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Saturday, July 25, 2009

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश इन दिनों फिर से विवादों में घिरे हैं । विवाद की जड़ में है - पांच जुलाई को गोरखपुर में गोरक्षपीठ के कर्ताधर्ता और बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ के हाथो पहला 'नरेन्द्र स्मृति सम्मान' लेना । जबसे ये खबर छपी है पूरे साहित्य जगत में उदय की जमकर आलोचना शुरू हो गई । उदय प्रकाश सार्वजनिक जीवन में कई दशकों से वामपंथी आदर्शों की दुहाई देते रहे हैं । लेकिन इस सम्मान ग्रहण के बाद उनके चेहरे का लाल रंग धुधंला होकर भगवा हो गया है । दरअसल उदय को नजदीक से जानने वालों का दावा है कि उदय प्रकाश हमेशा से अवसरवादी रहे हैं और जब भी, जहां भी मौका मिला है उन्होंने इसे साबित भी किया है । परिस्थितियों के अनुसार उदय अपनी प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धताएं तय करते हैं और एक रणनीति के तहत उसपर अमल भी करते हैं ।
अगर मेरी स्मृति मेरा साथ दे रही है तो उदय प्रकाश ने अपने कहानी संग्रह- सुनो कारीगर- को लगभग दर्जनभर साहित्यकारों को समर्पित किया था, जिसमें नामवर भी थे और काशीनाथ सिंह भी और नंदकिशोर नवल भी थे और भारत भारद्वाज भी । जाहिर तौर पर ये एक साथ दर्जनभर से ज्यादा साहित्यकारों/आलोचकों को साधने की कोशिश थी । बाद में जब शिवनारायण सिंह संस्कृति मंत्रालय में थे तो उनको भी अपना एक कविता संग्रह समर्पित कर दिया । संयोगवश उसी वक्त उदय को मंत्रालय की फैलोशिप भी मिली । इसके अलावा उदय प्रकाश भारत भवन की पत्रिका पूर्वग्रह से भी जुडे़ रहे हैं, ये वो वक्त था जब अशोक वाजपेयी मध्य प्रदेश में साहित्य और संस्कृति के कर्ताधर्ता हुआ करते थे । लेकिन जब किसी वजह से वो पूर्वग्रह से बाहर हुए तो अशोक वाजपेयी और उनकी मित्रमंडली को 'भारत भवन के अल्सेशियंस' तक कह डाला था । उसके बाद से अशोक और उदय साहित्य के दो अलग-अलग छोर पर रहे । लेकिन वाजपेयी के पिछले जन्मदिन पर उदय ने जिस अंदाज में वाजपेयी को शुभाकमनाएं अर्पित की उसके बाद दोनों के बीच जमी बर्फ पिघली और बताते हैं कि एक मुलाकात के बाद उदय को लखटकिया वैद सम्मान मिला । ये हैं उदय की प्राथमिकता और प्रतिबद्धता ।
बीजेपी सांसद और कट्टर हिंदुत्ववाद के स्वयंभू मसीहा योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मान ग्रहण करने के बाद जब उदय पर चौतरफा हमले शुरू हुए तो अपने बचाव में उन्होंने बेहद लचर तर्कों का सहारा लिया - एक नियोजित तरीके से मुझ पर आक्रमण करके बदनाम करने की घृणित जातिवादी राजनीति की जा रही है.....दरअसल इस हिंदू जातिवादी समाज में विचारधाराओं से लेकर राजनीति और साहित्य का जैसा छद्म और चतुर खेल खेला गया है, उसके हम सब शिकार हैं । मेरे परिवार में यह सच है कि कि कोई भी एक सदस्य ऐसा नहीं है ( इनमें मेरी पत्नी, बच्ची, बहू और पोता तक शामिल हैं और मेरे मित्र तथा पाठक भी ) जो किसी एक धर्म, क्षेत्र, जाति, नस्ल आदि से जुडे़ हों । लेकिन हिंदी साहित्य और ब्लॉगिंग में सक्रिय सवर्ण हिंदू उसी कट्टर वर्णाश्रम -व्यवस्थावदी माइंडसेट से प्रभावित पूर्व आधुनिक सामंती, अनपढ़ और घटिया लोग हैं -जिनके भीतर जैन, बौद्ध, नाथ, सिद्ध, ईसाइयत, दलित, इस्लाम आदि तमाम आस्थाओं और आइडेंटिटीज़ के प्रति घृणा और द्वेष है इसे वे भरसक ऊपर-ऊपर छिपाए रखने की चतुराई करते रहते हैं । मैंने जीवनभर इनका दंश और जहर झेला है और अभी भी झेल रहा हूं ।' अपनी लंबी सफाई के आखिर में धमकाने के अंदाज में सवर्ण लुटेरों के साम्राज्य को ध्वस्त करने का दावा भी करते हैं । उदय पर पहले भी जब-जब उनकी व्यक्तिवादी कहानियों को लेकर उंगली उठी थी तो किसी को मथुरा का पंडा, तो किसी को घनघोर अनपढ़ घोषित किया तो किसी को अफसर होकर साहित्य की दुनिया में अनाधिकार प्रवेश के लिए लताड़ा ।

इसके पहले जब वर्तमान साहित्य के मई दो हजार एक के अंक में उपेन्द्र कुमार की कहानी 'झूठ का मूठ' छपी थी तो अच्छा खास विवाद खड़ा हो गया था । उस वक्त भी सफाई देते हुए उदय प्रकाश ने कहा था कि- दरअसल ऐसा है कि दिल्ली में गृह मंत्री के भ्रष्ट अधिकारियों का एक क्लब है जो नाइट पार्टी का आयोजन करता है । इसमें शराब पी जाती है और अश्लील चर्चा होती है । जो इसमें शामिल नहीं होता है, ये लोग उसपर हमला करते हैं । ये साहित्येतर लोग हैं जो अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध तो करते हैं मगर गली-मोहल्ले के मवालियों के साथ बैठकर शराब पीते हैं ।' तो उदय प्रकाश की जब भी आलोचना होती है तो वो बिफर जाते हैं । रविभूषण ने जब इनकी कहानी पर विदेशी लेखकों की छाया की बात की थी तो मामला कानूनी दांव-पेंच में भी उलझा था ।
लेकिन बीजेपी सांसद के हाथों सम्मानित होकर इस बार उदय बुरी तरह फंसते नजर आ रहे हैं । उदय की सफाई के बाद हिंदी के दो दर्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण साहित्यकारों ने अपने हस्ताक्षर से एक बयान जारी कर उदय की भर्त्सना की । बयान जारी करनेवालों में प्रमुख नाम हैं- ज्ञानरंजन, विद्यासागर नौटियाल, विष्णु खरे, भगवत रावत, मैनेजर पांडे, राजेन्द्र कुमार, इब्बार रब्बी, मदन कश्यप, देवीप्रसाद मिश्र आदि । चौतरफा घिरता देख उदय प्रकाश ने एक बार फिर से अपने ब्लॉग पर एक सफाई लिखी लेकिन ये सफाई कम धमकी ज्यादा है । इसके बाद उदय प्रकाश की ओर से व्लॉग चलानेवाले पत्रकार अविनाश ने मोर्चा संभला और जनसत्ता में 'और अंत में घृणा' के नाम से एक लेख लिखकर उदय की दलीलों को आगे बढा़या । उदय के समर्थन में उतरे अविनाश के तर्क भी उतने ही लचर हैं जितने उनके अंतरराष्ट्रय ख्याति के प्रिय रचनाकार की । तर्क पर गौर फरमाइये- जिन नरेन्द्र जी की स्मृति में उदय प्रकाश को योगी ने सम्मानित किया, वे नरेन्द्र जी उदय प्रकाश के फुफेरे भाई थे । दोनों में तीन दशकों की वैचारिक दूरी थी, जो हर मुलाकात में बहसों की शक्ल लेकर परिवारवालों का जीना दूभर करती रही थी । एक बरस पहले कुंवर नरेन्द्र की मृत्यु के बाद की शोकाकुल स्थियों में उदय प्रकाश उपस्थित नहीं हो सके । लेकिन पहली बरसी पर वो गए । इस बरसी में वे भी मौजूद थे, जो कुंवर साहब की जीवन की छटाओं में बिखरे थे । योगी भी इसलिए आए । लेकिन उस वक्त उदय प्रकाश अपनी मौजूदगी के राजनीतिक अर्थ नहीं निकाल पाए । अबोध बने रहे ।' अब अविनाश को कौन बताए कि उदय प्रकाश को वो जितने अबोध समझ रहे हैं या साबित करना चाह रहे हैं वो उतने अबोध हैं नहीं । मृत्यु के मौके पर ना जाकर बरसी पर जाना और सम्मानित होना भी मंशा पर सवाल तो खड़े करता ही है ।लेकिन अविनाश ने जाने अनजाने एक काम ये कर डाला कि जो विवाद अबतक ब्लॉग तक सीमित था, उसे राष्ट्रीय दैनिक में उजागर कर दिया ।

