Translate

Friday, December 4, 2009

होश में आओ हिंदीवालो

महाराष्ट्र विधानसभा में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों की गुंडागर्दी और हिंदी के नाम पर थप्पड़ कांड के बाद हिंदी को लेकर अच्छी खासी बहस चल पड़ी है । हिंदी के पक्ष और विपक्ष के समर्थकों के बीच तलवारें खिंच गई हैं । लेकिन अगर हम ठंढे दिमाग से विचार करें को हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे हिंदी के लोग ही जिम्मेदार हैं । हिंदी के लोगों का दिल बेहद छोटा है और वो अपनी जरा भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं । कुछ दिनों पहले मैंने एक लेखक के उपन्यास पर लिखा और तर्कों के आधार पर यह साबित किया कि उनका उपन्यास पांच छह साल पहले आए एक हिट फिल्म की तर्ज पर लिखा गया है और पाठकों को उसको सीरियसली लेने की जरूरत नहीं है। मेरा वह लेख एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित हुआ । समीक्षा प्रकाशित होने के पहले यह अफसर लेखक मुझे गाहे-बगाहे फोन कर लेते थे और अपनी रचनाओं पर लंबी चर्चा भी करते थे । लेकिन मेरी समीक्षा छपने के बाद उनका फोन आना बंद हो गया और वो मुझे जानी दुश्मन समझने लगे और अपने मित्रों के बीच मेरी क्रडिबिलिटी पर ही सवाल खड़े करने लगे । इस बीच कई ख्यातिप्राप्त समीक्षकों ने उस उपन्यास की जमकर तारीफ कर दी । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बाद में वो मेरी समझ पर सार्वजनिक रूप से उलजलूल बोलने लगे । लेकिन उनकी इन बातों से मुझे जरा भी दुख नहीं हुआ क्योंकि जब आप लिखना शुरू करते हैं तो इस तरह के खतरे के लिए खुद को तैयार रखते हैं । और हर लेखक का सोचने समझने का नजरिया अलग-अलग होता है । अब एक दूसरा उदाहरण देता हूं - अंगेजी के एक युवा उपन्यासकार ने फिल्मी दुनिया के ग्लैमर के स्याह पक्ष को सामने रखते हुए एक उपन्यास लिखा । उस उपन्यास का प्लॉट दिल्ली के जेसिका लाल हत्याकांड से मिलता जुलता था । मैंने उसपर लिखते हुए इन उपन्यास की कई खामियों की ओर इशारा किया, और तर्कों के आधार पर उसे एक कमजोर कृति करार दे दिया । लेकिन अचानक एक दिन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ जब उक्त लेखक ने फेसबुक पर मुझे ढूंढकर पहले मुझे अपना मित्र बनाया फिर मेरा नंबर लेकर मुझसे बात की । और अब हमारी नियमित बात होती है और वो अपने नए लेखन पर हमेशा मेरी राय चाहते हैं । मेरे लिखे पर अपनी बेबाक राय देते भी हैं ।
ये दो उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि इससे हिंदी और अंग्रेजी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सके । हिंदी के कमोबेश कई लेखकों की यही मनोदशा है । जब तक आप उनके लेखन की प्रशंसा करते रहें. उनकी कृतियों को महान कारर देते रहें और जब भी जहां भी मौका मिले उसकी प्रशंसा करें तबतक वो आपको सर आंखों पर बिठाए रखेंगे लेकिन ज्योंही आपने उनके लेखन पर उंगुली उठाई तो आप दुश्मन हो जाएंगे, आपकी समझ सावलों के घेरे में हो जाएगी । लेकिन अंग्रेजी में हालात इससे उलट हालात है । अंग्रेजी में लोग अपनी आलोचना को बेहद स्वस्थ और गंभीर तरीके से लेते हैं और समीक्षक ,आलोचक को कभी दुश्मन नहीं समझते हैं । अंग्रेजी के लोग कबीर की - नंदक नियरे राखिए को आत्मसात कर चुके हैं जबकि हिंदी के लोग ही अबतक कबीर को ना तो समझ पाए हैं और ना ही अपना सके हैं ।
हुंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के बीच हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे एक वजह इसका राजभाषा होना भी है । सरकारी बाबुओं और अफसरों की सरकारी भाषा हिंदी इतनी कठिन और दुरूह होती है कि अगर कोई सरकारी ऑर्डर आपके हाथ लग जाए को उसे समझने के लिए आपको उसका अंग्रेजी में अनुवाद करवाना होगा । जरूरत इस बात की है कि हिंदी को राजभाषा के चंगुल से मुक्त कर जनभाषा बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए । जनभाषा के लिए जरूरी है कि इसे लोगों से जोडा जाए और सरकारी चंगुल से मुक्त किया जाए । लेकिन हिंदी के शुद्धतावादियों को इसपर आपत्ति होगी । उन्हें लगने लगेगा कि यह तो हिंदी के खिलाफ एक साजिश है और इससे भाषा का चरित्र और उसका स्वरूप बदल जाएगा । हिंदी में अंग्रेजी और अन्य बारतीय भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल भी हिंदी के तथाकथित ठेकेदारों को नागवार गुजरती है । उन्हें लगता है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो जाएगी, वो हिंदी को इतना कमजोर समझते हैं कि उसे अपने पंखों के नीचे उसी तरह रखना चाहते हैं जैसे कि कोई पक्षी अपने अंडे को सेती है । लेकिन हिंदी के इन तथाकथित ठेकेदारों और शुद्धतावादियों को यह समझना होगा कि किसी अन्य भाषा का अगर हिंदी में इस्तेमाल होता है तो इससे भाषा भ्रष्ट नहीं होती बल्कि समृद्ध होती है । उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि हिंदी कोई इतनी कमजोर भाषा नहीं है कि अगर दूसरी भाषा के चंद लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल होगा तो हिंदी का नाश नहीं हो जाएगा । यहां भी हमें अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए । अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के नए संस्करण में हर साल विश्व की कई भाषाओं के लोकप्रिय शब्दों को शामिल किया जाता है, और गर्व से अंग्रेजीवाले इसका ऐलान भी करते हैं । आज अंग्रेजीवाले धड़ल्ले से बंदोबस्त और जंगल शब्द का इसेतामल करते हैं और कहीं किसी तरफ से कोई विरोध की आवाज नहीं उठती । यही वजह है कि अंगेजी की विश्व भाषा के रूप में स्वीकार्यता है और हिंदी जो तकरीबन 50 करोड़ लोगों की भाषा है उसका विरोध उस देश में होता है, जहां की वो मूल भाषा है ।
इस मसले पर हम हिंदीवालों को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ज्यादा उदार होना पड़ेगा ।
हमे यह भी सोचना पड़ेगा कि दक्षिण भारत के राज्यों में जहां हिंदी का विरोध सबसे ज्यादा है और कई आंदोलन भी हो चुके हैं । लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन राज्यों में भी हिंदी फिल्मों का बेहद बड़ा बाजार है । क्या वजह है कि लोग हिंदी फिल्मों पर तो अपनी जान न्योछावर कर देते हैं लेकिन जब भाषा का सवाल आता है तो वो जान लेने और देने पर उतारू हो जाते हैं । हिंदी को व्यापक स्वीकार्यता दिलाने के लिए जरूरी है कि हिंदी को खुले दिल से अन्य भारतीय भाषाओं और अंगेजी के उन शब्दों को अपनाना होगा जो कि लोगों की जुबान पर चढे हुए हैं । इसका लाभ यह होगा कि दूसरी भाषा के लोगों को यह भरोसा होगा कि हिंदी भी उनकी अपनी ही भाषा है और उनके शब्द इस भाषा के लिए अछूत नहीं है । इसी भरोसे से जो विश्वास पैदा होगा वो हिंदी के व्यापक हित में होगा ।

No comments: