दायित्व बनता है कि वो भाषण को लेख के रूप में संपादित कर दे । लेकिन ये नहीं हुआ और साल भर पुराना भाषण छपा । जब अजीत अंजुम की बात चली तो बरबस जनवरी 2007 में उनके संपादन में हंस के मीडिया विशेषांक की याद आ गई । हंस का वह अंक भी लगभग ढाई सौ पृष्ठों का था । हंस का वह अंक संपादन कौशल का बेहतरीन नमूना था । चिंताएं वहां भी थी लेकिन उन चिंताओं का जबाव भी था । राजदीप सरदेसाई, कमर वहीद नकवी, उदय शंकर के विचार इन चिंताओं से टकरा रहे थे । न्यूज चैनलों को लेकर जो कहानियां छपी थीं वो वहां काम करनेवालों पत्रकारों के दर्द और प्रेम की प्रतिनिधि कहानियां थी । मेरे जानते मीडिया पर हंस का वो अंक अबतक का सबसे अच्छा अंक है जिसका एप्रोच एकदम फोकस्ड है ।
कथादेश के इस अंक में एक गुमनाम लेख छपा है जिसमें स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पर बेहद संगीन इल्जाम लगाए हैं । इस लेख के बारे में संपादक ने कहा है कि – इंटरनेट के जरिए स्टार न्यूज के न्यूजरूम में घूमता एक पत्र हमारे हाथ लगा है । और विद्वान और पत्रकारिता में शुचिता की बात करनेवाले संपादक अनिल चमड़िया ने इंटरनेट पर घूमते एक गुमनाम खत को मीडिया विशेषांक में छापकर मान्यता प्रदान कर दी । लेख के पहले अवश्य एक टिप्पणी संपादक की ओर से है लेकिन ये लेख बेहद घटिया और स्तरहीन है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है । स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पत्रकार के साथ-साथ एक संवेदनशील लेखक भी है । इनके लिखे को पढने के बाद कथादेश में छपे इस लेख को पढ़कर ये लगता है कि कोई व्यक्ति शाजी को बदनाम करने की मंशा से ऐसा कर रहा है और कथादेश जाने अनजाने बदनाम करने की उस मुहिम में उसका साथ देता नजर आ रहा है ।
कुल मिलाकर अगर कथादेश के मीडिया विशेषांक पर समग्रता में विचार करें तो ये बेहद हल्का और उथला है । ढाई सौ पृष्ठों का ये भारी भरकम विशेषांक डी फोकस्ड लगता है जिसमें से कोई साफ तस्वीर सामने नहीं आती है । इस अंक की पहली रचना पंकज श्रीवास्तव की है – मी लॉर्ड ! आप समझ रहे हैं ना । इसमें पंकज ने मुन्नाभाई औरह गांधी की शैली में अपने अनुभवों को बेहद रोचक शैली में पेश किया है । इसे इस अंक की उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है ।
यहां अनिल चमडिया ने टीआरपी की बेहद मनोरंजक और मौलिक व्याख्या की है - टीआरपी खास तरह की विचारों को थोपने और अपनी मौलिकता को भुला देने वाला सांगठिक हथियार है- लेकिन अपने इस फतवा के समर्थन में उन्होंने कोई उदाहरण या तर्क प्रस्तुत नहीं किया है । अपनी इस प्रस्थापना को पूंजीवाद, बाजारवाद. संकट का समय, संगठन जैसे शब्दों की चाशनी में डुबोकर पाठकों पर अपनी विद्वता का परचम लहरा दिया है । टीआरपी को बगैर जाने समझे उसे गाली देने का फैशन बन गया है और अनिल उस फैशन के शिकार हो गए हैं । ऐसा नहीं है कि अनिल चमड़िया ने सिर्फ न्यूज चैनलों की आलोचना की है । इन्होंने समानभाव से अखबारों के गिरते स्तर पर भी अपनी चिंता जताते हुए पत्रकारों को कोसा है । अनिल इस बात का खतरा भी उठाते हुए चलते हैं कि उनके आलोचक उनपर एक ऐसे संत का ठप्पा लगा सकते हैं कि जो गांधी आश्रम में बैठकर पत्रकारिता में व्याप्त भ्रष्टाचार और गंदगी को अपनी लेखनी से साफ करना चाहता है । लेकिन मैं उनके आलोचकों को ये कहना चाहता हूं कि संत तो संत होता है जो सिर्फ प्रेरित कर सकता है पहल नहीं ।