उदय प्रकाश एक बेहतर कवि हो सकते हैं, कहानियां भी हो सकता है कि उन्होंने अच्छी लिखी हों, लेकिन उनकी कहानियां व्यक्तियों पर केंद्रित होकर लोगों को दुखी करती रही हैं । जब उपेन्द्र कुमार की कहानी 'झूठ का मूठ' छपी थी तो उसपर पटना से प्रकाशित 'प्रभात खबर' में एक लंबी परिचर्चा छपी थी । जिसमें सुधीश पचौरी ने लिखा था- अरसे से हिंदी कथा लेखन में एक न्यूरोटिक लेखक कई लेखकों को अपने मनोविक्षिप्त उपहास का पात्र बनाता आ रहा था । पहले उसने एक महत्वपूर्ण कवि की जीवनगत असफलताओं को अपनी एक कहानी में सार्वजनिक मजाक का विषय बनाया । फिर वामपंथी गीतकार असफल प्रेमकथा का साडिस्टिक उपहास उड़ाने के लिए कहानी लिखी । किसी ने रोका नहीं तो, तो जोश में कई हिंदी अद्यापकों और आलोचकों के निजी जीवन पर कीचड़ उचालनेवाली शैली में कविताएं भी लिख डाली । किसी दीक्षित मनोविक्षिप्त की तरह उसने ये समझा कि उसे सबको शिकार करने का लाइसेंस हासिल हो गया है । उसके शिकारों में से उक्त गीतकार तो आत्महत्या तक कर बैठा । हिंदी के कई पाठक उसकी आत्महत्या के पीछे का कारण इस साडिज्म को भी मानते हैं । यह लेखक दरअसल स्वयं एक 'माचोसाडिस्ट' है जो दूसरों को अपने 'मर्दवादी परपीड़क विक्षेप' में जलील करता और सताता आया है । यह पहली कहानी है जिसने एक दुष्ट शिकारी का सरेआम शिकार किया है । शठ को शठता से ही सबक दिया है ।' संयोग ऐसा कि तब प्रभात खबर के साहित्य पृष्ठ के प्रभारी अविनाश ही थे ।
उदय प्रकाश की राजनीति और जोड़-तोड़ और दंद-फंद को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है । इन सबको देखकर मुक्तिबोध की आत्मा कराहती हुई पूछ रही होगी - पार्टनर ! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

Monday, July 6, 2009

कहां चला राहुल गांधी का जादू ?

अब जबकि लोकसभा चुनावों को शोरगुल खत्म हो चुका है, पखवाड़े भर की माथापच्ची के बाद कांग्रेस मंत्री और मंत्रालय तय करने में कामयाबी हासिल कर चुकी है । मंत्री अपने मंत्रालयों के सौ दिन के एजेंडा घोषित करने में जी जान से जुटे हैं । मीडिया के कई हिस्सों में राहुल गांधी के जादू और करिश्मे का कोलाहल भी थोडा़ कम होने लगा है, तो अब वक्त आ गया है कि दो हजार नौ में हुए लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के जादू और करिश्मे की थ्योरी को कसौटी पर कसा जाए । जीत के बाद जब सोनिया गांधी रायबरेली की जनता को धन्यवाद देने अपने लोकसभा क्षेत्र पहुंची तो उन्होंने लोकसभा चुनाव में पार्टी की जीत का सेहरा राहुल के सर बांधा । कांग्रेस के रणनीतिकारों की तरफ से लगातार इस बात को प्रचारित प्रसारित किया ,करवाया गया कि कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे राहुल गांधी के करिश्मे और उनके व्यक्तित्व के जादू का हाथ है ।
उत्तर प्रदेश में पार्टी को मिली आशातीत सफलता का श्रेय भी राहुल गांधी की रणनीति को दिया गया । मीडिया में ये बात भी आई कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने का फैसला राहुल गांधी का था, जिसकी वजह से पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली और राहुल के इस फैसले ने पार्टी को प्रदेश में पुनर्जीवित कर दिया, आदि आदि । लेकिन अगर हम उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी रणनीति और राहुल गांधी के तथाकथित होमवर्क की गहराई से पड़ताल करें तो राहुल की रणनीति के साथ साथ उनके जादू और करिश्मे