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Monday, January 18, 2010

नदियों के गुनहगार

नदियों के गुनहगार
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि गंगा इतनी मैली है इस बात का अंदाजा उन्हें नहीं है । क्या उन्होंने ये जुमले भी नहीं सुने कि गंगा मैली हो रही है, गंगा रास्ता बदल रही है, गंगा के किनारों का कटाव हो रहा है , गंगा को बचाना है, गंगा को बचाने के लिए सरकारी स्तर प्रयास किए जा रहे हैं । ये ऐसे जुमले हैं जो वर्षों से सुर्खियां बन रहे हैं लेकिन हालात में कोई बदलाव नहीं आता दिख रहा है । गंगा नदी से देश की आबादी का बड़ा हिस्सा जुडा़ है और वही आबादी उसे बरबाद करने पर तुली है । जाने या अनजाने लोग गंगा को कूड़ेदान की तरह इस्तेमाल करते हैं और व्यक्तिगत और औद्योगिक कचड़े का एक बड़ा हिस्सा गंगा में प्रवाहित कर देते हैं । यही हालत देश की राजधानी से गुरनेवाली नदी यमुना की भी है बल्कि यों कहें कि यहां तो हालत और भी बदतर है । नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में जब दिल्ली आया था तो यमुना में कुछ पानी होता था और कहीं -कहीं साफ पानी के भी दर्शन हो जाते थे लेकिन दो दशकों में यमुना पूरे तरीके से गंदे नाले में तब्दील हो गई है ।
हालात बदतर होते देख प्रधानमंत्री ने भी इसपर चिंता जताई और गंगा को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर भी ठोस उपाय करने के इरादों का इजहार किया । इसी तर्ज पर दिल्ली सरकार ने एक बार फिर यमुना का उद्धार करने की योजना बनाई है । सरकारी स्तर पर नदियों को बचाने के लिए सत्तर के दशक में भी एक मुहिम शुरू हुई थी और उन्नीस सौ चौहत्तर में पर्यावरण संरक्षण कानून और जल ( प्रदूषण और रोकथाम ) कानून बनाया गया था । इस कानून में नदियों को गंदा करने और उसके स्वरूप में बदलाव लाने की कोशिशों को रोकने के लिए दंड का प्रावधान किया था । इस कानून की धाराओं के मुताबिक नदियों के पानी को प्रदूषित करनेवाले को अठारह महीने से छह साल तक की सजा का प्रावधान किया गया था । लेकिन इस कानून के बनने के पच्चीस साल बाद भी किसी को उसके तहत सजा हुई हो और उसे जेल भेजा गया हो ऐसा ज्ञात नहीं है । यह कानून सिर्फ सरकारी अधिकारियों की कमाई का एक जरिया बनकर रह गया है । होता यह है कि सरकारी अधिकारी यह मानकर चलते हैं कि यह कानून सिर्फ प्रदूषण फैलानेवाले फैक्ट्रियों पर लागू होता है और वहां वो सजा का भय दिखाकर मोटी कमाई करते हैं ।
इस कानून के अंतर्गत आम जनता को भी सजा हो सकती है । ऐसे किसी भी शहर में जाइये जहां से कोई नदी गुजर रही हो और आप उसके पुल पर पांच मिनट खड़े हो जाइये, आपको कई भक्त ऐसे मिलेंगे जो पॉलीबैग में फूल,धूप, अगरबत्ती और अन्य पूजा का सामान प्रवाहित करते नजर आ जाएंगे । चाहे वो दिल्ली का निजामुद्दीन पुल हो, लखनऊ में गोमती नदी पर बना लोहिया ब्रिज हो या फिर अयोध्या में राम की पैड़ी के पास का सरयू नदी का पुल हो, सरेआम कानून की धज्जियां उड़ाते लोग आपको नजर आएंगे । लेकिन कानून का पालन करवानेवालों को कानून का सरेआम उल्लंघन दिखाई नहीं देता । दिल्ली में तो हालात इतने बदतर हो गए कि लोगों को रोकने के लिए सरकार ने निजामुद्दीन पुल पर लोहे का पच्चीस फुट उंचा जाल लगवाया । लेकिन फिर भी लोग कहां मानने वाले कहीं जाली तोड़ दी गई तो कहीं उस जाल के उपर से गंदा फेंकने की कोशिश की गई । नतीजा यह हुआ कि जो पुल साफ सुथरा दिखता था वह बेहद गंदा और बदसूरत दिखने लगा ।
नदियों को बचाने की सरकारी नीति और कानून बनाकर इसे नहीं बचाया जा सकता है, जरूरत इस बात की है कि लोगों को जागरूक किया जाए और उन्हें उनके कृत्य से होनेवाले खतरों से आगाह करने की मुहिम चलाई जाए । कानून तो सिर्फ एक हथियार हो सकता है जिससे नासमझ लोगों को डराकर इस प्रवृति को रोका जा सके, ताकि आनेवाली पीढियां हमें नदियों के गुनहगार के तौर पर याद ना करें

2 comments:

geetashree said...

नदियो का अंत यही है...उन्हें मरना है मनुष्यों के हाथो..प्रति के साथ खेलना तो कोई हमसे सीखे। हाल ही में एक दिन मैं आटो से कहीं जा रही थी...मुझे कई आटो वाले मना कर चुके थे..एक आया और झट से हां कर दिया। रास्ते में जाम के बावजूद वह दक्षिण दिल्ली जाने को तैयार,,देखा गाड़ी में कुछ सामान सीट के पीछेवाले हिस्से में रखा है। उसमें से सुंदर विचारो की तरह चदन, अगरबत्ती, धूप की भीनी खूशबू आ रही थी।
मैंने पूछ लिया-भइया ये क्या है।
ये जागरण के सामान है। पूजा हुई थी। इन्हें युमना में प्रवाहित करना है। मुझे गुस्सा चढा। तो इसीलिए कुम मेरे साथ चलने को तैयार हुए कि रास्ते में यमुना पड़ेगी।
बातचीत के क्रम में निजामुद्दीन पुल आ गया था। वो जवाब देने के बजाए आटो से उतरा और और भारी भरकम गठरी उठाई और ऊपर से छप...वापस आया और बोला, बहिन जी, ये पूजा का सामान है। इन्हें कूड़ा में नहीं फेंक सकते।
तुम्हारे जैसे लोग ही यमुना को इस हालत में पहुंचा रहे हैं। नाले में बदल गई है। इतना कचरा फेकोगे तो क्या हाल होगा। मेरी चिंता पर वह हंसा। मैं अज्ञानी। उसका जवाब मुझे लाजवाब कर गया।
हमसे ज्यादा तो यमुना में कचरा फैक्ट्री से आ रहा है। सारा मलबा यमुना में। उसके बाद शहर भर की नालियां सीधे यमुना में...गंगा में देश भर में जो मरते हैं वे अपनी राख और हड्डियां वहीं प्रवाहित करते हैं...इन्हें क्यों नहीं रोकते.. हम जोफेंकते हैं वह सीधे नही तल में जाकर बैठ जाता है। वो कैसे प्रदूषित करेंगा..बताइए..उनको रोकिए ना...वो बोल रहा था..मुझे सुनाई देना बंद हो चुका था।

गीताश्री

अविनाश वाचस्पति said...

यहां आकर हर जवाब
लाजवाब हो जाता है।