अनिल चूंकि इस अंक के संपादक हैं इसलिए रचनाओं पर भी उनके विचारों की छाप साफ दिखाई देती है । कई लेखक टीआरपी को लेकर रंडी रोना करते हुए दिखाई दे रहे हैं । सिर्फ उमेश चतुर्वेदी ने अपने लेख में टीआरपी को समझने और समझाने की कोशिश की है । उमेश ने टीआरपी की तथाकथित गुत्थी को खोला है । श्रमपूर्वक लिखे गए इस लेख से टीआरपी की कई भ्रांतियां दूर होती है ।
इस अंक में लेखों की भरमार है । यहां वहां जहां तहां से लेखों को इकट्ठा कर, अनुवाद कर प्रकाशित कर दिया गया है । वरिष्ठ टीवी पत्रकार अजीत अंजुम का पिछले साल पत्रकारिता संस्थान में दिए गए एक भाषण को छाप दिया गया है । भाषण देने की शैली और लिखने की शैली बिल्कुल अलग होती है । अजीत अंजुम के भाषण को लगता है, जस का तस छाप दिया गया है । यहीं पर संपादक का दायित्व बनता है कि वो भाषण को लेख के रूप में संपादित कर दे । लेकिन ये नहीं हुआ और साल भर पुराना भाषण छपा । जब अजीत अंजुम की बात चली तो बरबस जनवरी 2007 में उनके संपादन में हंस के मीडिया विशेषांक की याद आ गई । हंस का वह अंक भी लगभग ढाई सौ पृष्ठों का था । हंस का वह अंक संपादन कौशल का बेहतरीन नमूना था । चिंताएं वहां भी थी लेकिन उन चिंताओं का जबाव भी था । राजदीप सरदेसाई, कमर वहीद नकवी, उदय शंकर के विचार इन चिंताओं से टकरा रहे थे । न्यूज चैनलों को लेकर जो कहानियां छपी थीं वो वहां काम करनेवालों पत्रकारों के दर्द और प्रेम की प्रतिनिधि कहानियां थी । मेरे जानते मीडिया पर हंस का वो अंक अबतक का सबसे अच्छा अंक है जिसका एप्रोच एकदम फोकस्ड है ।
कथादेश के इस अंक में एक गुमनाम लेख छपा है जिसमें स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पर बेहद संगीन इल्जाम लगाए हैं । इस लेख के बारे में संपादक ने कहा है कि – इंटरनेट के जरिए स्टार न्यूज के न्यूजरूम में घूमता एक पत्र हमारे हाथ लगा है । और विद्वान और पत्रकारिता में शुचिता की बात करनेवाले संपादक अनिल चमड़िया ने इंटरनेट पर घूमते एक गुमनाम खत को मीडिया विशेषांक में छापकर मान्यता प्रदान कर दी । लेख के पहले अवश्य एक टिप्पणी संपादक की ओर से है लेकिन ये लेख बेहद घटिया और स्तरहीन है जिसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है । स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां पत्रकार के साथ-साथ एक संवेदनशील लेखक भी है । इनके लिखे को पढने के बाद कथादेश में छपे इस लेख को पढ़कर ये लगता है कि कोई व्यक्ति शाजी को बदनाम करने की मंशा से ऐसा कर रहा है और कथादेश जाने अनजाने बदनाम करने की उस मुहिम में उसका साथ देता नजर आ रहा है ।
कुल मिलाकर अगर कथादेश के मीडिया विशेषांक पर समग्रता में विचार करें तो ये बेहद हल्का और उथला है । ढाई सौ पृष्ठों का ये भारी भरकम विशेषांक डी फोकस्ड लगता है जिसमें से कोई साफ तस्वीर सामने नहीं आती है । इस अंक की पहली रचना पंकज श्रीवास्तव की है – मी लॉर्ड ! आप समझ रहे हैं ना । इसमें पंकज ने मुन्नाभाई औरह गांधी की शैली में अपने अनुभवों को बेहद रोचक शैली में पेश किया है । इसे इस अंक की उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है ।
Saturday, October 3, 2009
हंस के पन्नों पर जिन का चमत्कार