का मुलम्मा भी उतर जाता है । सबसे पहले हम उत्तर प्रदेश के दो जिलों रायबरेली और अमेठी की ही बात करें जिन जिलों की लोकसभा सीट से राहुल और उनकी मां कांग्रेस अध्यक्षा चुनाव लड़ती हैं । रायबरेली और सुल्तानपुर दो जिले हैं जिनमें तीन लोकसभा क्षेत्र आते हैं । यह सर्वविदित तथ्य था कि अमेठी से स्वयं राहुल और रायबरेली से सोनिया गांधी चुनाव लड़ेगी । लेकिन इसी जिले की तीसरी लोकसभा क्षेत्र सुल्तानपुर से कौन चुनाव लड़ेगा इसका फैसला अंतिम समय तक नहीं हो पाया था । ये कैसी रणनीति थी या फिर कैसा होमवर्क था जिसमें सूत्रधार अपने ही गृहजिले के उम्मीदावर तय करने में दुविधा का शिकार था । अगर होमवर्क किया गया होता तो ना तो ये दुविधा की स्थिति होती और ना ही मामला आखिरी वक्त तक लटकता । इस मामले में कभी भी ऐसा नहीं लगा कि राहुल या फिर उनके रणनीतिकारों ने उनके अपने ही गृह जिले के लिए कोई होमवर्क किया हो । बिल्कुल आखिरी वक्त तक संजय सिंह ही अपनी उम्मीदवारी को लेकर आशंकित थे और पार्टी में मचे घमासान की वजह से कार्यकर्ताओं में जबदस्त भ्रम की स्थिति थी।
अब एक और नमूना देखते हैं - सूबे की राजधानी लखनऊ की प्रतिष्ठित सीट, जहां से बीजेपी के कद्दावर नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई चुने जाते थे, को लेकर भी कांग्रेस के पास कोई योजना नहीं दिखाई दी । इस सीट पर सबसे पहले समाजवादी पार्टी ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त की उम्मीदवारी का ऐलान कर सबको चौंका दिया । सुप्रीम कोर्ट से इजाजत नहीं मिलने की वजह से संजय दत्त चुनाव नहीं लड़ सके । इसके बाद भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों का भी ऐलान हो गया । लेकिन सूबे में अपनी खोई जमीन की तलाश में लगी कांग्रेस को कोई उम्मीदवार नहीं मिल पा रहा था । सुप्रीम कोर्ट के झटके से सकते में आई समाजवादी पार्टी ने मास्टर स्ट्रोक लगाया और कल तक कांग्रेस की समर्पित कार्यकर्ता रही ग्लैमरस नफीसा अली को लखनऊ से अपना उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया । बेहतर चुनावी रणनीति और राहुल गांधी के होमवर्क की बात करनेवाली पार्टी को उस वक्त लखनऊ जैसी प्रतिष्ठित सीट के लिए कोई उम्मीदवार नहीं सूझ रहा था । जब कोई विकल्प नहीं मिला तो पार्टी ने अपने प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी को ही अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया । इस अफरातफरी से राहुल गांधी की तथाकथित रणनीति और फॉर्वर्ड प्लानिंग के दावों की हवा निकल गई । सूबे और लखनऊ की राजनीति को बेहद करीब से देखने और जाननेवालों की राय है कि अगर रीता बहुगुणा जोशी को थोड़ा वक्त मिलता तो वो लखनऊ की ये प्रतिष्ठित सीट कांग्रेस की झोली में डाल सकती थी ।
अगर हम सूबे की एक और सीट मुरादाबाद पर नजर डालें तो यहां भी कांग्रेस की लचर प्लानिंग दिखाई देती है । इस सीट पर भी जब कांग्रेस को कोई उम्मीदवार नहीं मिला तो आंध्र प्रदेश से पू्र्व क्रिकेटर अजहरुद्दीन को आनन फानन में यहां से टिकट दे दिया गया । अजहरुद्दीन वही क्रिकेट खिलाड़ी हैं, जिनपर मैच फिक्सिंग के मामले में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने आजीवन प्रतिबंध लगाया हुआ है । ये दीगर बात है कि जातिगत समीकरणों और ग्लैमर के सहारे अजहरुद्दीन चुनाव जीत गए । यह तो तीन सीटों की बानगी है, उत्तर प्रदेश में इनके अलावा भी कई सीटें गिनाई जा सकती हैं, जहां कांग्रेस की ना तो कोई योजना थी, ना ही कोई व्यूह रचना और ना ही किसी का कोई जादू चला । जीत की वजह कहीं स्थानीय फैक्टर रहा तो कहीं सूबे की राजनीति में चुनाव के वक्त बना गठबंधन रहा, जिसकी वजह से वोट बैंक शिफ्ट हुआ ।
