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Sunday, December 20, 2009

दर्द को भुनाने की कोशिश

इंदिरा गांधी की हत्या के पच्चीस साल पूरे हुए । साथ ही दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में सिखों के कत्लेआम के भी पच्चीस साल पूरे हुए । 31 अक्तूबर 1984 की सुबह दिल्ली में सफदरजंग रोड के पीएम निवास पर इंदिरा गांधी की सुरक्षा में लगे दो लोगों ने इंदिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया था । लेकिन उसके बाद दिल्ली में सिखों को योजनाबद्ध तरीके से कत्ल किया गया । पच्चीस सालों से कई कमीशन और आयोग ने इसकी जांच की लेकिन अबतक इंसाफ हुआ हो ऐसा लगता नहीं है । सिखों के नरसंहार के पच्चीस साल पूरे होने के मौके पर पत्रकार जरनैल सिंह की किताब- कब कटेगी चौरासी , सिख कत्लआम का सच प्रकाशित हुई है । पेंग्विन प्रकाशन से आई ये किताब एक साथ तीन भाषाओं में छपी है, अंग्रेजी, हिंदी के अलावा इसका प्रकाशन पंजाबी में भी हुआ है । जरनैल सिंह वही पत्रकार हैं जिन्होंने इस वर्ष हुए आम चुनाव के पहले देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंका था । बाद में जरनैल ने अपने इस कृत्य पर अफसोस तो नहीं जताया था लेकिन उन्होंने ये जरूर कहा था कि उसे इस कृत्य पर गर्व नहीं है ।

1984 के सिख कत्लेआम के पीडितों को समर्पित जरनैल की इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखी है । खुशवंत सिंह ने लिखा है कि- कब कटेगी चौरासी ...एक चौंका देनेवाली किताब है, जिसे पढ़ने के बाद हर भारतीय को शर्मसार हो जाना चाहिए । यह दस्तावेज है दिल्ली और उत्तरी भारत के कई भागों में सिखों पर हुए नृशंस कत्लेआम का, जो श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद हुआ । खुशवंत सिंह ने अपनी छोटी सी प्रस्तावना में इस किताब को उन लोगों के लिए एक बड़ा अभियोग करार दिया है जिन्होंने इस कत्लेआम की साजिश रची और अपने कारिंदों के मार्फत इसे अंजाम दिया ।
इस किताब की भूमिका में लेखक ने अपने पत्रकार बनने की कथा विस्तार से लिखी है । जब जरनैल पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला के लिए इंटरव्यू देने पहुंचे दो यू एन आई के पत्रकार बी बी नागपाल ने उनसे पंजाब में उग्रवाद के बारे में सवाल पूछे । जरनैल के जबाव से नागपाल संतुष्ट हुए और उसे दाखिला मिल गया लेकिन जरनैल के मन में ये सावल मुंह बाए खड़ा था कि क्या किसी दूसरे प्रत्याशी से भी यह सवाल पूछा गया होगा । जरनैल के मन में ये सवाल उठना जायज है लेकिन सवाल तो इस किताब की खुशवंत सिंह से भूमिका लिखवाने पर मेरे मन में भी उठ रहे हैं । क्या जरनैल को खुशवंत सिंह से इतर कोई व्यक्ति नजर नहीं आया । यह एक मानसिकता है जिसका कोई इलाज नहीं है । हम हर मुस्लिम सहयोगी को भाई लगाकर ही संबोधित करते हैं । इसमें सांप्रदायिकता ढूंढना गलत है ।