जनचेतना का प्रगतिशील मासिक हंस ने जब युवा रचनाशीलता पर पर अंक केंद्रित करने का एलान किया था तो पाठकों के साथ-साथ लेखकों में इस अंक को लेकर खासी उत्सुकता थी । हंस संपादक राजेन्द्र यादव ने युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अंक के संपादन की जिम्मेदारी युवा दलित लेखक और हंस खेमे के खास सिपहसालार अजय नावरिया को सौंपा । संपाद सौंपने के निर्णय के बारे में राजेन्द्र यादव ने अपने संपादकीय में लिखा- बात तब सूझी जब समय नहीं रह गया था. सहसा अजय नावरिया में अलादीन का वह चिराग दिखाई दिया, जिसे घिसकर जिन पैदा किया जा सकात है । जिन पैदा हुआ और उसके कुछ पूछने से पहले उसे चमत्कार करने का काम सौंप दिया गया - महीने भर में हंस का युवा रचनाशीलता पर केंद्रित अंक तैयार हो जाना चाहिए । य़ादव जी को अपने जिन पर भरोसा था कि वो चमत्कार कर देगा । अतिथि संपादक के रूप में प्रकट हुए यादव जी के जिन ने चमत्का किया भी और महीने भर में ही इतनी सामग्री जमा कर दी कि वो एक अंक में नहीं समा पाया और उसे दो अंकों में समेटना पड़ा । सामग्री इकट्ठा करना और स्तरीय सामग्री जुटाना दो अलग अलग बातें हैं जिसपर हम आगे विचार करेंगे ।
राजेन्द्र यादव को भले ही लगता हो कि अजय नावरिया ने अपने संपादकीय में सौंदर्यशास्त्र को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की है लेकिन सिर्फ चैबर्स डिक्शनरी में से एसथेटिक्स का मतलब ढूंढ निकालना ही सौंदर्यशास्त्र को नए सिरे से परिभाषित करना नहीं है । इसके अलावा सौंदर्य़शाश्त्रपर अजय ने अपने संपादकीय में कोई नई बात नहीं की है । कहीं संस्कृत के श्लोकों और कहीं मार्क्स को आधार बनाकर सौंदर्यशास्त्र पर टिप्पणी करते चलते हैं । अंतत: वो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि - मानव सभ्यता का विकास जरूरत के टुच्चे सिद्धांत के चलते नहीं बल्कि सौंदर्यबोधात्मक चेतना के कारण हुआ है । राजेन्द्र यादव को यह निष्कर्ष नया लग सकता है लेकिन मैं यह फैसला पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं कि वो इस बात को परखें कि इसमें नया क्या है ।
अब बात दोनों अंकों में प्रकाशित कहानियों की । युवा रचनाशीलता पर केंद्रित इस अंक की पहली कहानी पत्रकार गीताश्री की है । प्रार्थना से बाहर नाम की यह कहानी संभवत: गीताश्री की पहली प्रकाशित कहानी है । गीताश्री की यह कहानी बेहद शानदार और पठनीय है । सचमुच में ये युवा रचनाशीलता की प्रतिनिधि कहानी कही जा सकती है । इसमें युवावस्था के दौर हर पहलू, हर भटकाव, हर विचलन पर विचार किया गया है । जब किसी छोटे शहर की लड़की राजधानी पहुंचती है तो वहां की चमक दमक और तेज रफ्तार जिंदगी उसे अपने आगोश में लेने को बेचैन होती है । इस बेचैनी में जब लड़की की महात्वाकांक्षा शामिल होती है तो कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी कल्पना उसने अपने शहर से चलते वक्त तक नहीं की थी । इस कहानी में गीताश्री ने युवाओं के इस मानसिक कॉकटेल को बेहद शिद्दत से उभारा है । लेकिन एक जगह कहानीकार से चूक हो गई है वो ये कि उसने एक उपन्यास की बेहद शानदार थीम को सस्ते में निपटा दिया । धैर्य और श्रमपूर्वक अगर इस विषय पर उपन्यास लिखा जाए और छोटे शहर की लड़कियों के संघर्ष को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाए तो एक बेहतर कृति सामने आ सकती है । गीताश्री की भाषा में रवानगी है, अनुभव भी है बस जरूरत है धैर्य की । इसके अलावा अश्विनी पंकज की कहानी पेनाल्टी कॉर्नर भी उल्लेखनीय है ।