अब अगर हम बिहार के चुनावी नतीजों पर नजर डालें तो यहां इस बार पार्टी को एक सीट का नुकसान हुआ । कांग्रेसियों का तर्क है कि बिहार में पार्टी के वोट प्रतिशत में बढो़तरी हुई है और वोटर राहुल गांधी के करिश्मे की वजह से पार्टी की ओर आकृष्ट हुए हैं । लेकिन अगर आंकड़ों पर गौर करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि बिहार में कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस वजह से बढ़ा है कि पार्टी ने लगभग सभी चालीस सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए । पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल से तालमेल की वजह से कम सीटों पर चुनाव लड़ा था । जाहिर है कि कोई भी पार्टी अगर ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ेगी तो उसके वोट प्रतिशत में वृद्धि तो होगी ही, इसके लिए ना तो किसी जादू की जरूरत है और ना ही किसी करिश्मे की ।
बिहार की ही तरह अगर हम आंध्र प्रदेश और गुजरात का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि वहां भी राहुल गांधी का कोई करिश्मा नहीं चला । आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की जीती तैंतीस सीटों में से पच्चीस सीट ऐसी हैं जहां अगर तेलगू देशम के चार पार्टियों के गठजोड़ और प्रजाराज्यम को मिले वोट जोड़ दिए जाएं तो वह कांग्रेस से ज्यादा है । इन पच्चीस में से सत्रह सीटें तो ऐसी हैं जहां तेलगू देशम गठजोड़ और प्रजाराज्यम का कुल वोट कांग्रेस के वोट से एक लाख से भी ज्यादा है । राज्य में कांग्रेस को भले ही तैंतीस सीटें मिली हों और तेलगू देशम गठबंधन को आठ, लेकिन दोनों के वोट प्रतिशत में एक फीसदी से कुछ ही ज्यादा का अंतर है । इसी तरह अगर हम गुजरात पर नजर डालें तो नरेन्द्र मोदी का अड़ियल रवैया और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करने की वजह से कांग्रेस को फायदा हुआ । मोदी ने पिछली बार जीते चौदह में से ग्यारह सांसदों का टिकट काटकर नए चेहरों को मौका दिया और ये सभी नए चेहरे चुनाव हार गए । इस वजह से राज्य में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट का ही नुकसान हुआ । तो उत्तर, दक्षिण और पश्चिम के राज्यों में हमने देखा कि राहुल का जादू कहीं नहीं चला । हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि राजीव गांधी के बाद पहली बार कांग्रेस ने चुनाव के पहले अपने प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के नाम का ऐलान कर दिया था । मनमोहन सिंह की छवि आम जनता में एक ईमानदार और कर्मठ प्रधानमंत्री के अलावा एक एक ऐसे राजनेता की रही है जो काम करता है और फालतू की बयानबाजी से बचता है । राहुल गांधी की प्रशस्ति करनेवालों को ये नहीं भूलना चाहिए कि पिछले पांच साल में मनमोहन सिंह का कद बहुत बढ़ा है ।
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Friday, July 3, 2009

लेखिकाओं का प्यारा खलनायक

नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों की बात है, संभवत: उन्नीस सौ बानवे की गर्मियों की । मैं अपने शहर जमालपुर से दिल्ली शिफ्ट होने आया था, आगे की पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में । दिल्ली में ही कार्यरत अपने चाचा भारत भारद्वाज के आरामबाग के सरकारी फ्लैट में रुककर दिल्ली विश्विद्यालय के आसपास रहने की जगह तलाश कर रहा था । भारत जी के फ्लैट में माहौल पूरा साहित्यिक था । रेलवे स्टेशन के पास होने की वजह से उनके घर साहित्यकारों का जमावड़ा लगा करता था । वो राजेन्द्र यादव के संपादन में निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका हंस में समकालीन सृजन संदर्भ के नाम से एक स्तंभ भी लिखा करते थे । मेरे अंदर भी साहित्य का कीड़ा कुलबुला रहा था । रोजाना रात में साहित्य पर लंबी लंबी बहसें हुआ करती थी । एक दिन मैंने भारत जी से कहा कि क्या ये संभव है कि मैं राजेन्द्र जी से मिल सकूं । मेरी इच्छा को देखते हुए उन्होंने हां कर दी और अगले दिन दो बजे के करीब हमलोग सरकारी एंबेसडर कार से अंसारी रोड पर हंस के दफ्तर पहुंचे । बंद गली के आखिरी मकान में हंस का दफ्तर था । पहले कमरे से गुजरकर हम राजेन्द्र जी के कमरे तक पहुंचे । जिनकी कहानियां और उपन्यास पढ़कर बड़ा हुआ था वो सामने बैठे थे । पूरे कमरे में सिगरेट का धुंआ तैर रहा था और काला चश्मा लगाए राजेन्द्र यादव अपनी कुर्सी पर विराजमान थे । अब ठीक से याद नहीं है कि उस वक्त कमरे में और कौन कौन था । भारत जी ने राजेन्द्र यादव से परिचय करवाया । इस बात को अठारह साल बीत चुके हैं और इन अठारह वर्षों में यादव जी से हजारों बार फोन पर बातें हुई लेकिन उस दिन की मुलाकात मुझे अब भी याद है और एक दिलचस्प वाकया भी । हमलोग राजेन्द्र जी के दफ्तर में बैठे चाय पी रहे थे, फिर भारत जी और राजेन्द्र यादव के बीच तय हुआ कि श्रीराम सेंटर चला जाए । हमलोग कमरे से बाहर निकले और जब दरवाजे तक पहुंचे ही थे कि एक बेहद खूबसूरत और आकर्षक महिला ने दप्तर में प्रवेश किया । वो बेहद आत्मीयता के साथ राजेन्द्र यादव जी से मिली । राजेन्द्र यादव जी स्नेहवश उस महिला लेखिका की पीठ पर हाथ रख दिया - छूटते ही लेखिका ने यादव जी से कहा कि अगर आप इस तरह से मेरे पीठ पर हाथ रखेंगे तो संभव है कि मैं उत्तेजित हो जाऊं, मैं जवान हूं और अगर उत्तेजित हो गई तो आपकी खैर नहीं । खूबसूरत लेखिका की इस बात पर राजेन्द्र जी एक जोरदार ठहाका लगाया और फिर आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया । कस्बाई शहर की मानसिकता लिए महानगर पहुंचा मैं इस संवाद को सुनकर हतप्रभ था, लेकिन ये सबकुछ इतनी सहजता से बीता, लगा कुछ हुआ ही नहीं हो ।
बाद के दिनों में कई बार राजेन्द्र जी के दफ्तर गया, कई बार उन्हें महिला लेखिकाओं को गले लगाकर आशीर्वाद देते देखा, लेकिन उस दिन का वाकया भुलाए नहीं भूलता । कई बार राजेन्द्र जी से फोन पर लंबी लंबी बातें हुई है, महिलाओं भी बातचीत का विषय बनीं । जब भी स्त्री विमर्श पर बात होती मैं उन्हें छेड़ते हुए कहता कि विमर्श की डोर तो आपके हाथ से छूट गई है, बच गई है सिर्फ स्त्री । जब भी मैं ये बात उनके मुंह से गाली की गंगोत्री प्रवाहित होने लगती । हिंदी जगत में राजेन्द्र जी का महिला प्रेम जगजाहिर है, उनकी महिला मित्र मंडली भी । उस मंडली को एक बार ममता कालिया ने घाघरा पलटन नाम दिया था ।