जरनैल सिंह का कहना है कि ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस वक्त मीडिया ने सही तरीके से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। इस कत्लेआम को जितनी कवरेज मिलनी चाहिए थी उतनी मिली नहीं और पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से सामने नहीं आ पाया । जरनैल ने इस मामले में दूरदर्शन के संदिग्ध रवैये पर भी सवाल खड़ा किया है । जरनैल ने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में जुटा था । पूरे समय इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को टेलिकास्ट किया जा रहा था । अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे। हो सकता है उनकी आपत्ति जायज हो लेकिन उस वक्त जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में आलोक तोमर और अश्विन सरीन जैसे पत्रकारों ने जान की बाजी लगाकर रिपोर्टिंग की थी । फोटोग्राफर संदीप शंकर की दंगाईयों ने जमकर पिटाई की थी । जरनैल को मीडिया पर सवाल करने के पहले उस दौर के रविवार के अंक भी देखने चाहिए । उन दिनों दिल्ली से उदयन शर्मा और उत्तर प्रदेश से संतोष भारतीय की रिपोर्ट ने देश को हिलाकार रख दिया था । चंद लोगों के लिखे पर पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देने से जरनैल की हड़बड़ी दिखाई देती है ।
इस किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों के दर्द का है जिन्हें इस कत्ले आम के 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। बेटे का सामने पिता को, पत्नी के सामने पति को, बहन के सामने भाई को कत्ल कर दिया गया । किस तरह से एक शहर से एक पूरी कौम को खत्म करने की कोशिश की गई । किताब के पहले हिस्से में इस दर्द को जगह मिली है । दूसरे हिस्से में न्याय कर्ता और अन्यायकर्ता की चर्चा की गई है । इस हिस्से में जरनैल ने एच के एल भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर की भूमिका पर लिखा है है साथ ही उस दौर में पूर्नी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके के एसएचओ त्यागी के कारनामों को भी बयान किया है । जरनैल ने मौन साधे रहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और गृहमंत्री नरसिम्हा राव पर भी उंगली उठाई है । लेकिन जरनैल की इस किताब में नया कुछ भी नहीं है । सिर्फ आयोग की फाइलों से केस स्टडीज को निकालकर सामने रखा गया है । दरअसल इस कत्लेआम पर इतनी हृदय विदारक घटनाएं और परिस्थितियां हैं कि पाठक उसे पढ़ते वक्त भाषा और शैली को बिल्कुल ही भूल जाता है । लेकिन अगर चंद पलों के लिए हम एक किताब के तौर पर इसपर विचार करें को जिस तरह से जल्दबाजी में लोगों के दर्द को बयां किया गया है वो यह महसूस कराता है कि इसमें पर्याप्त शोध की जरूरत थी । इस विषय पर ही दो हजार सात के अक्तूबर में रोली बुक्स से वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा और वकील एच एस फुल्का की किताब -व्हेन ए ट्री शुक डेल्ही- आई थी । जो कि इस विषय पर लिखी गई एक बेहतीन किताब है । मनोज मिट्टा की किताब का फलक बहुत बडा़ है और उसमें जो दर्द है, उसमें जो घटनाएं और परिस्थियां बयान की गई हैं वो सचमुच दिल दहला देनी हैं । शाहदरा स्टेशन पर एक नवविवाहिता के पति को मार देनेवाली घटना दो साल पहले पढ़ी थी लेकिन अब भी मेरे जेहन में बरकरार है । मिट्टा और फुल्का की उक्त किताब में ना केवल कत्लेआम के शिकार हुए परिवार के दुखों की दास्तां है बल्कि उसमें न्याय के लिए उनका संघर्ष भी प्रमुखता से सामने रखकर पूरी व्यवस्था पर चोट की गई है । मुझे नहीं मालूम कि जरनैल ने वह किताब देखी थी या वहीं लेकिन इतना जरूर तय है कि जरनैल ने बेहद हड़बड़ी में यह किताब लिखी है और जल्दबाजी पूरी किताब में हर जगह दिखाई देती है । हो सकता है कत्लेआम के पच्चीस साल पूरे होने पर किताब के बाजार में लाने की जल्दबाजी हो या फिर कोई और वजह जिसपर से पर्दा तो सिर्फ लेखक ही उठा सकता है ।

1 comment:

Anonymous said...

It's not fare to call it planned rather it was spontaneous reaction.