पहले अंक में यतीन्द्र मिश्र की कविता फैज को पढ़ते हुए में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सियात पर तल्ख टिप्पणी है । कवि जब कहता है - आज भी कि फैज होते/जितने कि वो हैं अभी भी/ अपनी नज्मों की तरक्कीपसंद आवाजाही में/उम्मीद की तरह सुलगे हुए । यतीन्द्र मिश्र ने कम उम्र में ही कविता की प्रौढता को हासिल कर लिया है । इसके अलावा आकांक्षा पारे की दो छोटी कविताएं भी उल्लेखनीय हैं । आठ कहानियों और कुछ कविताओं के अलावा इस अंक में लेखों की भरमार है । अपने नजरिए में नामवर सिंह और मैनेजर पांडे ने ई भी नई बात नहीं कही है, क्योंकि कोई नई बात पूछी ही नहीं गई है । घिसे पिटे प्रश्नों के रटे-रटाए जबाव । इस अंक में अल्पना मिश्र की कहानी पुष्पक विमान अच्छी है ।
नयी नजर का नया नजरिए के दूसरे अंक में राजेन्द्र यादव का संपादकीय बेहद सुलझा हुआ और आक्रामक भी है । आमतौर पर हंस का संपादकीय बौद्धिकता के के बोझ तले दबा होता है, लेकिन इस बार राजेन्द्र यादव के हमलावर तेवर ने बौद्धिकता को परे रख दिया है । नामवर सिंह पर हमला करते हुए यादव जी लिखते हैं - अपने युवाकाल में यही नामवर थे जो अपनी मेधा और तेजस्विता से सुननेवालों को झकझोर डालते थे । प्लेइंग टु द गैलरी की मानसिकता ने उन्हें कहां का ला छोड़ा है ? इधर उन्होंने यह सोचना भी छोड़ दिया है कि विमोचन वो अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं का कर रहे हैं या वरवर राव की ... सत्ता वंदना के साथ थोड़ी बहुत क्रांति भी होती रहे तो क्या मुज़ायका । संकेत हाल ही में नामवर द्वारा भारतीय जनता पार्टी के नेता जसवंत सिंह की किताब के विमोचन करने की ओर है ।
कहानियों के अलावा दूसेर अंक में भी एक परिचर्चा है जिसमें लेखक, पत्रकार, प्रकाशक आदि के विचारों को प्रमुखता दी गई है । नयी नजर का नया नजरिया होने का दावा करनेवाला हंस का दोनों अंक बेहद सामान्य और साधारण अंक है । इसमें युवा रचनाशीलता की झलकभर दिखाई देती है । राजेन्द्र यादव के जिन ने चमत्कार तो किया लेकिन ये चमत्कार रचनाओं को जुटाने भर तक और परिचर्चाओं को आयोजित करने तक ही सीमित रह गया । समय की कमी और महीने भर में अंक निकालने की हड़बड़ी भी साफतौर पर दिखती है । किन इतने कम समय में इतनी ढेर सारी रचनाएं जुटाने के लिए अजय की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी ।
राजेन्द्र यादव को भले ही लगता हो कि अजय नावरिया ने अपने संपादकीय में सौंदर्यशास्त्र को नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की है लेकिन सिर्फ चैबर्स डिक्शनरी में से एसथेटिक्स का मतलब ढूंढ निकालना ही सौंदर्यशास्त्र को नए सिरे से परिभाषित करना नहीं है । इसके अलावा सौंदर्य़शाश्त्रपर अजय ने अपने संपादकीय में कोई नई बात नहीं की है । कहीं संस्कृत के श्लोकों और कहीं मार्क्स को आधार बनाकर सौंदर्यशास्त्र पर टिप्पणी करते चलते हैं । अंतत: वो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि - मानव सभ्यता का विकास जरूरत के टुच्चे सिद्धांत के चलते नहीं बल्कि सौंदर्यबोधात्मक चेतना के कारण हुआ है । राजेन्द्र यादव को यह निष्कर्ष नया लग सकता है लेकिन मैं यह फैसला पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूं कि वो इस बात को परखें कि इसमें नया क्या है ।
अब बात दोनों अंकों में प्रकाशित कहानियों की । युवा रचनाशीलता पर केंद्रित इस अंक की पहली कहानी पत्रकार गीताश्री की है । प्रार्थना से बाहर नाम की यह कहानी संभवत: गीताश्री की पहली प्रकाशित कहानी है । गीताश्री की यह कहानी बेहद शानदार और पठनीय है । सचमुच में ये युवा रचनाशीलता की प्रतिनिधि कहानी कही जा सकती है । इसमें युवावस्था के दौर हर पहलू, हर भटकाव, हर विचलन पर विचार किया गया है । जब किसी छोटे शहर की लड़की राजधानी पहुंचती है तो वहां की चमक दमक और तेज रफ्तार जिंदगी उसे अपने आगोश में लेने को बेचैन होती है । इस बेचैनी में जब लड़की की महात्वाकांक्षा शामिल होती है तो कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिसकी कल्पना उसने अपने शहर से चलते वक्त तक नहीं की थी । इस कहानी में गीताश्री ने युवाओं के इस मानसिक कॉकटेल को बेहद शिद्दत से उभारा है । लेकिन एक जगह कहानीकार से चूक हो गई है वो ये कि उसने एक उपन्यास की बेहद शानदार थीम को सस्ते में निपटा दिया । धैर्य और श्रमपूर्वक अगर इस विषय पर उपन्यास लिखा जाए और छोटे शहर की लड़कियों के संघर्ष को सूक्ष्मता से विश्लेषित किया जाए तो एक बेहतर कृति सामने आ सकती है । गीताश्री की भाषा में रवानगी है, अनुभव भी है बस जरूरत है धैर्य की । इसके अलावा अश्विनी पंकज की कहानी पेनाल्टी कॉर्नर भी उल्लेखनीय है ।
पहले अंक में यतीन्द्र मिश्र की कविता फैज को पढ़ते हुए में हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सियात पर तल्ख टिप्पणी है । कवि जब कहता है - आज भी कि फैज होते/जितने कि वो हैं अभी भी/ अपनी नज्मों की तरक्कीपसंद आवाजाही में/उम्मीद की तरह सुलगे हुए । यतीन्द्र मिश्र ने कम उम्र में ही कविता की प्रौढता को हासिल कर लिया है । इसके अलावा आकांक्षा पारे की दो छोटी कविताएं भी उल्लेखनीय हैं । आठ कहानियों और कुछ कविताओं के अलावा इस अंक में लेखों की भरमार है । अपने नजरिए में नामवर सिंह और मैनेजर पांडे ने ई भी नई बात नहीं कही है, क्योंकि कोई नई बात पूछी ही नहीं गई है । घिसे पिटे प्रश्नों के रटे-रटाए जबाव । इस अंक में अल्पना मिश्र की कहानी पुष्पक विमान अच्छी है ।
नयी नजर का नया नजरिए के दूसरे अंक में राजेन्द्र यादव का संपादकीय बेहद सुलझा हुआ और आक्रामक भी है । आमतौर पर हंस का संपादकीय बौद्धिकता के के बोझ तले दबा होता है, लेकिन इस बार राजेन्द्र यादव के हमलावर तेवर ने बौद्धिकता को परे रख दिया है । नामवर सिंह पर हमला करते हुए यादव जी लिखते हैं - अपने युवाकाल में यही नामवर थे जो अपनी मेधा और तेजस्विता से सुननेवालों को झकझोर डालते थे । प्लेइंग टु द गैलरी की मानसिकता ने उन्हें कहां का ला छोड़ा है ? इधर उन्होंने यह सोचना भी छोड़ दिया है कि विमोचन वो अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं का कर रहे हैं या वरवर राव की ... सत्ता वंदना के साथ थोड़ी बहुत क्रांति भी होती रहे तो क्या मुज़ायका । संकेत हाल ही में नामवर द्वारा भारतीय जनता पार्टी के नेता जसवंत सिंह की किताब के विमोचन करने की ओर है ।
कहानियों के अलावा दूसेर अंक में भी एक परिचर्चा है जिसमें लेखक, पत्रकार, प्रकाशक आदि के विचारों को प्रमुखता दी गई है । नयी नजर का नया नजरिया होने का दावा करनेवाला हंस का दोनों अंक बेहद सामान्य और साधारण अंक है । इसमें युवा रचनाशीलता की झलकभर दिखाई देती है । राजेन्द्र यादव के जिन ने चमत्कार तो किया लेकिन ये चमत्कार रचनाओं को जुटाने भर तक और परिचर्चाओं को आयोजित करने तक ही सीमित रह गया । समय की कमी और महीने भर में अंक निकालने की हड़बड़ी भी साफतौर पर दिखती है । किन इतने कम समय में इतनी ढेर सारी रचनाएं जुटाने के लिए अजय की तारीफ तो करनी ही पड़ेगी ।
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