राजेन्द्र यादव की मंडली की ही युवा पत्रकार गीताश्री ने यादव को केंद्र में रखकर एक किताब संपादित की है- तेइस लेखिकाएं और राजेन्द्र यादव( किताबघर प्रकाशन, दिल्ली ) । इस किताब के बनने की बेहद दिलचस्प कहानी गीताश्री ने अपनी भूमिका में बताई है- जयंती की छत के दीवान-ए-खास में उस शाम राजेन्द्र यादव के अलावा डॉ मनीषा तनेजा, अमृता ठाकुर, सीमा झा-श्रीनंद झा, गीताश्री, कमलेश जैन के अलावा शिवकुमार शिव भी मौजूद थे । बातचीत के क्रम में ये बात निकली कि राजेन्द्र यादव पर गीताश्री एक किताब संपादित करें, एक ऐसी किताब जिसमें सिर्फ स्त्रियां यादव के बारे में लिखे । प्रस्ताव राजेन्द्र यादव के सम्मुख उनकी स्वीकृति हेतु पेश किया गया । उस प्रस्ताव पर राजेन्द्र यादव ने ना तो हां की और ना ही मना किया । लगभग दो ढाई वर्षों बाद अचानक एक दिन अचानक गीताश्री को फोन करके राजेन्द्र यादव ने किताब छापने की अनुमति दे दी । शायद इन दो वर्षों में वो गीताश्री को परख रहे थे ।
उसके ठीक विपरीत अगर हम राजेन्द्र यादव के छिहत्तरवें जन्मदिन पर साधना अग्रवाल और भारत भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित पुस्तक- हमारे युग का खलनायक- की भूमिका देखें तो वहां अपने उपर पुस्तक संपादित करने की योजना को यादव जी ने चंद क्षणों में अनुमति दे दी थी । ये हैं राजेन्द्र यादव के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स ।
तेइस लेखिकाएं और राजेन्द्र यादव नामक इस पुस्तक में तीन खंड हैं, जिनमें अलग अलग लेखिकाओं के समय समय पर लिखे लेख और साक्षात्कार हैं । जयंती रंगनाथन के साक्षात्कार के अलावा सारे विचार और साक्षात्कार पूर्व प्रकाशित हैं । लेकिन इस संग्रह की खासियत यह है कि स्त्री विमर्श के इस झंडाबरदार के बारे में तमाम स्त्री लेखिकाओं के विचार एक जगह उपलब्ध हैं । इन तमाम लेखों और साक्षात्कारों में जो एक सामान्य बात प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उभरकर सामने आती है वो ये है कि राजेन्द्र यादव से चाहे आप जितनी भी मतभिन्नता रखें, उनसे चाहे आपके विचार कतई नहीं मिलते हों , लेकिन फिर भी आप उनसे प्यार करते हैं । राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व में जो खिलंदड़ापन, जिंदादिली और हर उम्र के लोगों से खुलकर बात करने का जो हुनर उनके पास है वो इस किताब में शिद्दत से रेखांकित होता है ।
मेरे सामने राजेन्द्र यादव पर संपादित दोनों किताबें - हमारे युग का खलनायक राजेन्द्र यादव( संपादक- भारत भारद्वाज/साधना अग्रवाल) और तेइस लेखिकाएं और राजेन्द्र य़ादव रखी हैं । दोनों पुस्तकों के कवर पर एक ही तस्वीर है लेकिन मुद्राएं अलग हैं। खलनायक वाली किताब में मुंह में पाइप डालकर, चेहरे पर गंभीरता का आवरण हिंदी साहित्य के डॉन की छवि को पुख्ता करता है। वहीं गीताश्री वाली किताब के कवर पर पाइप मुंह से बाहर और चेहरे पर एक ऐसी मुस्कान है जो तेइस लेखिकाओं से घिरे होने पर स्वत: आ जाती है । लेकिन किताबघर से प्रकाशित इस किताब (पेपरबैक) का प्रोडक्शन स्तरहीन है । हर पृष्ठ पर राजेन्द्र यादव की अलग अलग तस्वीर लगी है, लेकिन कागज की खराब क्वालिटी की वजह से फोटो भी बदतर हो गए हैं, जो किताबघर की प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं हैं । यहीं पर आप हिंदी और अंग्रेजी में छपनेवाली किताबों की क्वालिटी का फर्क महसूस कर सकते हैं । अंग्रेजी के प्रकाशक प्रोडक्शन क्वालिटी से कभी समझौता नहीं करते, काश हिंदी में भी ऐसा हो पाता ।